लेखक-अरविंद जयतिलक
♂÷समान नागरिक संहिता एक बार फिर जेरेबहस है। असम राज्य के मुख्यमंत्री द्वारा समान नागरिक संहिता लागू किए जाने की वकालत के बाद उत्तराखंड सरकार ने भी इस दिशा में कवायद तेज कर दी है। राजनीतिक दलों के अलावा तमाम स्वयंसेवी संगठन एवं प्रबुद्ध जन इसे लागू किए जाने की मुहिम को धार दे रहे हैं। दूसरी ओर न्यायालय भी इसे लागू करने की जरुरत बता चुका है। अभी गत वर्ष ही दिल्ली उच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार को ताकीद किया कि वह इसे लागू करे। तलाक की एक याचिका पर सुनवाई करते हुए न्यायमूर्ति प्रतिमा एम सिंह की पीठ ने दो टूक कहा कि कानून के सामने सब समान और सबके लिए एक समान कानून जीवंत लोकतंत्र की बुनियादी जरुरत है। विवाह, तलाक और संपत्ति के बंटवारे के संबंध में वैकल्पिक व्यवस्थाओं की मौजूदगी न्यायिक ढांचे के लिए चुनौती के साथ-साथ संविधान के प्रावधानों को लागू करने की राह में बाधा है। न्यायालय ने यह भी रेखांकित किया कि भारतीय समाज समरुप हो रहा है और जाति व धर्म की दूरियां मिट रही है। ऐसे में विवाह व तलाक के लिए कानूनी अड़चनों से जूझने के लिए मजबूर होने की जरुरत नहीं होनी चाहिए। उल्लेखनीय है कि इससे पहले सर्वोच्च न्यायालय के जस्टिस दीपक गुप्ता और जस्टिस अनिरुद्ध बोस की पीठ भी कह चुकी है कि बार-बार ताकीद किए जाने के बावजूद भी देश में समान नागरिक संहिता लागू करने का प्रयास नहीं हो रहा है। शीर्ष पीठ ने यह भी कहा कि संविधान निर्माताओं ने राज्य के नीति निर्देशक तत्वों के तहत अनुच्छेद 44 के जरिए यह उम्मीद जतायी थी कि राज्य पूरे देश में समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करे। लेकिन इसके बावजूद भी उसका अनुपालन नहीं हुआ। ध्यान देना होगा कि इसे लागू न किए जाने का मूल कारण यह है कि मुस्लिम समाज के अलावा कुछ राजनीतिक दल इसका विरोध कर रहे हैं। याद होगा कि गत वर्ष पहले जब केंद्र सरकार ने देश में समान नागरिक संहिता लागू करने के लिए इस मसले पर विधि आयोग को रिपोर्ट देने हेतु पत्र लिखा तो जमकर वितंडा हुआ। विपक्षी दलों द्वारा इसे अल्पसंख्यकों के वैयक्तिक विधि में हस्तक्षेप करार दिया गया। फिर 1 सितंबर, 2018 को विधि आयोग ने कहा कि अभी इसके लिए सही वक्त नहीं आया है। तब विधि आयोग ने हिंदू, मुस्लिम और ईसाई पर्सनल लाॅ में संशोधन कर महिलाओं से भेदभाव मिटाने की बात कही थी। गौर करें तो सरला मुद्गल बनाम भारत संघ मामले में सर्वोच्च अदालत कह चुका है कि संविधान के अनुच्छेद 44 पर नया दृष्टिकोण अपनाएं जिसमें सभी नागरिकों के लिए एक ‘समान नागरिक संहिता’ हो। सर्वोच्च अदालत ने ऐसा करना राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता की अभिवृद्धि दोनों दृष्टि से आवश्यक बताया। जानवलामत्तम बनाम भारत संघ के ममाले में भी उच्चतम न्यायालय समान नागरिक संहिता के न बनाने को लेकर अपना दुख जता चुका है। न्यायमूर्ति कह चुके हैं कि संविधान को लागू हुए वर्षों गुजर गए और कई सरकारें आईं व गई फिर भी अनुच्छेद 44 में निहित संविधान के उक्त निदेश को कार्यान्वित करने के कर्तव्य का पालन किसी के द्वारा नहीं किया गया। इतिहास पर गौर करें तो 1840 में ब्रिटिश राज में गठित समिति ने समान नागरिक कानून बनाने की वकालत की थी। आजादी के उपरांत देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरु व संविधान निर्माता भीमराव अंबेडकर ने भी इसकी जरुरत पर बल दिया। लेकिन आश्चर्य कि 1956 में हिंदू विवाह कानून, उत्तराधिकार कानून, नाबालिग व अभिभावक कानून और गोद लेने व गुजारा भत्ता कानून लागू कर दिया गया लेकिन अल्पसंख्यक समुदायों को इस परिधि में लाने से बचा गया। 1985 में जब शाह बानो का मामला उछला तब भी इसकी आवश्यकता महसूस की गयी। लेकिन तब भी इसे नजरअंदाज कर दिया गया। बता दें कि शाह बानो एक 62 वर्षीय मुसलमान महिला और 5 बच्चों की मां थी जिन्हें 1978 में उनके पति ने तलाक दे दिया था। शाह बानों अपनी और अपने बच्चों की जीविका का कोई साधन न होने के कारण पति से गुजारा लेने के लिए अदालत का दरवाजा खटखटायी। अदालत ने निर्देश दिया कि शाह बानो का निर्वाह-व्यय के समान जीविका दी जाए। लेकिन इस फैसले से भारतीय मुसलमान आगबबूला हो उठा और इसे अपनी संस्कृति और विधानों के विरुद्ध करार देकर विरोध जताने लगा। मुस्लिम नेताओं ने ‘आॅल इंडिया पर्सनल बोर्ड’ नाम की एक संस्था बनायी और देश के सभी भागों में आंदोलन की धमकी दी। उस समय के प्रधानमंत्री राजीव गांधी और कम्युनिस्ट दल कट्टरपंथियों के आगे झुक गए और अदालत की भावना का सम्मान करने के बजाए कट्टरपंथियों की मांग मानते हुए इसे धर्मनिरपेक्षता के उदाहरण के स्वरुप में प्रस्तुत किया। यही नहीं 1986 में कांग्रेस पार्टी ने जिसे संसद में बहुमत हासिल था, एक कानून पारित कर शाह बानो मामले में उच्चतम न्यायालय के फैसले को उलट दिया। इस कानून के मुताबिक सुनिश्चित कर दिया कि ‘हर वह आवेदन जो किसी तलाकशुदा महिला के द्वारा अपराध दंड संहिता 1975 की धारा 125 के अंतरगत किसी न्यायालय में इस कानून के लागू होते समय विचाराधीन है, अब इस कानून के अंतरगत निपटाया जाएगा चाहे उपर्युक्त कानून में जो भी लिखा हो।’ क्या यह रेखांकित नहीं करता है कि तत्कालीन सरकार ने तुष्टिकरण की सारी सीमाएं लांघ गयी। गौर करें तो शाह बानो ही नहीं बल्कि नूर शाबा खातून बनाम मोहम्मद कासिम के मामले में भी उच्चतम न्यायालय कह चुका है कि एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला को अपने बच्चों के लिए जब तक कि वे बालिग नहीं हो जाते है, पति से भरण-पोषण पाने का अधिकार है। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि मुस्लिम पर्सनल लाॅ और भारती दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 दोनों के अधीन पति का दायित्व पूर्ण है जबकि बच्चे तलाक शुदा पत्नी के साथ रहते हैं। 20 जून 2000 को कलकत्ता उच्च न्यायालय ने भी एक मुस्लिम महिला को जिसे उसके पति ने तलाक दे दिया था, को तब तक अपने पति से भरण-पोषण पाने का हक बताया जब तक कि वह पुनर्विवाह नहीं कर लेती है। मुस्लिम समाज को विचार करना चाहिए कि जब दुनिया के सभी आधुनिक देश जिनमें मुस्लिम देश भी शामिल हैं, में समान नागरिक संहिता लागू है और वहां तीन तलाक को गैरवाजिब बताया गया है तो फिर भारत में भी ऐसा कानून क्यों नहीं बनना चाहिए? सीरिया, ट्यूनिशिया, मोरक्को, पाकिस्तान, ईरान, बांग्लादेश तथा मध्य एशियाई गणतंत्र समेत अन्य कई और मुस्लिम देशों में वैयक्तिक विधि का संहिताकरण किया गया है। अच्छा होता कि भारतीय मुसलमान अपनी वैयक्तिक विधि का संहिताकरण करने की मांग स्वयं उठाता ताकि स्त्रियों की दशा सुधारने में मदद मिलती। गौर करना होगा कि भारत का संविधान राज्य के नीति निर्देशक तत्व में सभी नागरिकों को समान नागरिकता कानून सुनिश्चित करने के प्रति प्रतिबद्धता व्यक्त करता है। संविधान का अनुच्छेद 44 इस धारणा पर आधारित है कि सभ्य समाज में धर्म व वैयक्तिक विधि में कोई संबंध नहीं होता है। अतः समान नागरिक संहिता बनाने से किसी समुदाय के सदस्यों के अनुच्छेद 25, 26 व 27 के अधीन प्रतिभूत मूल अधिकारों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। विवाह, उत्तराधिकार और इस प्रकार की सामाजिक प्रकृति की बातें धार्मिक स्वतंत्रता से बाहर हैं और उन्हें विधि बनाकर विनियमित किया जा सकता है। समान नागरिक संहिता का अर्थ भारत के सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक कानून से है। समान नागरिक संहिता एक पंथनिरपेक्ष विधि है जो सभी धर्मों के लोगों के लिए समान रुप से लागू होता है। ध्यान देना होगा कि विवाह एवं उत्तराधिकार संबंधी हिंदू विधि इस्लाम व ईसाइयों की भांति ही धर्मसम्मत है। जब हिंदुओं ने संविधान की भावना का सम्मान करते हुए एवं देश की एकता व अखंडता को बनाए रखने के लिए अपनी धार्मिक मान्यताओं का परित्याग कर दिया और उनका संहिताबद्ध किया गया तो अन्य धर्मावलंबियों एवं मतावलबियों को इस तरह के आचरण का पालन क्यों नहीं करना चाहिए?
÷लेखक राजनीतिक व सामाजिक विश्लेषक हैं÷