लेखक~आलोक पुराणिक
♂÷कमाल होते हैं साहब, वर्ल्ड हैप्पीनेस इंडेक्स में भारत 125 नंबर है और पाकिस्तान 108 नंबर पर है।
यानी पाकिस्तान वाले भारत के लोगों के मुकाबले ज्यादा खुश लोग हैं। जंग लड़ रहे मुल्क यूक्रेन और रुस भी भारत के मुकाबले ज्यादा खुश देश हैं। खैर लड़ने वाले खुश हो जायें, यह बात तो समझ में आती है। कभी युद्धरत पति और पत्नी को देख लें, पता चल जायेगा। पत्नी कितनी खुश होती है, जब वह अपने पति के परिवार पर गहरा से गहरा ताना मार ले, या पति कितनी खुशी महसूस करता है जब वह अपने ससुराल पक्ष पर कोई चोटकर दे। युद्ध में उत्तेजना और खुशी औसत भारतीय पति और पत्नी भी हासिल करते हैं।
खुशी का मामला पेचीदा है, कौन कब खुश हो जाये, पता ना चलता।
आटे के बिना पाकिस्तान वाले खुश हैं, फारेन एक्सचेंज के बिना भी पाकिस्तान वाले खुश हैं और यहां गेहूं का एक्सपोर्ट करनेवाले और चकाचक फारेन एक्सचेंज रिजर्व वाले देश भारत के लोग कम खुश हैं या दुखी हैं। सुख और दुख का ताल्लुक आटे या फारेन रिजर्व से ना होता।
मस्ती में बंदा बिना किसी की रकम के भी रह सकता है।
एक वक्त में जब दिन में बहुत बार बिजली जाया करती थी, तो बिजली का आना हर बार बहुत खुश करता था, बल्कि हमें नहीं नहीं, पूरे मुहल्ले में ही खुशी की लहर दौड़ती थी। बिजली के आने पर मुहल्ले में ऐसी हर्ष-ध्वनि पैदा हुआ करती थी, जैसे स्टेडियम में विराट कोहली के चौके पर हर्ष-ध्वनि पैदा होती है।
बिजली की हालत बेहतर हुई, तो खुश रहने की एक वजह कम हुई।
अब बिजली लगातार आती है, पर हम उदास बैठे रहते हैं।
पाकिस्तान में खुशी इस टाइप की ही लगती है। आटा विहीन मुहल्ले में कोई ट्रक आ जाता है, सस्ता आटा लेकर। पब्लिक लाइन में लगकर आटा हासिल करती है, खुशी की लहर दौड़ जाती है और पाकिस्तान भारत के मुकाबले ज्यादा खुश देश बन जाता है। हालांकि इस तरह की खुशी भारत में साठ के दशक में आती थी,जब भारत गेहूं के मामले में मोहताज था और विदेशी गेहूं पर निर्भर होता था। गेहूं का आना खुशी देता था। बाद में गेहूं एक्सपोर्ट करने लगा भारत, पर भारत की खुशी चली गयी।
खुशियां बदलती रहती हैं। एक वक्त में मारुति की आल्टो कार खरीद कर खुश होते थे, अब आल्टो खरीदकर शर्माते हैं और मारे शर्म के रिश्तेदारों को भी ना बताते कि आल्टो ली है। कहीं सुनना ना पड़ जाये कि इससे बेहतर था कि कुछ पैसे मिलाकर बुलेट की नयी बाइक ले लेते, स्टेटस भोत ऊंचा हो जाता। जो कल खुशी का विषय था, वह आज शर्म का मसला हो सकता है।
पुराने वक्त में दिल्ली में डीटीसी की बसों में जेबकट बहुत चलते थे, ऐसा नहीं है कि अब नहीं चलते। पर वो वाले जेबकट नहीं हैं अब, उनमें से कुछ विधायक, पार्षद होकर मंत्री तक हो गये हैं। तो साहब उन दिनों में बस में चलनेवालों में से दो चार की जेब रोज कटती थी। बाकी के सौ बंदे खुश होते थे, चलो हमारी तो ना कटी। इस तरह की खुशी भी कई बार मिली है। डीटीसी की बस में चलना छूटा, तो यह खुशी जाती रही। जिस तरह से मेरी खुशी कम हुई है, उसी तरह से पूरे भारत की खुशी कम हो गयी है।
खुश होना है तो, आटाविहीन पाकिस्तान की तरफ कूच करना पड़ेगा जी।

÷लेखक प्रख्यात स्तम्भकार,व्यंगकार व अर्थनीति विशेषज्ञ हैं÷