लेखक- सुभाष चन्द्र
√ अब अधिकतर जजों को होगी चिंता,फिर लोकपाल की जांच रोकने का क्या था औचित्य
दिल्ली हाई कोर्ट के जस्टिस यशवंत वर्मा के घर में आग लग गई जब वे घर में नहीं थे, उनके परिवार के सदस्यों ने फायर ब्रिगेड और पुलिस को बुलाया। आग बुझाने के बाद दमकल कर्मियों ने बंगले के कमरों के अंदर भारी मात्रा में नकदी रखी हुई पाई लेकिन यह कहीं रिपोर्ट नहीं है कि कितना पैसा मिला ,बस इतना बताया गया है कि रिकॉर्ड बुक में बेहिसाब कैश बरामद होने का आधिकारिक रिकॉर्ड दर्ज किया गया है।
मजे की बात है कि जस्टिस वर्मा के घर में 14 मार्च को रात 11.30 बजे आग लगी लेकिन इस खबर को एक हफ्ते बाद उजागर किया गया है ऐसा हो नहीं सकता कि मी लाॅर्ड चीफ जस्टिस संजीव खन्ना साहब को उसी दिन यह सूचना न मिली हो?
सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस बीआर गवई, जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस अभय ओका की पीठ ने 20 फरवरी, 2025 को लोकपाल द्वारा हाई कोर्ट के जज के खिलाफ शिकायत सुनने पर नाराज़गी जताते हुए कहा गया था कि यह बहुत ही परेशान करने वाला है और न्यापालिका की स्वतंत्रता पर प्रश्नचिन्ह लगाने वाला है, और लोकपाल के आदेश पर तत्काल रोक लगा दी थी।
जबकि लोकपाल ने मामला चीफ जस्टिस को मार्गदर्शन के लिए भेजा था ,इसमें सुप्रीम कोर्ट बार असोशिएशन के अध्यक्ष व मनमोहन सिंह सरकार में केंद्रीय कानून मंत्री रहे कपिल सिब्बल भी लोकपाल के खिलाफ खड़े हुए और उसके विरोध में बयानबाजी करने लगे,समझने वाले समझ रहे थे कि वह किनके लिए बैटिंग कर रहे थे।
अब हाई कोर्ट के जज के घर में नोटों का अंबार मिलना क्या परेशान करने वाला नहीं है, यह सीधा साधा बेहद ग़ंभीर भ्रष्टाचार का मामला है जिसके लिए चीफ जस्टिस को तुरंत CBI और ED को जांच के आदेश दे देने चाहिए थे लेकिन चीफ जस्टिस संजीव खन्ना ने आनन फानन में कॉलेजियम की बैठक बुला कर जस्टिस यशवंत वर्मा को वापस इलाहाबाद हाई कोर्ट में ट्रांसफर कर दिया जहां से वो 2021 में दिल्ली हाईकोर्ट में आए थे।
गुस्ताखी माफ़ हो लेकिन न्यायपालिका ने अपने ऐसे अधिकतर जजों को रेनकोट पहनाया हुआ है, किसी भी हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट के जज के खिलाफ भ्रष्टाचार, अनियमितता या कदाचार के आरोपों की जांच के लिए 1999 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा इन-हाउस प्रक्रिया तैयार की गई थी।
इसमें चीफ जस्टिस ऑफ़ इंडिया पहले संबंधित जज से स्पष्टीकरण मांगते हैं और यदि जवाब संतोषजनक नहीं होता तो सुप्रीम कोर्ट के एक जज और दो हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस की समिति जांच करती है ,जांच के आधार पर निर्णय होता है कि उनका त्यागपत्र हो या महाभियोग चले।
ऐसे में कहा जा सकता है कि फिर कानून सबके लिए बराबर कैसे हुआ ,किसी सांसद, विधायक या लोक सेवक से यदि इतना पैसा मिले तो तुरंत CBI – ED की जांच होती है लेकिन जजों के लिए अलग कानून है जबकि वे भी तो Public Servant होते हैं ।
कपिल सिब्बल कह रहे हैं कि उन्हें मामले की बारीकियों की जानकारी नहीं है लेकिन निश्चित रूप से न्यायपालिका में भ्रष्टाचार का मुद्दा बहुत गंभीर मुद्दा है और इसलिए जजों की नियुक्ति प्रक्रिया में और पारदर्शिता होनी चाहिए।
इस मामले में सिब्बल को जानकारी नहीं है लेकिन जब लोकपाल ने हाई कोर्ट के जज के खिलाफ जांच शुरू की तो उन्हे सब जानकारी थी और लोकपाल की कार्रवाई पर रोक लगाने के लिए जान लगा दी थी।बार अध्यक्ष के महत्वपूर्ण भूमिका में रहते हुए कपिल सिब्बल नें न्यायपालिका से भ्रष्टाचार दूर करने के लिए क्या किया, यह भी तो बार और भारत की जनता जनार्दन को बताएं।
भारत की न्याय व्यवस्था को पारदर्शी बनाने और एक बेमिसाल इतिहास रचने का मौका चीफ जस्टिस महोदय चूक गए हैं उनको CBI – ED को जांच के आदेश देने चाहिए थे और साथ ही जस्टिस यशवंत वर्मा पर न्यायिक कामकाज करने की तुरंत रोक लगा देनी चाहिए थी।
मैं पहले से कहता आ रहा हूं कि क्योंकि अधिकतर जज अपने को धरती के खुदा मान बैठे हैं, उन्हें कुदरत से सजा मिलेगी!
इस मामले से यह तो साबित हो गया कि अधिकतर कोर्ट के जजों के पास अकूत दौलत होगी और अब बाकी जज भी अपनी दौलत को बट्टे खाते लगाने की फ़िराक में होंगे क्योंकि जो जस्टिस वर्मा के साथ हुआ, वह किसी भी जज के साथ हो सकता है।

(लेखक उच्चतम न्यायालय में वरिष्ठ अधिवक्ता हैं और यह उनके निजी विचार हैं)