लेखक-अरविंद जयतिलक
♂÷पापुआ न्यू गिनी की राजधानी पोर्ट मोरेस्बी में तीसरा भारत-प्रशांत द्वीप सहयोग शिखर सम्मेलन (एफआईपीआईसी) कई मायने में महत्वपूर्ण रहा। यह सम्मेलन न सिर्फ सदस्य देशों के संबंधों को नया आयाम दिया है बल्कि बदलते वैश्विक परिदृश्य में द्वीपीय देशों की मजबूत भूमिका को भी सुनिश्चित किया है। शिखर सम्मेलन की सह-अध्यक्षता करते हुए भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 14 द्वीपीय देशों के नेताओं को भरोसा दिया है कि आप भारत को अपने विकास के विश्वसनीय भागीदार के रुप में देख सकते हैं। क्योंकि भारत आपकी प्राथमिकताओं का सम्मान करता है और सहयोग करने का नजरिया मानवीय मूल्यों पर आधारित है। गौर करें तो प्रधानमंत्री मोदी का उद्बोधन सच्चाई भरा है। जिस समय संपूर्ण विश्व कोरोना की गिरफ्त में था उस समय भारत कठिन परिस्थितियों से गुजरते हुए भी जरुरतमंद देशों तक कोरोना वैक्सीन को पहुंचाने का मानवीय धर्म निभाया। यहीं नहीं दवाओं के साथ-साथ खाद्य सामग्री की उपलब्धता सुनिश्चित कर दुनिया को संदेश दिया कि भारत की सोच ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की है। उल्लेखनीय है कि उस समय दुनिया के तमाम विकसित देश जिन्हें मददगार समझा जाता था उन्होंने इस विषम परिस्थिति में अपनी भूमिका का सार्थक निर्वहन नहीं किया। ऐसे में अगर प्रधानमंत्री मोदी भारत-प्रशांत द्वीप शिखर सम्मेलन में चीन समेत विकसित देशों की भूमिका पर सवाल उठाते है तो इसमें कुछ भी गलत नहीं है। उनका यह कहना सर्वथा उचित है कि सच्चा मित्र वहीं होता है, जो कठिन घड़ी में काम आए। भारत इस कसौटी पर सदैव खरा रहा है। प्रधानमंत्री मोदी ने फिजी में एक सुपर-स्पेशियलिटी कार्डियोलाजी अस्पताल के साथ सभी 14 द्वीपीय देशों में डायलिसिस इकाइयों की स्थापना, जन औषधि केंद्र खोलने, किफायती दर पर दवाएं और स्पेस में भारत द्वारा नयी विकास पहलों की श्रृंखला का एलान किया। चूंकि प्रशांत द्वीपीय देशों में पीने का शुद्ध पानी एक गंभीर समस्या है इसलिए प्रधानमंत्री मोदी ने सभी द्वीपीय देशों को विलवणीकरण इकाइयां मुहाने कराने का एलान कर सदस्य देशों का दिल जीत लिया। पापुआ न्यू गिनी के प्रधानमंत्री जेम्स मारापे ने प्रधानमंत्री मोदा का आह्नान करते हुए कहा कि आप छोटे देशों की आवाज बने। इसलिए कि ये छोटे द्वीप देश ग्लोबल पावर प्ले के शिकार हैं। लेकिन आप ग्लोबल साउथ के लीडर हैं। हम ग्लोबल फोरम पर भारतीय नेतृत्व के साथ खड़े रहेंगे। भारत का समर्थन करेंगे। गौर करें तो उनका इशाना चीन को लेकर था जो इस क्षेत्र के द्वीपीय देशों में अपना दबदबा बढ़ाना चाहता है। यह तथ्य है कि प्रशांत के सभी 14 द्वीपीय देश फिजी, किरिबाती, कुक आइलैंड्स, मार्शल आइलैंड्स, माइक्रोनेशिया, नाऊरु, नीयू, पलाऊ, पापुआ न्यू गिनी, समोआ, सोलोमन आइलैंड्स, टोंगा, तुवालु और वानुवातु चीन की विस्तारवादी व आक्रांता नीति से भयाक्रांत हैं। इसे ध्यान में रखते हुए ही अमेरिका ने पापुआ न्यू गिनी के साथ नए सुरक्षा समझौते को आयाम दिया है। इससे अब उसकी सेना को प्रशांत महासागरीय देश के हवाई अड्डों और बंदरगाहों तक पहुंच मिल सकेगी। चूंकि पापुआ न्यू गिनी आस्टेªलिया के उत्तर में स्थित है लिहाजा इसका राजनीतिक और सामरिक महत्व स्वतः बढ़ जाता है। याद होगा गत वर्ष इसी क्षेत्र में अमेरिका समेत 13 देशों ने ‘हिंद-प्रशांत आर्थिक समूह’ (आईपीईएफ) व्यापारिक समझौते को आकार देकर चीन की बढ़ती दादागीरी और धौंसबाजी पर निर्णायक लगाम लगाने की कवायद की। इस आर्थिक ढांचे से जुड़ने वाले देशों में अमेरिका के अलावा आस्टेªलिया, ब्रुनेई, भारत, इंडोनेशिया, जापान, दक्षिण कोरिया, मलेशिया, न्यूजीलैंड, फिलिपीन, सिंगापुर, थाइलैंड और वियतनाम शामिल हैं। किसी से छिपा नहीं है कि दुनिया भर के प्राकृतिक संसाधनों पर गिद्ध दृष्टि लगा बैठे चीन इस क्षेत्र में चोरी-छिपे मछलियों का बड़े पैमाने पर शिकार कर रहा है। इस क्षेत्र में नब्बे फीसदी से अधिक मछलियों के शिकार के लिए एकमात्र बीजिंग जिम्मेदार है। उसके जहाज जबरन विशेष आर्थिक जोन की सीमा में प्रवेश कर जाते हैं और पर्यावरण के साथ-साथ बड़े पैमाने पर आर्थिक नुकसान को अंजाम देते हैं। चीन की इस हरकत से सभी देश परेशान है। दूसरी ओर वह इस इलाके में सुरक्षा बेड़ा खड़ा कर अन्य देशों की संप्रभुता और सुरक्षा को चुनौती दे रहा है। ऐसे में उस पर नकेल कसना बेहद जरुरी हो गया है। अच्छी बात है कि इस क्षेत्र के सदस्य देशों के बीच सहमति बनती जा रही है। सभी देश सैटेलाइट सिस्टम का इस्तेमाल कर चीन की हरकतों पर लगाम कसने को तैयार हैं। द्वीपीय देशों का भारत के साथ आने से चीन की बेचैनी और छटपटाहट और बढ़ेगी। लेकिन जिस तरह से हिंद-प्रशांत क्षेत्र के देश चीन के खिलाफ मोर्चा बना रहे हैं उससे स्पष्ट है कि इस क्षेत्र में अब चीन की दादागीरी नहीं चलने वाली। चीन के खिलाफ यह पहल इसलिए भी आवश्यक है कि हिंद-प्रशांत क्षेत्र वैश्विक अर्थव्यवस्था की मुख्य धुरी है। मौजूदा समय में यह क्षेत्र भू-राजनीतिक व सामरिक रुप से वैश्विक शक्तियों के मध्य रण का क्षेत्र बना हुआ है। इस क्षेत्र की जनसंख्या विश्व की जनसंख्या के तकरीबन एक तिहाई से ज्यादा है। विश्व के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का लगभग 60 फीसदी और विश्व व्यापार का 75 फीसदी कारोबार इसी क्षेत्र से होता है। देखें तो इस क्षेत्र में अवस्थित बंदरगाह विश्व के व्यस्ततम बंदरगाहों में शुमार हैं। यह क्षेत्र इसलिए भी सर्वाधिक महत्वपूर्ण है कि यहां उपभोक्ताओं को लाभ पहुंचाने वाले क्षेत्रीय व्यापार और निवेश की अपार संभावनाएं हैं। किसी से छिपा नहीं है कि यह क्षेत्र उर्जा व्यापार के लिहाज से भी इस क्षेत्र के देशों के लिए अति संवेदनशील है। ऐसे में इस क्षेत्र को आर्थिक व सामरिक दृष्टि से सुरक्षित रखने के लिए ही क्वाड के अलावा ‘हिंद-प्रशांत आर्थिक समूह’ और ‘भारत-प्रशांत द्वीप सहयोग’ जैसे नए-नए गठजोड़ आकार ले रहे हैं। तथ्य यह भी कि हिंद-प्रशांत क्षेत्र को ‘मुक्त एवं स्वतंत्र’ क्षेत्र बनाने के लिए अमेरिका भारत-जापान संबंधों के महत्व को सार्वजनिक रुप से स्वीकार चुका है तथा साथ ही अमेरिका के लिए हिंद-प्रशांत क्षेत्र की नीति सर्वोच्च प्राथमिकता में है। दो राय नहीं कि विगत दशकों में अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के मंच पर चीन की विशिष्ट पहचान बनी है और वह आर्थिक सुधारों के जरिए विश्व की एक बड़ी आर्थिक महाशक्ति बन चुका है। लेकिन अब वह जिस आक्रामक तरीके से हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अपनी दखलदांजी बढ़ा रहा है उससे अमेरिका, भारत, आस्टेªलिया, जापान के अलावा इस क्षेत्र से जुड़े अन्य देशों का चिंतित होना लाजिमी है। पाश्चात्य अर्थशास्त्रियों और रक्षा विषेशज्ञों की मानें तो चीन भूमंडलीकृत अर्थव्यवस्था के समानान्तर ध्रुव के एक नए धुमकेतु के रुप में उभरकर अपने पड़ोसियों को परेशान करने की योजना पर काम कर रहा है। उसके निशाने पर मुख्य रुप से भारत, फ्रांस, आस्टेªलिया और जापान है। चीन इन देशों की मौजूदा गोलबंदी को समझ रहा है इसीलिए वह इन देशों की भू-संप्रभुता व सामुद्रिक सीमा का लगातार अतिक्रमण कर रहा है। दरअसल उसकी मंशा हिंद-प्रशांत क्षेत्र में भारत, आस्टेªलिया, फ्रांस और जापान की भूमिका को सीमित कर अपने प्रभाव का विस्तार करना है। उसे भय है कि अगर इस क्षेत्र में इन देशों की निकटता बढ़ी तो परिस्थितियां उसके प्रतिकूल हो सकती है। इसलिए और भी कि जापान ‘एशिया-प्रशांत आर्थिक सहयोग’ (एपीईसी) संगठन में भारत की सदस्यता का लगातार वकालत कर रहा है। चीन अच्छी तरह जानता है कि अगर भारत इस संगठन का सदस्य बनता है तो उसकी मनमानी और विस्तारवादी नीति पर लगाम लग सकता है। चीन इस तथ्य से भी सुपरिचित है कि भारत एशिया-प्रशांत क्षेत्र में अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए आस्टेªलिया और न्यूजीलैंड से भी द्विपक्षीय सहयोग के साथ-साथ बहुपक्षीय मंचों जैसे आसियान, हिंद महासागर रिम, विश्व व्यापार संगठन इत्यादि मंचों पर सुचारु रुप से सहयोग विकसित कर रहा है। यह सच्चाई भी है कि हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका, भारत, फ्रांस, आस्टेªलिया और जापान के बीच गोलबंदी तेज हुई है और चीन की मुश्किलें बढ़ी है। अब जब भारत-प्रशांत द्वीप के 14 देश भारत के साथ कंधा जोड़ने और वैश्विक मंचों पर साथ देने का हुंकार भर रहे हैं ऐेसे में चीन का भड़कना लाजिमी है।
÷लेखक राजनीतिक व सामाजिक विश्लेषक हैं÷