लेखक:ओमप्रकाश तिवारी
सामान्य बोलचाल की भाषा में ‘एएम’ और ‘पीएम’ शब्दों को आंटे मेरीडियन (पूर्वाह्न) और पोस्ट मेरीडियन (अपराह्न) के रूप में जाना जाता है। कुछ लोग इसे संस्कृत भाषा से जोड़ते हुए ‘आरोहणम मार्तंडस्य’ एवं ‘पतनम मार्तंडस्य’ भी कहने लगे हैं। लेकिन अब राजनीति में ‘एएम’ और ‘पीएम’ का अर्थ – ‘आंटे मोदी’ और ‘पोस्ट मोदी’ भी कहा जा सकता है। यानी राष्ट्रीय राजनीति में 2014 से पहले का काल और उसके बाद का काल। देखा जा रहा है कि जो राजनेता ‘एएम-पीएम’ की इस वास्तविकता को समझ पा रहे हैं, वे या तो गलतियां करने से बच जा रहे हैं, या हुई गलतियां सुधार ले रहे हैं। जो नहीं समझ पा रहे हैं, उन्हें राजनीतिक नुकसान उठाना पड़ रहा है, और अगले लोकसभा चुनाव में और ज्यादा नुकसान उठाना पड़ सकता है।
इसके दो बड़े उदाहरण महाराष्ट्र और बिहार में देखे जा सकते हैं। इन दोनों राज्यों में राजग गठबंधन का हिस्सा रहे जनता दल (यूनाइटेड) अर्थात जदयू और शिवसेना को 2019 के लोकसभा चुनावों में अच्छी सफलता मिली थी। क्योंकि ये दोनों दल मोदी के उभार के बाद वाली भाजपा से गठबंधन करके लड़े थे। शिवसेना का तो तब तक भाजपा के साथ प्राकृतिक और सबसे पुराना गठबंधन था ही। जिसका लाभ उसे 2014 और 2019 दोनों लोकसभा चुनावों में मिला। उधर जदयू को भी 2019 के चुनाव में भाजपा से गठबंधन करके लड़ने पर 16 सीटें हासिल हुईं, जबकि 2014 में वह अकेले लड़कर 02 सीटों पर ही अटक गई थी। जबकि भाजपा ने उस समय लोक जनशक्ति पार्टी एवं राष्ट्रीय लोक समता पार्टी से गठबंधन करके 22 सीटें (पूरे गठबंधन को 31) प्राप्त की थीं। यह भाजपा की उदारता ही थी कि उसने 2019 में गठबंधन करते समय सिर्फ दो सीटों वाली जदयू को 17 सीटों पर लड़ने का अवसर देकर खुद अपनी सीटें कम कर लीं। जिसके कारण उसे 2019 में 17 सीटें ही हासिल हुईं। भाजपा ने यही उदारता जदयू के साथ विधानसभा चुनाव में भी दिखाई और कम सीटें पानेवाली जदयू को मुख्यमंत्री पद सौंप दिया। लेकिन जदयू ने उसकी उदारता की बेकद्री करते हुए साझे की सरकार का कार्यकाल पूरा होने से पहले ही दूसरा साझीदार ढूंढ लिया था। लेकिन डेढ़ वर्ष में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को इस गलती का अहसास हुआ, और उनकी घरवापसी भी हो गई।
यही गलती महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे ने भी की। 2004 में 12 और 2009 में 11 सीटें ही जीत पानेवाली शिवसेना को 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों में 18-18 सीटें मिलीं। 2014 में पहली बार 18 सीटें जीतते ही शिवसेना अतिआत्मविश्वास में इसे अपने दम पर मिली सफलता मानने लगी। जबकि इस अप्रत्याशित सफलता में बड़ा योगदान उस समय की ‘मोदी लहर’ का था। लेकिन शिवसेना ऐसा मानने को तैयार नहीं थी। लोकसभा चुनाव के छह माह बाद ही विधानसभा के भी चुनाव होने थे। उससे पहले के विधानसभा चुनावों में राज्य की 288 विधानसभा सीटों में से शिवसेना 171 और भाजपा 117 पर चुनाव लड़ती आई थी। जबकि शिवसेना की लड़ी जानेवाली सीटों में 50 सीटें ऐसी थीं, जिनपर वह कभी चुनाव नहीं जीत सकी थी। भाजपा का आग्रह था कि इनमें से ही कुछ सीटें उसे देकर इस बार बराबर-बराबर सीटों पर चुनाव लड़ा जाए। भाजपा का मानना था कि बराबरी की सीटों पर लड़कर मोदी लहर का लाभ लेते हुए अधिक सीटें जीती जा सकती हैं। लेकिन शिवसेना को डर था कि बराबरी की सीटों पर लड़कर यदि भाजपा की सीटें अधिक आईं, तो मुख्यमंत्री पद पर दावा भाजपा कर सकती है। इसलिए शिवसेना उसके लिए तैयार नहीं हुई और भाजपा के साथ उसका 25 साल पुराना गठबंधन टूट गया। अचानक टूटे गठबंधन के बाद ढाई दशक में भाजपा पहली बार उन सीटों पर भी चुनाव लड़ी, जहां शिवसेना ने उसे कभी स्थानीय निकाय का चुनाव भी नहीं लड़ने दिया था। लेकिन चुनाव परिणाम आने पर भाजपा को 122 सीटें मिलीं और शिवसेना 63 सीटों पर ही सिमट गई। अर्थात, अपनी-अपनी ताकत पर चुनाव लड़ने के बाद आए परिणामों ने शिवसेना की वास्तविक ताकत सामने ला पटकी। जो शिवसेना दावा करती आई थी (अभी भी करती है) कि भाजपा उसके कंधों पर सवार होकर केंद्र की गद्दी तक पहुंची, महाराष्ट्र में ही वह भाजपा से आधे पर सिमटकर रह गई।
लेकिन भाजपा ने चुनाव के एक माह बाद ही शिवसेना से अपने 25 वर्ष पुराने संबंधों का मान रखते हुए उसे सरकार में शामिल होने का न्यौता दे दिया, और शिवसेना राजी भी हो गई। लेकिन शिवसेना सरकार में छोटे भाई की भूमिका को हजम नहीं कर पा रही थी। पूरे कार्यकाल सरकार में भाजपा के साथ रहते हुए भी वह लगातार भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व पर हमले करती रही। यहां तक कि कई बार प्रदेश नेतृत्व द्वारा उसे समझाने की कोशिशें की गईं, चेतावनियां दी गईं। लेकिन उसका व्यवहार नहीं बदला।
2019 में चुनाव से ठीक पहले दोनों दलों में पुनः गठबंधन की बातचीत शुरू हुई। शिवसेना चाहती थी कि लोकसभा और विधानसभा, दोनों चुनावों की शर्तें एक साथ तय हो जाएं। भाजपा ने उसी समय स्पष्ट कर दिया था कि मुख्यमंत्री पद पर वह कोई समझौता नहीं करेगी। शिवसेना इस पर मान भी गई। पहले लोकसभा, फिर विधानसभा के चुनाव साथ लड़े गए। दोनों चुनावों पर मोदी लहर का असर था। लोकसभा में भाजपा-शिवसेना ने अपना पुराना प्रदर्शन दोहराया। छह माह बाद हुए विधानसभा चुनाव भी दोनों दल मिलकर सौहार्द्र पूर्ण माहौल में लड़े। भाजपा 164 सीटों पर लड़कर 105 सीटें जीती, और शिवसेना 124 सीटों पर लड़कर 56 सीटें जीती। लेकिन चुनाव परिणाम आते ही शिवसेना ने भाजपा का साथ छोड़कर कांग्रेस और राकांपा के साथ मिलकर महाविकास आघाड़ी बना ली, और उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री बन गए। लेकिन कांग्रेस-राकांपा के साथ ऊपरी स्तर पर हुआ यह समझौता शिवसेना के ज्यादातर सांसदों और विधायकों को भी हजम नहीं हुआ। क्योंकि अपने-अपने क्षेत्रों में वह भाजपा कार्यकर्ताओं के सहयोग से ही जीतकर आए थे। उन्हें भाजपा के परंपरागत मतदाताओं ने भी वोट दिए थे। साथ ही, यह भी अकाट्य सत्य था कि 2019 में भी उन्हें ‘मोदी लहर’ का लाभ मिला था। वह जानते थे कि अगले चुनाव में यदि वह कांग्रेस और राकांपा से गठबंधन करके चुनाव मैदान में उतरे, तो उन्हें अपने कार्यकर्ताओं और मतदाताओं को जवाब देना पड़ेगा। यही कारण था कि जून 2021 में जब शिवसेना में बगावत हुई, तो उसके दो तिहाई से अधिक विधायकों के साथ-साथ दो तिहाई से अधिक सांसद भी टूट कर शिंदे गुट में शामिल हो गए। यदि शिवसेना के इन 13 सांसदों को सिर्फ उद्धव ठाकरे के नाम पर चुनकर आने का भरोसा होता, तो वे कतई उनका साथ छोड़कर एकनाथ शिंदे के साथ नहीं आते। जबकि उस समय तो अयोध्या में श्रीराम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा भी नहीं हुई थी। न ही राम लहर जैसी कोई चीज दिख रही थी। बता दें कि 2019 का लोकसभा चुनाव होने तक न तो अयोध्या के राम मंदिर पर सर्वोच्च न्यायालय का फैसला आया था, न कश्मीर में अनुच्छेद 370 खत्म करने की घोषणा हुई थी, न ही कोविड जैसी महामारी से केंद्र सरकार के सफलतापूर्वक पार पा लेने का दौर सामने आया था, न ही कोविड के दौरान शुरू हुई 85 करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज वितरण की योजना शुरू हुई थी, न देश में एक बहुत बड़ा लाभार्थी वर्ग तैयार हो सका था।
लेकिन अपने चुनाव के दौरान इन सांसदों ने साफ महसूस किया था कि उन्हें मिलने वाले मतों में एक बड़ा हिस्सा प्रधानमंत्री मोदी की उस छवि का है, जिसके कारण लोग उन्हें दुबारा प्रधानमंत्री बनाने के लिए हमें वोट दे रहे हैं। मतदाताओं का यह दबाव ही उन्हें उद्धव से छिटककर मोदी की ओर जाने को मजबूर कर रहा था। निश्चित रूप से बिहार में भाजपा के साथ मिलकर चुनाव लड़नेवाले जदयू के सांसद और विधायक भी इसी प्रकार का दबाव अपने मतदाताओं की ओर से महसूस करते रहे होंगे। नीतीश की घरवापसी में अन्य कारणों के अलावा ये दबाव भी एक बड़ा कारण रहा होगा। जिसे नीतीश ने समय रहते महसूस कर लिया, और उद्धव महसूस नहीं कर पा रहे हैं। वह आज भी 2014 से पहले की ही भाजपा को देख पा रहे हैं। जबकि 2014 में राष्ट्रीय राजनीति में मोदी के उदय से पहले की भाजपा और उसके बाद धीरे-धीरे खड़ी हो रही मोदी-शाह की भाजपा में जमीन-आसमान का अंतर आ चुका है। कुछ भी हो, नीतीश कुमार एक परिपक्व राजनीतिज्ञ हैं। वह अपने फैसले खुद लेने में सक्षम हैं। जबकि उद्धव ठाकरे अपने फैसलों के लिए अपने सिपहसालारों पर निर्भर हैं। उनका दुर्भाग्य है कि उनके सिपहसालार उन्हें देश में हो रहे बदलावों की वास्तविकता से दूर रखने में ही अपनी भलाई समझ रहे हैं।

(लेखक दैनिक जागरण महाराष्ट्र राज्य के ब्यूरो हैं और लेख साभार दैनिक जागरण है)