लेखक -आर एल फ्रांसिस
जंगे–आजादी में ईसाइयों की भूमिका पर कोई खास शाेध नहीं हुआ है। चर्च के अनगनित रिसर्च संसथानाें के बावजूद इस मामले पर कुछ खास नहीं किया गया। ईसाइयों के मामले में इतिहास में कोई खास खुलासा नहीं है। माना की इन भारतीय ईसाइयों तथा ब्रिटिश शासकों का मजहब एक ही था। मगर राष्ट्र ? वह तो हम सबका था।
यहूदी समुदाय के कुछ इतिहासकारों का मानना है कि उनके पूर्वज भारत में 1000 ई. पू. से 70 ई. तक भारत के पश्चिमी तट पर आए। यहूदी नाविकों के भारत आने की चर्चा बाइबल में मिलती है। जब धर्म प्रचारक ईसा मसीह के प्रचार के लिए भारत आए तो उनके दिमाग में यह बात थी कि भारत में अपने लोग रहते हैं। पर वह दक्षिण से आगे नहीं बढ़ पाए।
जब ईस्ट इंडिया कंपनी भारत आई तो उसके साथ अनेक चैपलिन आए उन्होंने अंग्रेजी मसीहियों की प्रार्थना के लिए उनके प्रभाव वाले इलाके में चर्च / गिरजाघराें का बड़े स्तर पर निर्माण किया। जैसे -जैसे ईस्ट इंडिया कंपनी ने उत्तर भारत में अपनी पैठ बनानी शुरू की, ईसाई धर्म प्रचारकों को एक विशाल क्षेत्र दिखाई देने लगा। 18 शताब्दी के शुरुआत में ही अनेक प्रोटेस्टेंट ईसाई मिशनरी बंगाल आने लगे एक तरह से बंगाल उनका मुख्यालय बन गया था, अमेरिका और लंदन से आने वाले ज्यादातर धर्म प्रचारकों को उत्तर भारत में ईसाइयत के विस्तार का काम दिया गया। हालांकि इस क्षेत्र में खासकर आगरा, पटना, लाहौर और वाराणसी में पहले से कुछ ईसाई थे। सन 1562 में आगरा में एक गिरजाघर था। इस क्षेत्र में जेसुइट पादरियों ने काफी काम किया था। पर इस क्षेत्र में प्रोटेस्टेंट ईसाई मिशनरियों के कारण ही ईसाइयत आगे बढ़ पाई।
उन्होंने उत्तर प्रदेश, पंजाब, दिल्ली में अनेक चर्च, स्कूल, कॉलेज, तंबू बनाने के यूनिट और ईसाइयत अपनाने वाले लाेगाें के लिए कलाेनियाॅ बनाने का काम किया। मिशनरी स्कूलों में हालांकि हिंदू – मुसलमान भी पढ़ते तो थे पर ज्यादातर उनके धर्म – ईसाइयत को पसंद नहीं करते थे। ईसाइयत अपनाने वालो के लिए अलग से कलाेनिया या मिशन कंपाउंड बनाने की वजह से वह समाज से अलग- थलग हो गए थे। 1857 में भारत की स्वतंत्रता के लिए हुए पहली लड़ाई में उत्तर भारत के मसीहियों को जान-माल का भारी नुकसान उठाना पड़ा। यह संभव है कि इसी कारण से ईसाइयों ने स्वयं को इस आंदोलन से दूर कर लिया हो।
दिल्ली, आगरा, मैनपुरी, फर्रुखाबाद, फतेहगढ़, बरेली, लखनऊ, कानपुर, इलाहाबाद, गोरखपुर बिहार तथा मध्य देश के अनेक नगरों और गांवों में वह मारे गए उनके चर्च और उनकी कलाेनिया / मिशन कंपाउंड या तो जला दी गई या लूट ली गई। शायद इसी वजह से उतर भारत के मसीही लोग राजनीति या स्वतंत्रता संग्राम से बाहर ही रहे। हालांकि पंजाब और बंगाल के ईसाइयों ने राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उस समय के पंजाब वर्तमान में पाकिस्तान के बहुत बड़े क्षेत्र में 19वीं शताब्दी तक ईसाई मिशनरियों कैथोलिक, प्रोटेस्टेंट ने अनेक चर्च, स्कूल, कॉलेज एवं अपने संस्थान खड़े कर लिए थे। बड़ी संख्या उनके अनुयायियों की थी।
भारत विभाजन या पाकिस्तान मूवमेंट के दौरान स्थानीय ईसाइयों ने पाकिस्तान मूवमेंट का खुलकर समर्थन किया, इसका एक कारण यह भी हाे सकता है कि मिशनरी अपने संस्थानों के बचाव के लिए स्थानीय मसीहियों को वहा ही रखना चाहते हाे। सर सिरिल रैडक्लिफ की अध्यक्षता में सीमा आयोग के निर्माण से पहले ही ईसाइयों ने पाकिस्तान के पक्ष में मतदान किया। 1945 -46 के चुनावों के दौरान ईसाई भी “लॉन्ग लिव पाकिस्तान” के नारे लगा रहे थे। इतिहास गवाह है कि जब संयुक्त पंजाब विधानसभा के द्वार पर तारा सिंह ने हवा में कृपाण लहराकर पाकिस्तान के समर्थकों को ललकारा और कहा कि अगर कोई पाकिस्तान की मांग करेगा, तो उसे मार दिया जाएगा। तब एस.पी. सिंघा पाकिस्तान के समर्थन में आगे आए, जो उस समय ईसाइयों के बड़े नेता थे।
जोशुआ फजलदीन एवं अन्य ईसाई बुद्धिजीवियों ने पाकिस्तान आंदोलन और जिन्ना की दृष्टि को बढ़ावा देने के लिए समाचार पत्रों में लेख लिखे थे। अपने लेखों में एक अलग मातृभूमि के उनके भावुक समर्थन ने चौधरी रहमत अली का दिल जीत लिया जब कई मुस्लिम नेता सोच रहे थे कि यह एक अव्यावहारिक धारणा है। जब यह वोट से तय किया जाना था कि क्या पश्चिमी पंजाब को पाकिस्तान में शामिल किया जाए। जिन्ना के लिए भी यह बहुत तनावपूर्ण स्थिति थी क्योंकि मुस्लिम लीग और हिंदुस्तान के समर्थक 88 – 88 मतों में बराबर थे। उस समय एस.पी. सिंघा, जिनके पास विधानसभा के अध्यक्ष के रूप में निर्णायक वोट था, खेल को बदलने के लिए खड़े हुए और पाकिस्तान के पक्ष में अपना वोट डाला। सभा के अन्य ईसाई सदस्य, फज़ल इलाही और सी.ई. गिब्बन,भी उनके साथ मिलकर वोट दिया। पाकिस्तान तीन मतों से जीता और पश्चिमी पंजाब पाकिस्तान में शामिल हो गया।
वहीं दूसरी ओर भारतीय स्वाधीनता संघर्ष में प्रमुख आंदोलनकारी रहीं राजकुमारी बीबीजी अमृत कौर। वे ईसाई थी कपूरथला रियासत की थी। उनके पिता राजा हरनाम सिंह अहलूवालिया ने ईसाई धर्म अपना लिया था। अमृत जी के अग्रज राजा श्री महाराज सिंह थे। वे बंबई प्रदेश के प्रथम भारतीय राज्यपाल रहे, कश्मीर रियासत के प्रधान मंत्री थे और जोधपुर के दीवान थे। राजकुमारी अमृत कौर नियमित चर्च जाती थी। नेहरू काबीना मे प्रथम स्वास्थ्य मंत्री (16 अगस्त 1947 से 1957 तक) रहीं। वे महात्मा गांधी की 16 वर्षों तक निजी सचिव रहीं। संविधान सभा की सदस्य भी थीं।
डा. एनी बेसेंट ब्रिटिश सोशलिस्ट और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की संस्थापकों मे एक रहीं। डॉ बेसेंट भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्ष (1917) थी। वैदिक दार्शनिक जिड्डु कृष्णमूर्ति उनके दत्तक पुत्र थे। इसी भांति ईसाई पादरी चार्ल्स एंड्रयूस ने बापू को दक्षिण अफ्रीका से (1915) मे भारत बुलवाया था ताकि स्वाधीनता संघर्ष तेज हो सके। कैम्ब्रिज में शिक्षित यह स्वाधीनता सेनानी दिल्ली के संत स्टीफंस कॉलेज से जुड़े रहे। रवीन्द्रनाथ टैगोर के सहयोगी थे।
ईसाई स्वाधीनता सेनानियों में खास उदाहरण अल्वा दंपति का है। मारगेट अल्वा के वे सास और ससुर थे। पत्रकार और कोंग्रेसी सांसद जोकिम अल्वा ईसाई दल के संस्थापक थे। उडुपी (बेंगलुरु, कर्नाटक) के जोकिम अल्वा मुंबई के शैरीफ भी थे। गुजराती ईसाई वायलट अल्वा से शादी की। वायलट अल्वा राज्यसभा की उप सभापति थीं। दक्षिण भारत के और भी कई ईसाइयों ने स्वाधीनता संघर्ष में अपना योगदान दिया। भले ही ईसाइयों का स्वतंत्रता संग्राम में पहलू उभरकर सामने न आ पाया हो पर दशकों से देश की स्वतंत्रता से बहुत पहले से शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में चर्च के योगदान को नकारा नहीं जा सकता।
हालांकि शुरू से ही मिशनरियों का प्रभाव स्थानीय मसीहियों के जीवन पर रहा है जो समय के साथ – साथ और बढ़ता जा रहा है, वर्तमान में उभरते राष्ट्रवादी आंदोलन से हमें तालमेल बनाना होगा, ईसाई समाज को राष्ट्र की मुख्यधारा में खड़े होना हाेगा।

(लेखक पुवर कृश्चियन लिबरेशन सोसाइटी के प्रेसिडेंट हैं और यह उनके निजी विचार हैं)