लेखक- ओम लवानिया
सुकुमार ने पुष्पा लिखकर डेसिंग हीरो महेश बाबू को नैरेट किया, उन्हें तो कहानी पसंद आई। किंतु वे पुष्पा से मैलापन हटवाना चाहते थे। अर्थात उन्हें पुष्पा गांव की जगह शहर में चाहिए था। लेकिन सुकुमार अपनी स्क्रिप्ट में कोई चेंज करने के मूड में नहीं थे।
क्रिएटिव डिफरेंसेस के साथ सुकुमार-महेश बाबू की बातचीत पुष्पा के संदर्भ में बंद हो गई। और उनके माइंड में पहली व आख़िरी चॉइस में बनी कौंधे, जिनके साथ आर्या के पागलपन की डबल डोज पहले ही दर्शकों को दे चुके थे।
मने सुकुमार और बनी, डेडली कॉम्बिनेशन के साथ पुष्पा निकला और जिस अंदाज़ में सुकुमार को चाहिए था, बनी ने स्वयं को अपने निर्देशक के सामने सरेंडर कर दिया।
बनी अपनी इमेज को इतर रखकर पुष्पा को देखे थे और महेश बाबू ने पुष्पा को साइड करके अपनी छवि में फिट करने की कोशिश की। दोनों के अभिनय एटीट्यूड में बहुत बड़ा अंतर था। बनी ने मास मसाला फ़िल्म के लिए अपनी इमेज को खूँटी पर टाँग दिया और पुष्पा में उतर गए और आज पुष्पा ने बनी को पैन भारत में सबसे बड़ा अभिनेता बना दिया है। विथ अभिनय स्किल्स, वरना मसाला फ़िल्म के लिए कोई कलाकार इतना समय नहीं देता है। न इतना गहराई में जाता है।
ऐसा नहीं है कि अकेले अल्लू अर्जुन ने ऐसे किरदार को किया है। बल्कि नेचुरल स्टार नानी, राम चरण, और ऋषभ शेट्टी भी अपने किरदार से मिलने डेप्ट तक जा पहुँचे है, किरदार को देखा है, न छवि, न इमेज देखी। दर्शकों से बढ़िया जुड़े। जिन अभिनेताओं को अपने निर्देशक पर भरोसा है फिर उन्हें कुछ सोचने की जरूरत नहीं है।
बीते दिन बॉलीवुड ट्रेड एनालिस्ट तरण आदर्श को सुना तो कहे कि अगर सुकुमार, पुष्पा के साथ बॉलीवुड हीरोज के पास आए होते तो वे कहते, जिस दरवाजे से आए हो, तुरंत लौट जाओ।
बॉलीवुड वाले तो गांव छोड़िये, उनकी कहानी न्यूयॉर्क या लंदन से शुरू होती है। वेस्टर्न कल्चर में कहानी सोचते है और बनाते है। पुष्पा को बनाते तो महेश बाबू की सोच को फॉलो करते हुए, फ़िल्म में इतने कट्स लगा देते कि इसका मूल मार दिया जाता। आख़िरी में कूड़ा बचता। फिर उस कूड़े को अपने पैसों से सेटलमेंट देते। क्योंकि उनके एटीट्यूड में है हम ऐसी फ़िल्म और किरदार करेंगे। हम डैसिंग और चार्मिंग है और मेट्रो सिटीज को एड्रेस करेंगे। इसमें वेस्टर्न कल्चर लिव इन रिलेशनशिप, लव स्टोरीज को दिखायेंगे। ये क्या गंदा सा किरदार है। खैर
मास से कंटेंट जुड़ता है तब सभी खुश दिखाई देते है क्योंकि बॉक्स ऑफिस से बारिश होती है। पुष्पा ने एक्जीबिटर्स और डिस्ट्रीब्यूटर्स के चेहरे पर रौनक ला दी है। रवीना टंडन के पति अनिल थड़ानी ने बनी को धन्यवाद दिया है। फ़िल्म रिलीज़ हुई थी तब कुछ बुद्धिजीवी इंटरस्टेलर के लिए छाती कूट रहे थे।
पुष्पा जिन डिस्ट्रीब्यूटर्स और एग्जीब्यूटर्स को प्रॉफिट दे रही हो, वे रिरिलीज़ फ़िल्म में शो काहे डालेंगे, इससे बढ़िया पुष्पा के शो बढ़ायेंगे। खैर
साउथ के हीरोज मास से इतना डीप काहे कनेक्ट होते है, क्योंकि वे उनकी कहानी से रिलेट करते है। बनी, पुष्पा में मजदूर बने है तो उनके फैन में मजदूर होंगे। वे बनी में स्वयं को देखेंगे। मास में निचले तबके के लोग होते है न कि हाथ फैलाए एनआरआई, गांव-देहात से किरदार और उनकी कहानियाँ निकलती है तो मास को जोड़ती है। दरअसल, हर भारतीय दर्शक के भीतर ये बसे हुए है। जब हीरो पर्दे पर उनकी यादें ताजा करता है तो उनमें ख़ुद को देखते है।
बॉलीवुड में जितने भी बड़े हीरो है वे सब महेश बाबू के व्यक्तित्व वाले है। कोई मजदूर छोड़िये, ट्रक ड्राइवर भी नहीं बनेंगे। अगर ऐसा होगा तो उसमें बदलाव करवायेंगे।
स्पाई एजेंट ही देख लें।
कतई बॉडी बिल्डर बनते है, फाइट सीक्वेंस में शर्ट फटती और सिक्स पैक्स एब्स दिखते है। जिन पर फ़िल्म के किरदार से अधिक मेहनत की है। साउथ के हीरोइज्म में सिक्स पैक्स की आवश्यकता नहीं पड़ती है।
बनी ने मसाला कंटेंट में पुष्पा से लकीर खींच दी है। अभिनय हो या आंकड़े, अब इन्हें तोड़ने और नंबर वन की रेस में दौड़ेंगे। थक जाएँगे, फिर कुछ जुगाड़ बैठायेंगे। हम ही अव्वल स्थान पर है।
जब फिल्में चलती है तब उनके आँकड़े नहीं, डिस्ट्रीब्यूटर्स और एग्जिबिटर्स के चेहरे बोलते है।
बॉलीवुड हीरोज को किरदार के लिए अपने फेक औरा को छोड़ना पड़ेगा, वरना कूड़ा कंटेंट का हिस्सा बनते रहेंगे। इनके कई ऐसे प्रोजेक्ट है जो पाइप लाइन में आए और अभी होल्ड में है। निर्माता ज्यादा बदलाव के बीच फ़िल्म को साइड कर दे रहे है। कूड़ा से नुक़सान ही बैठेगा।
(लेखक फिल्म समीक्षक हैं)