लेखक- आर एल फ्रांसिस
√ चर्च के संसाधनों पर दलित ईसाइयों की कितनी भागीदारी
चर्च द्वारा संचालित संस्थानों में दलित ईसाइयों को महत्वपूर्ण स्थान कभी नहीं दिया गया। भारत के सबसे बड़े कैथोलिक चर्च में ही वे उपेक्षित व अपमानित स्थिति में हैं। कैथोलिक बिशप कॉन्फ्रेंस ऑफ इंडिया (सीबीसीआई) और नेशनल काउंसिल चर्चेज फॉर इंडिया (एनसीसीआई) क्या यह बता सकते हैं कि चर्च के इस विशाल साम्राज्य में दलित ईसाइयों की कितनी हिस्सेदारी है। कितने स्कूलों में ईसाई प्रिंसिपल और अध्यापक हैं? कितने कॉलेज में प्रोफेसर या डीन हैं? कितने अस्पतालों में डॉक्टर हैं? शिक्षा का डंका बजाने वाले चर्च की कृपा से पढ़-लिखकर कितने उच्च पदों पर हैं? हजारों करोड़ के विदेशी अनुदान से गरीबों का उद्धार करने वाले चर्च के सामाजिक संगठनों में कितनो के निर्देशक दलित ईसाई है?
आध्यात्मिक मामलों की ही बात करें तो दलित ईसाइयों की स्थिति बेहद दयनीय है। मौजूदा समय में भारत के कैथोलिक चर्च में 4 कार्डीनल हैं। इनमें कोई दलित ईसाई नही है। 30 आर्च बिशप हैं। इनमें कोई दलित ईसाई नही है। 175 बिशप हैं। इनमें केवल 9 दलित बिशप हैं। कैथोलिक चर्च में 822 मेजर सुप्रीरियर हैं। इनमें केवल 12 दलित ईसाई है। 25000 कैथोलिक पादरियों में केवल 1130 दलित ईसाई है। एक लाख नन में से केवल कुछ हजार धर्म बहनें ही दलित वर्ग से आती हैं। करीब एक दशक पूर्व दिल्ली के सेंट स्टीफन कॉलेज में चर्च नेतृत्व ने धूम धड़ाके के साथ दलित ईसाइयों को 40 प्रतिशत आरक्षण देने का ऐलान किया था। इसे देखते हुए दिल्ली कैथोलिक आर्च डायसिस ने भी 30 प्रतिशत आरक्षण देने का ऐलान किया था। सेंट स्टीफन कॉलेज ने दो साल के अंदर ही आरक्षण बंद कर दिया। कैथोलिक ने कभी इसे लागू ही नहीं किया।
चर्च के पूरे साम्राज्य पर मुट्ठी भर कलर्जी वर्ग का एकाधिकार बन गया है। कर्नाटक उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश माइकल एफ सलदना के मुताबिक चर्चों के नीतिगत फैसले लेने में केवल 1.3 प्रतिशत कलर्जी वर्ग का दबाव है। 98.7 प्रतिशत लेइटी की कोई भूमिका ही नहीं है। पिछले छह दशकों में चर्च ने हजारों अरब रुपयों की संपत्तियों को बेच दिया है। वह पैसा कहां गया, इसकी समाज को कोई जानकारी नहीं है। भारत में हजारों ऐसे चर्च हैं जहां हर चर्च में प्रति वर्ष 2.5 मिलियन रुपये इकट्ठा होते हैं। चर्चों में इकट्ठा होने वाले इन अरबों रुपयों को गरीब ईसाइयों के विकास पर खर्च करने का कोई मॉडल ही नहीं है। वर्ष 2002 में देश की राजधानी दिल्ली में ‘पुअर क्रिश्चियन लिबरेशन मूवमेंट’ ने दलित ईसाइयों के विकास के लिए कैथोलिक बिशप कॉन्फ्रेंस ऑफ इंडिया एवं नेशनल काउंसिल चर्चेज फॉर इंडिया के सामने दस सूत्री मांग पत्र रखा था।
इसमें चर्च संस्थानों में समुदाय की भागीदारी, धर्म परिवर्तन पर रोक, विदेशी अनुदान में पारदर्शिता, बिशपों का चुनाव वेटिकन/पोप की जगह समुदाय द्वारा करने, चर्च संपत्तियों की रक्षा हेतु बोर्ड बनाने जैसे मुद्दे उठाये गये थे। इसे चर्च नेतृत्व ने अपनी कुटिलता से दबा दिया था। मूवमेंट के कार्यकर्ता ईसाई समाज में जन-चेतना फैलाने के अपने कार्य में लगे हैं। इसी का परिणाम है कि आज सबसे शक्तिशाली माने जाने वाले रोमन कैथोलिक चर्च में भी आम ईसाइयों के अधिकारों की बात उठने लगी है। भारत का चर्च न तो चर्च संसाधनों पर अपनी पकड़ ढीली करना चाहता है और न ही वह वेटिकन और अन्य पश्चिमी देशों का मोह त्यागना चाहता है। विशाल संसाधनों से लैस चर्च अपने अनुयायियों की स्थिति से पल्ला झाड़ते हुए उन्हें सरकार की दया पर छोड़ना चाहता है।
दलित ईसाइयों को मुआवजा दे वेटिकन
भारत में चर्च को कुछ संवैधानिक अधिकार प्राप्त है। भाषा और संस्कृति को संरक्षण देने वाली संवैधानिक धाराओं का दुरुपयोग करते हुए चर्च ने भारत में कितनी संपत्ति इकट्ठी की है इसकी निगरानी करने का कोई नियम नहीं है। जबकि कई पश्चिमी देशों में इस तरह की व्यवस्था बनाई गई है। चर्चो और उनके संस्थानों को नियंत्रित करने के लिए कोई कानून नहीं है। देश में सरकार के बाद चर्च के पास दूसरे नम्बर पर भूमि है और वह भी शहरी पॉश इलाकों में। देश की जनसंख्या का ढाई प्रतिशत होने का दावा करने वाले चर्च के पास भारत की 22 प्रतिशत शिक्षण संस्थाएं और 30 प्रतिशत स्वास्थ्य सेवाओं पर चर्च का कब्जा है। इतना सब होने पर भी आम गरीब ईसाई मर रहा है और हमारे चर्च नेता धर्म प्रचार की स्वतंत्रता और उनकी संस्थाओं को विशेष दर्जा दिलाने जैसे कार्यो में ही व्यस्त है।
कुछ साल पहले दलित ईसाइयों (धर्मांतरित ईसाइयों) के एक प्रतिनिधिमंडल ने संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बान की मून के नाम एक ज्ञापन देकर आरोप लगाया था, कि कैथोलिक चर्च और वेटिकन दलित ईसाइयों का उत्पीड़न कर रहे है। जातिवाद के नाम पर चर्च संस्थानों में दलित ईसाइयों के साथ लगातार भेदभाव किया जा रहा है। उन्हें चर्च में बराबर के अधिकार उपलब्ध कराए, अगर वह ऐसा नहीं करते है, ताे संयुक्त राष्ट्र में वेटिकन को मिले स्थायी अबर्जवर के दर्जे को समाप्त कर दिया जाना चाहिए। मूवमेंट ने 23 December 2011 काे एक Open Letter to Pope Benedict XVI (https://www.globalfreepress.org/contributors/india/rl-francis/3173-open-letter-to-his-holiness-pope-benedict-xvi) काे भी लिखा।
ईसाई संगठन पुअर क्रिश्चियन लिबरेशन मूवमेंट ने पोप फ्रांसिस एवं वेटिकन की सुप्रीम काउंसिल और वर्ल्ड काउंसिल ऑफ़ चर्चेज (डब्लूय.सी.सी.) से मांग की कि वह एवेंजलिज्म (धर्म प्रचार) पर खर्च होने वाले धन का उपयोग दलित ईसाइयों के विकास के लिये करें। कैथोलिक चर्च में बिशप का चुनाव करने का अधिकार आम ईसाइयों को दे – वर्तमान समय में वेटिकन का पोप ही बिशप नियुक्ति करता है। स्थानीय ईसाइयों के बीच चर्च सत्ता का हस्तांतरण करने और चर्चों और चर्च संस्थानों से प्राप्त होने वाले धन को दलित ईसाइयों पर खर्च करने की मांग की है। इसके लिए चर्च अपने विशेष अधिकारों के तहत चलाए जा रहे संस्थानों में डायवर्सिटी को लागू करे।
कैथोलिक ढांचे में दलित चर्च की स्थापना क्यों की जाए?
तमिलनाडु के दलित ईसाई संगठनों ने भारत में एक नया दलित चर्च शुरू करने का प्रस्ताव रखा है। नवगठित भारतीय दलित कैथोलिक संस्कार (संप्रदाय) वेटिकन या पोप के प्रत्यक्ष शासन के तहत ही कार्य करेगा। लेकिन इसके पहले नेशनल कौंसिल ऑफ दलित क्रिश्चियन (NCDC) के संयोजक ने कहा था, कि “नया चर्च भारतीय कैथोलिक चर्च के जातिवादी नेतृत्व से दलित कैथोलिक ईसाइयों को अलग करेगा।” अब स्वाभाविक रूप से सवाल उठता है कि अगर वर्तमान में वेटिकन भारतीय कैथोलिक चर्च में सुधार करने और उसे मानवतावादी विचारधारा में ढालने में विफल रहा है, तो क्यों न उसे कराेड़ाें धर्मान्तरित ईसाइयों की आस्था से विश्वासघात करने के लिए कटघरे में खड़ा किया जाए।
ईसाइयत जब हर प्रकार के भेदभाव, जाति और नस्ल काे नकारते हुए मसीहियत में सभी काे समान मानती है तो फिर भारत में वेटिकन के नेतृत्व में दलित चर्च क्यों बनाया जाए ? कहीं ऐसा तो नहीं कि हिंदू दलितों में अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए इस कार्य योजना काे आगे बढ़ाया जा रहा है। जब नवगठित भारतीय दलित कैथोलिक, पोप के प्रत्यक्ष शासन के तहत ही कार्य करेगा, तो उसे खड़ा करने में वेटिकन निवेश भी करेगा। नया संगठनात्मक ढांचा, नए चर्च, डायसिस और कई तरह के सामाजिक -अनुसंधान संगठन बनाने का भी काम करेगा। जाहिर है कि इसमें पादरियों और बिशप की नियुक्ति भी सीधे तौर पर वेटिकन के पास ही रहेगी। फिर क्यों न माैजूदा कैथोलिक चर्च में डाइवर्सिटी काे लागू कर धर्मान्तरित ईसाइयों काे उचित भागीदारी दी जाए।
दलित कैथोलिक चर्च का विचार दलित ईसाइयों के साथ किसी विश्वासघात से कम नहीं है, जिसका लाभ कम नुकसान ज्यादा दिखाई दे रहा है। अगर भविष्य में कभी किसी षड्यंत्र के तहत ऐसा हाेता है ताे उस से धर्मान्तरित ईसाइयों काे क्या लाभ ? कैथोलिक चर्च में दलित ईसाइयों की संख्या 60 प्रतिशत से भी ज्यादा है, इसलिए यह दलित चर्च ही है। भारत में सदियों से ऊंच-नीच, असमानता और भेदभाव का शिकार और सामाजिक हाशिए पर खड़े करोड़ों दलितों ने चर्च / क्रूस को चुना है लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि चर्च उनके जीवन स्तर को सुधारने की जगह अपने साम्राज्यवाद के विस्तार में व्यस्त है।
कैथोलिक चर्च के विशाल संसाधनों का लाभ दलित ईसाई इसलिए नहीं उठा पा रहे, क्योंकि वह चर्च के चक्रव्यूह में फँस गए हैं। ईसाई समाज में सामाजिक आंदोलन नहीं के बराबर है। धर्मान्तरित ईसाई पिछली कई शताब्दियों से चर्च के लिए अपना खून -पसीना बहा रहे हैं, और बदले में चर्च नेतृत्व से उन्हें मिला क्या? एक षड्यंत्र के तहत कैथोलिक बिशप कॉन्फ्रेंस ऑफ इंडिया और नेशनल काउंसिल फार चर्चेज इन इंडिया ने वर्ल्ड चर्च काउंसिल, वेटिकन और कई अंतरराष्ट्रीय मिशनरी संगठनों के सहयोग से पिछले पचास वर्षों से धर्मान्तरित ईसाइयों काे अनुसूचित जातियों की सूची में शामिल करवाने का तथाकथित आंदोलन चला रखा है।
एक तरफ वह हिंदू दलितों काे अपने बाड़े में ला रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ वह इनके ईसाइयत में आते ही उन्हें दोबारा हिंदू दलितों की सूची में शामिल करने की मांग करने लगते हैं, अगर उन्हें अनुसूचित जातियों की श्रेणी में ही रखना है तो फिर यह धर्मांतरण के नाम पर ऐसी धोखाधड़ी क्यों ? आधे से ज्यादा अपने अनुयायियों को अनुसूचित जातियों की श्रेणी में रखवा कर वह इनके विकास की ज़िम्मेदारी सरकार पर डालते हुए हिन्दू दलितों को ईसाइयत का जाम पिलाने का ताना-बाना बुनने में लगे हुए हैं।
चर्च में भेदभाव के विरुद्ध खामोशी क्यों ?
दरअसल चर्च व्यवस्था में उत्पीड़न के विरुद्ध आवाज उठाने वालों काे ही कटघरे में खड़ा कर दिया जाता हैं। यह सब इसलिए है कि मुख्य समस्या चर्च के दर्शन में निहित है, चर्च प्रार्थना करने और चर्च आने के लिए जिस तरह अपने अनुयायियों विशेषकर युवाओं को मोटिवेट करता है, उसकी कल्पना किसी और मत—पंथ में नहीं की जा सकती। छोटे बच्चों के लिए संडे स्कूल के नियमों काे इतनी सख्ती से लागू किया जाता है कि वयस्क होते वह पूरी तरह चर्च की आज्ञाकारिता में ऐसे ढल जाते हैं कि चर्च व्यवस्था या कैनन लॉ पर उंगली उठाने काे भी पाप माना जाता है।
एक आम ईसाई का जीवन तीन पांथिक प्रथाओं (बपतिस्मा, शादी और मृत्यु बाद दफनाने की क्रिया ) पर टिका होता है। इन तीनों पर चर्च का नियंत्रण रहता है। जरा सा भी इधर-उधर हुए तो आप पर सामाजिक बहिष्कार की तलवार लटकने की अंशका खड़ी हो जाती है। जहां तक चर्च के अंदर याैन शाेषण, भ्रष्टाचार, अनैतिकता जैसी बुराइयों की बात है, इस पर आम ईसाई कोई बात ही नहीं करना चाहता। क्योंकि हर रविवार की प्रार्थना में उसे यही सिखाया जाता है कि चर्च किस तरह दुनिया में ईश्वर के राज्य को बनाने के काम में लगा हुआ है। कुल मिलाकर मंद स्वर में यह संदेश भी दिया जाता कि हमें ऐसी कोई बात नहीं करनी चाहिए जिससे चर्च की बदनामी हो और उसके काम में बाधा आए।
दरअसल, जिस तरह हिंदू समाज में समय—समय पर सांस्कृतिक पुनर्जागरण हुआ। हिंदू समाज के बीच महर्षि दयानंद, राजा राम माेहन राय, वीर सावरकर, डॉ भीमराव आंबेडकर, ज्योतिबा फुले जैसे अनेक महापुरुषों ने अपना योगदान दिया है। ऐसा भारत में ईसाइयों के साथ पिछली कई शताब्दियों से नहीं हुआ, उनके बीच कोई सुधारवादी धारा बह ही नहीं पाई। आज जब पूरी दुनिया में चर्च के अनुयायी उसके एकाधिकार काे चुनाैती दे रहे है। यूरोप के चर्च में ताजी हवा के झोंके आने की उम्मीद बन रही है। वहीं भारत में कोई सुगबुगाहट नहीं है, यहाँ पुरोहित वर्ग मस्त – अनुयायी पस्त और नन तस्त्र है।
आम ईसाइयों को चाहिए कि वह उन लोगों का साथ दें, जाे चर्च ढांचे में शोषित -उत्पीड़ित किए जा रहे हैं। भारतीय ईसाइयों के लिए यह दुखद है कि सैकड़ों सालों से देश के अंदर चर्च में कोई सुधारवादी आंदोलन खड़ा नहीं हो सका। चर्च ने आम ईसाइयों पर अपना इतना प्रभुत्व स्थापित कर लिया है कि वह किसी सुधारवादी आंदोलन काे पनपने ही नहीं देता। गर्भ से लेकर कब्र तक वह आम ईसाइयों के जीवन काे संचालित कर रहा है।
धर्म प्रचार और विदेशी अनुदान पर सरकारी नजरिया
धर्मांतरण विरोधी विधेयक को लेकर कर्नाटक में चर्च नेतृत्व ने भारतीय जनता पार्टी की बसवराज बोम्मई सरकार के विरुद्ध जैसे मोर्चा खोला था वह हैरान करने वाला था। कर्नाटक सरकार का मानना था, कि धर्मांतरण के खिलाफ मौजूदा क़ानून असरदार नहीं है, इसे लागू करना कठिन है। दिलचस्प बात ये है कि प्रस्तावित क़ानून से मुसलमान या सिख या जैन जैसे अल्पसंख्यक समूह चिंतित नहीं थे। केवल ईसाई मिशनरी ही चिंतित थे। कुछ साल पहले अपने काे हिंदू समाज से अलग बताने और अपने लिए अल्पसंख्यक का दर्जा मांगने वाला लिंगायत समुदाय भी राज्य में धर्मांतरण विरोधी कानून बनाने के समर्थन में था। कर्नाटक सरकार का मानना था कि धर्मांतरण केवल उत्तरी कर्नाटक के जिलों में ही नहीं हो रहा बल्कि पूरे राज्य में हो रहा है। वहीं दूसरी ओर चर्च नेतृत्व का मत था, कि भारत में ईसाइयों की आबादी सिर्फ़ 2.1 फ़ीसदी है, जबकि कर्नाटक में यह हिस्सा 1.87 फीसदी से भी कम है अगर धर्मांतरण हो रहा है, ताे हम बढ़ क्यों नहीं रहे हैं।
हाल में केंद्रीय गृह मंत्रालय ने कई बड़े ईसाई मिशनरी संगठनों को विदेशी अनुदान विनियमन अधिनियम के तहत मिली अनुदान लेने की अनुमति रद्द कर दी। इनमें से अधिकतर संगठन उत्तर और पूर्वोत्तर के राज्यों में सक्रिय थे सरकार के मुताबिक वह विदेशी अनुदान का दुरुपयोग कर रहे थे। इस के विरोध में बड़े- बड़े क्रिश्चियन संगठनों ने इस फैसले पर अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अपना विरोध जताया है। इसी के परिणाम स्वरूप कई अंतरराष्ट्रीय संगठनों ने भारत में कथित रूप से घटती धार्मिक स्वतंत्रता पर कई रिपोर्ट जारी की है। इन वर्गों का एक बड़ा हिस्सा पहले से ही भारत की वैश्विक छवि काे धूमिल करने का अभियान चला रहा है। कुछ समय पूर्व The New York Times में प्रकाशित लेख India’s Christians Attacked Under Anti-Conversion Law Arrest, Beating and Secret Prayers: Inside the Persecution of India’s Christians से समझा जा सकता है।
भारत की स्वतंत्रता के बाद संसद ने कई धर्मांतरण विरोधी बिल पेश किए, लेकिन कोई भी प्रभाव में नहीं आया। सबसे पहले 1954 में इंडियन कन्वर्ज़न (रेग्युलेशन एंड रजिस्ट्रेशन) बिल पेश किया गया था, जिसमें “मिशनरियों के लाइसेंस और धर्मांतरण को सरकारी अधिकारियों के पास रजिस्टर कराने की बात कही गई थी। इस बिल को लोकसभा में बहुमत नहीं मिला। इसके बाद 1960 में पिछड़ा समुदाय (धार्मिक संरक्षण) विधेयक लाया गया, जिसका मकसद था कि हिंदुओं को ‘गैर-भारतीय धर्मों’ में परिवर्तित होने से रोका जाए। विधेयक की परिभाषा के अनुसार, इसमें इस्लाम, ईसाई, यहूदी और पारसी धर्म शामिल थे।
इसके बाद 1979 में फ्रीडम ऑफ रिलीजन बिल आया जिसमें “धर्मांतरण पर आधिकारिक प्रतिबंध” की बात कही गई थी। राजनीतिक समर्थन न मिलने की वजह से ये बिल संसद में पास नहीं हो सके। 2015 में कानून मंत्रालय ने राय दी थी कि जबरन और धोखाधड़ी वाले धर्मांतरण के खिलाफ राष्ट्रीय स्तर पर कानून नहीं बनाया जा सकता, क्योंकि कानून और व्यवस्था राज्य का विषय है।
पिछले कुछ वर्षों में कई राज्यों ने जबरन, धोखाधड़ी से या प्रलोभन देकर धर्म परिवर्तन को प्रतिबंधित करने के लिए “फ्रीडम ऑफ रिलीजन” कानून लागू किया है। रिसर्च करने वाले संगठन पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च ने हाल ही में कई राज्यों में मौजूदा धर्मांतरण विरोधी कानूनों की तुलना करते हुए एक रिपोर्ट जारी की है। “धार्मिक स्वतंत्रता” से जुड़े कानून वर्तमान में आठ राज्यों में लागू है- ओडिशा (1967), मध्य प्रदेश (1968), अरुणाचल प्रदेश (1978), छत्तीसगढ़ (2000 और 2006), गुजरात (2003), हिमाचल प्रदेश (2006 और 2019), झारखंड (2017) और उत्तराखंड (2018) इसके अलावा, तमिलनाडु ने 2002 में और राजस्थान ने 2006 और 2008 में इसी तरह का कानून पारित किया था। हालांकि, 2006 में ईसाई अल्पसंख्यकों के विरोध के बाद तमिलनाडु के कानून को निरस्त कर दिया गया था, जबकि राजस्थान के इस विधेयक को राज्यपाल और राष्ट्रपति की स्वीकृति नहीं मिली।
चर्च नेतृत्व ने उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, गुजरात, झारखंड और हिमाचल प्रदेश में बने इसी तरह के धर्मांतरण विरोधी क़ानूनों को देश की अदालतों में चुनौती दी है। चर्च नेतृत्व का मानना है कि उत्तर प्रदेश का कानून भावना और चरित्र दोनों लिहाज से असंवैधानिक है। धर्म परिवर्तन करवाना सही नहीं है, पर संविधान में सभी धर्म के प्रचार की आजादी है। पहले के धर्मांतरण विरोधी कानून धर्म परिवर्तन करवाने वाले के लिहाज से बने हुए थे, लेकिन हिमाचल प्रदेश और गुजरात के कानून धर्म बदलने वालों से सवाल पूछते हैं। यही कारण है कि उत्तर प्रदेश के नए कानून के अनुसार यदि कोई धर्मांतरण पर आपत्ति दर्ज करता है तो धर्म में बदलाव नहीं माना जाएगा। सरकार धर्म बदलने के किसी के अधिकार में सीधे हस्तक्षेप कर रही है।
विदेशी अनुदान का तथाकथित धर्मांतरण के लिए उपयोग हमेशा से ही विवादों में रहा है। पाश्चात्य ईसाई देशों की सरकारें धर्मांध कट्टरपंथी ईसाई मिशनरी तत्वों को धर्म परिवर्तन के नाम पर एशिया और अफ्रीका जैसे देशों को निर्यात करती रहती हैं। इससे उन्हें दो तरह के फायदे होते हैं। एक तो इन कट्टरपंथी तत्वों का ध्यान गैर-ईसाई देशों की तरफ लगा रहता है, जिस कारण वे अपनी सरकारों के लिए कम दिक्कतें पैदा करते हैं और दूसरे, जब भारत जैसे देशों में विदेशी अनुदान से धर्मांतरण होता है, तो धर्मांतरित लोगों के जरिए विभिन्न प्रकार की सूचनाएं इकट्ठा करने और साथ ही सरकारी नीतियों पर प्रभाव डालने में आसानी होती है।
कुछ साल पहले भारत-रूस के सहयोग से स्थापित कुडनकुलम परमाणु संयंत्र से नाखुश कुछ विदेशी ताकतों ने इस परियोजना को अटकाने के लिए वर्षों तक मिशनरी संगठनों का इस्तेमाल कर धरने-प्रदर्शन करवाए। तत्कालीन यूपीए सरकार में मंत्री वी नारायणसामी ने यह आरोप लगाया था कि कुछ विदेशी ताकतों ने इस परियोजना को बंद कराने के लिए धरने-प्रदर्शन कराने के लिए तमिलनाडु के एक बिशप को करोड़ों रुपये दिए थे। इस मामले में विदेशी अनुदान प्राप्त कर रहे चार एनजीओ पर कार्रवाई भी की गई थी। यूपीए सरकार ने जब इस मामले में कार्डिनल ओसवाल्ड ग्रेसियस से सहायता ली, तभी यह परियोजना आगे बढ़ पाई।
इसी प्रकार का दूसरा उदाहरण वेदांत द्वारा तूतीकोरिन में लगाए गए स्टरलाइट कॉपर प्लांट का है। इस प्लांट को बंद कराने में भी चर्च का हाथ माना जाता है। 8 लाख टन सालाना तांबे का उत्पादन करने में सक्षम यह प्लांट अगर बंद न होता, तो भारत तांबे के मामले में पूरी तरह आत्मनिर्भर हो गया होता। यह कुछ देशों को पसंद नहीं आ रहा था और इसलिए उन्होंने कथित मिशनरी संगठनों का इस्तेमाल कर पादरियों द्वारा यह दुष्प्रचार कराया कि यह प्लांट पूरे शहर की हर चीज़ को जहरीला बना देगा। इस दुष्प्रचार के बाद हिंसा भड़की और पुलिस फायरिंग में 13 लोगों की मौत हो गई। परिणाम यह हुआ कि यह प्लांट बंद कर दिया गया। यह अभी भी बंद है और भारत को तांबे का आयात करना पड़ रहा है।
धर्म प्रचार और बढ़ता तनाव
धर्म जब तक निजी अनुभव तक सिमित रहे धर्म रहता है लेकिन जब धर्म के नाम के सहारे साम्राज्य खड़ा किया जाने लगे जबदस्ती या बहला फुसलाकर झुण्ड तैयार किये जाने लगे, तब वह धर्म न होकर संस्थागत रूप धारण कर लेता है। और निजी अनुभव की दुनिया से अलग हटकर संस्था का रूप लेते ही धर्म शासन जैसा बनने लगता है।
दरअसल पिछले सात दशक से चर्च ने धर्मान्तरित ईसाइयों के लिए विकास का कोई मॉडल ही नहीं अपनाया, उसने उन्हें अपने साम्राज्यवाद के विस्तार में औज़ार की तरह इस्तेमाल किया है। आज ईसाई युवाओं में सामाजिक एवं राजनीतिक मामलों काे लेकर कोई जागरूकता नहीं है। चर्च लीडर युवाओं के बीच सामाजिक एवं राजनीतिक दर्शन काे नहीं रख पा रहे है, केवल चर्च दर्शन से अवगत करा रहे है। इस कारण ही बड़ी संख्या में ईसाई युवा स्वतंत्र धार्मिक प्रचारक बन रहे हैं।
इस कारण तेजी से छाेटे – छाेटे चर्च भी खड़े हो रहे हैं, ऐसे छाेटे- छाेटे स्वतंत्र चर्चो के पीछे एक पूरा अंतरराष्ट्रीय नेटवर्क काम करता है, दो – तीन साल पहले उत्तर प्रदेश के ग्रामीण इलाकों के अधिकतर चर्च तनाव के चलते बंद हाे गए थे या करवा दिए गए, इन बंद कराए गए चर्चों को दोबारा खुलवाने के लिए अमेरिकी दूतावास आगे आया और उसने बंद पड़े सभी चर्च फिर से खुलवा दिए। स्वतंत्र चर्च कुकुरमुत्ते की तरह उगते जा रहे हैं।
इनमें प्रचार करने के लिए अंतरराष्ट्रीय ईसाई संगठन बड़ी संख्या में विदेशी नागरिकों विशेषकर युवाओं काे भेजते हैं जिसका स्थानीय कलीसिया पर गहरा प्रभाव पड़ता है। विदेश से आने वाले अनेक भारत काे ही अपनी कर्मभूमि मानकर यही रह जाते हैं। ओडिशा के ग्राहम स्टेंस और ग्लैडिस स्टेंस भी ऐसे ही मिशनरी थे (ग्राहम स्टेंस और उसके बच्चों के साथ जो अमानवीय कृत्य हुआ उसकी कोई भी सभ्य समाज इजाज़त नहीं देता ) श्रीमती ग्लैडिस स्टेंस अपने अनुभव में लिखती हैं कि 1981 में ऑपरेशन मोबिलाइजेशन के तहत जब वह पंजाब, बिहार, ओडिशा की गाँव – गाँव की यात्रा कर रही थी, तभी ओडिशा में उनकी मुलाकात ग्राहम स्टेंस से हुई थी, हालांकि ऑस्ट्रेलिया में उन दोनों के घर तीस कि.मी. की दूरी पर ही थे, पर वह वहां कभी नहीं मिले थे।
भारत में जिस तेजी से छाेटे – छाेटे चर्च खड़े किए जा रहे हैं, वह कुछ- कुछ चीनी मॉडल जैसा ही है। चीन में ईसाई धर्म प्रचार करने पर पाबंदी है, वहां बड़े चर्च सरकारी नियंत्रण में काम करते है। ऐसे चर्च धर्म परिवर्तन पर कोई जोर नहीं देते। अपना संख्या बल बढ़ाने के मकसद से मिशनरी सरकार से छिप कर घर कलीसियाएं चलाते है। परंतु भारत में ऐसी कोई बात नहीं हैं, यहाँ मेन-लाइन के लाखाें चर्च है। जिन्हें धर्म प्रचार करने, अंतरराष्ट्रीय मिशनरियों से जुड़े रहने व सहायता पाने और देश में अपने संस्थान चलाने की पूरी स्वतंत्रता है। इसके बावजूद अगर स्वतंत्र चर्च कुकुरमुत्ते की तरह उगते जा रहे हैं, तो इस पर अवश्य ही विचार करने की जरूरत है। क्योंकि यह भारतीय ईसाइयों के हित में भी नहीं हैं।
भारत पूरे विश्व में ‘विधिवता में एकता, सभी धर्मों के प्रति आदर तथा अलग अलग धर्मों के लोगों के बीच परस्पर सहनशीलता, सह अस्तित्व की भावना की दृष्टि से गौरवशाली एवं अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करता है।’ भारत के बहुसंख्यक हिन्दू समुदाय की विचारधारा में असहिष्णुता के लिए कोई स्थान नहीं है यहां प्रत्येक नागरिक एक दूसरे के धार्मिक स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का सम्मान करता है।
ईसाई समुदाय के प्रति घटी दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं की जांच के लिए सरकार द्वारा गठित विभिन्न आयोगों ने इसके पीछे चर्च के साम्राज्यवादी रैवये की तरफ भी इशारा किया है ऐसा ही मत देश का सुप्रीम कोर्ट भी व्यक्त कर चुका है। ईसाई मत के प्रचार के लिए अपनाए जा रहे तरीकों और दूसरों की आस्था में अनावश्यक हस्तक्षेप तनाव बढ़ाने के बड़े कारण है जिसे हम खुद रोक कर सौहार्द का वातावरण तैयार कर सकते है। पिछले कुछ सालों से ‘घर वापसी’ जैसे कार्यक्रमों ने ‘धर्मांतरण’ के मुद्दे को बहस में ला दिया है। हालांकि घर वापसी के विरोधी ये सवाल उठाते रहें है कि हिन्दू धर्म में वापस आये लोगों की जाति क्या होगी।
जवाहर लाल नेहरू जी के प्रधानमंत्रित्व काल में ही इस प्रश्न पर विचार किया था कि यदि अनुसूचित जाति का कोई व्यक्ति धर्मांतरण करके हिंदू धर्म का त्याग कर देता है तथा पुनः हिंदू धर्म स्वीकार कर लेता है तो उसे मूल अनुसूचित जाति का सदस्य माना जाएगा या नहीं। सरकार ने निर्णय लिया कि ऐसे व्यक्ति के पुनःमतातंरण को मूल जाति में परिवर्तन माना जाएगा तथा वह अनुसूचित जातियों के सदस्यों के विशेषाधिकार और सहायता का पात्र होगा, मूलतः जिस अनुसूचित जाति से संबंधित था। जाहिर है कि संविधान और सरकार ने इसे धर्मांतरण नहीं ‘घर वापसी’ की ही संज्ञा दी थी। जो लोग राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) पर इस बात के लिए फब्तियां कसते है कि वह उन्हें हिंदू समाज में कहाँ फिट करेगा उनका हिंदू समाज में क्या दर्जा होगा? इसका समाधान भी नेहरू सरकार का राज्यों को लिखा पत्र आसानी से कर रहा है।
दलित और आदिवासी समाज के अंदर ईसाई मिशनरियों की बहुत गहरी पैठ बन चुकी है।भारतीय संविधान हमें अंतकरण की स्वतंत्रता की गारंटी देता है, संविधान किसी भी धर्म को मानने और उसके प्रचार करने का अधिकार भी देता है। लेकिन धर्म प्रचार और धर्मांतरण के बीच की लक्ष्मण रेखा को समझने की जरूरत है। यदि धर्मांतरण कराने का प्रमुख लक्ष्य लेकर घूमने वाले संसाधनों से लैस संगठित संगठनों को खुली छूट दी जाए तो आप घर वापसी जैसे अभियानों को कैसे रोक सकते है। एक दशक पहले ऐसे ही धर्मांतरण को लेकर ओडिशा के कंधमाल जिले में भयानक दंगे हुए थे जिसमें दर्जनों लोगों को अपनी जान गवानी पड़ी और सैकड़ों करोड़ रुपए की हानि उठानी पड़ी। इसके बावजूद ओडिशा में धर्मांतरण लगातार जारी है। कंधमाल को लेकर हाल ही में चर्च समर्थकों द्वारा प्रकाशित पुस्तक अर्ली क्रिश्चियन आफ ट्वेंटी फर्स्ट सेंचुरी: स्टोरी ऑफ इनक्रेडिबल क्रिश्चियन फ्रॉम कंधमाल जंगल (Early Christians of 21st Century: Stories of Incredible Christian Witness from Kandhamal Jungle) में दावा किया गया है कि हिंसा के बाद हिंदू समुदाय के लोग किस तरह चर्च की शरण में आ रहे है।
आत्ममंथन करने की जरूरत
आज देश के अंदर ईसाई समाज के प्रति संदेह का वातावरण बन गया है, ऐसा माहौल किसी भी समाज के विकास काे राेक देता है। हमारी पहचान धर्मांतरण कराने वाले के रूप में होने लगी है। हिंदू संगठन ही नहीं, सिख और कहीं-कहीं मुस्लिम समाज भी ईसाई संगठनों पर उंगली उठा रहा है। भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष देश में जहां शताब्दियों से ईसाई समुदाय आगे बढ़ रहा है, वहा ऐसा माहौल हमें आत्ममंथन की ओर ले जाता है। समय की मांग है कि हम अपनी आस्था के साथ -साथ दूसरे मत-पंथ काे मानने वालों की आस्था का सम्मान करें।
यही समय है जब ईसाई समुदाय को स्वयं का सामाजिक आकलन करना चाहिए, ताकि पता चले कि यह समुदाय अपनी मुक्ति से वंचित क्यों हैं। ईसाइयों को अब इस बात पर आत्ममंथन करने की जरूरत है कि उनके रिश्ते दूसरे मत-पंथों के अनुयायियों से सहज कैसे बने रह सकते हैं, और भारत में चर्च अपने अनुयायियों के जीवन स्तर को कैसे सुधार सकता है।
(लेखक पुअर क्रिश्चियन लिबरेशन मूवमेंट (पीसीएलएम) के अध्यक्ष हैं और यह उनके निजी विचार हैं)