लेखक-अरविंद जयतिलक
♂÷भूटान नरेश जिग्मे खेसर नामग्याल वांगचुक की भारत यात्रा ऐसे समय में हुई है जब पड़ोसी देश चीन अरुणाचल प्रदेश के 11 इलाकों को नया नाम देकर अनावश्यक वितंडा खड़ा करने की कोशिश की है। प्रतिकार स्वरुप भारत ने करारा जवाब देते हुए कहा है कि नाम बदलने से सच्चाई नहीं बदलती। हालांकि इस मसले पर भूटान नरेश वांगचुक ने भारत के समर्थन में कोई उत्साहजनक प्रतिक्रिया तो नहीं दी लेकिन उन्होंने इतना जरुर स्पष्ट कर दिया कि सीमा विवाद के मसले पर उनके देश के रुख में तनिक भी बदलाव नहीं आया है। मतलब साफ है कि भूटान नरेश भारत के साथ कंधा जोड़ने के साथ चीन से भी नाराजगी नहीं चाहते। बहरहाल अच्छी बात यह है कि भूटान नरेश वांगचुक और प्रधानमंत्री मोदी के बीच राष्ट्रीय हितों से जुड़े कई मुद्दों पर आम सहमति बनी है जो दोनों देशों के लिए फायदेमंद है। विदेश मंत्रालय के मुताबिक दोनों देश आपसी संबंधों और हितों का ध्यान में रखते हुए सहयोग को और बेहतर करने की कोशिश जारी रखेंगे। ध्यान देना होगा कि कुछ दिन पहले भूटान के प्रधानमंत्री लोते शेरिंग ने डोकलाम पर चीन के समर्थन में बयान दिया था। इसे लेकर भारत ने कड़ी आपत्ति जाहिर की थी। यह संभव है कि प्रधानमंत्री मोदी इस मुद्दे को भूटान नरेश के समक्ष उठाए हों। जानना आवश्यक है कि भूटान चीन के साथ तकरीबन 400 किलोमीटर से अधिक लंबी सीमा साझा करता है। चीन और भूटान सीमा विवाद को हल करने के लिए दो दर्जन से अधिक बार प्रयास कर चुके हैं। भारत चाहता है कि इन दोनों देशों के बीच सीमा विवाद का जो भी समाधान निकले उससे भारतीय संप्रभुता प्रभावित न हो। यहीं वजह है कि भारत भूटान के समक्ष अपनी चिंता को बार-बार जाहिर करता है। भारत को आशंका है कि चीन और भूटान दोनों देशों के बीच समझौता मूर्त रुप लेता है तो चीन उत्तर में अपना कुछ हिस्सा भूटान को दे सकता है। उसके बदले में भूटान भी चीन को पश्चिम का कुछ हिस्सा सौंप सकता है। इसी पश्चिमी हिस्से में डोकलाम भी है। अगर चीन डोकलाम पर अपनी पकड़ बना लेता है तो फिर उसे उत्तर-पूर्वी हिस्से तक पहुंचना आसान हो जाएगा। इसी हिस्से में सिलिगुड़ी काॅरिडोर अवस्थित है जिसे चिकन नेक कहा जाता है। यह भारत के लिए असहज स्थिति होगी। भूटान-चीन के विवाद में जाएं तो 1967-68 में चीन ने चुंबी घाटी में गतिविधियां शुरु की। 1971-80 के दौरान चीन ने वहां सड़कें बनाने की परियोजना शुरु की। भूटान की तरफ से आपत्ति दर्ज कराने के बाद 1988 में दोनों देशों के बीच एक समझौता हुआ जिसके मुताबिक क्षेत्र में पूर्ववत स्थिति सुनिश्चित करना तय हुआ। 1990 में बातचीत के सातवें चरण में चीन ने भूटान के सामने पेशकश करते हुए कहा कि अगर उसे चुंबी घाटी का पूर्वी इलाका मिल जाए तो वह भूटान के उत्तरी इलाकों पर दावा नहीं करेगा। 1999 में चीन ने पूर्ण कुटनीतिक स्थापित करने के लिए भूटान के साथ क्षेत्रीय समझौता किया। भूटान ने चीन की पेशकश नहीं मानी। इसके बाद 2004 में चीन ने इस मुद्दे को सुलझाने के लिए भूटान पर दबाव बनाना शुरु किया। चीनी सेना ने उस क्षेत्र में सड़क निर्माण कार्य तेज कर दिया। इसी के तहत उसने भूटान की सीमा में अतिक्रमण शुरु कर दिया। फिर डोकलाम में चीनी फौजों द्वारा सड़क निर्माण शुरु करने के बाद भूटान ने भारतीय सेना की मदद मांगी। उल्लेखनीय है कि चीनी सेना ने इस क्षेत्र में स्थित भारतीय सेना के बंकरों को बुलडोजर चलाकर गिरा दिया था। भूटानी सेना का प्रतिरोध विफल होने के बाद भारतीय सेना भूटान की मदद के लिए आगे आयी और चीनी सेना की गतिविधियों पर रोक लगा दी। इतिहास में जाएं तो भारत और भूटान के बीच गहरा संबंध है। भारत के पहल पर ही भूटान 1971 में संयुक्त राश्ट्र संघ का सदस्य बना और 1973 में निर्गूट आंदोलन में शामिल हुआ। भारत ने भूटान को सार्क का भी सदस्य बनवाया। भारत-भूटान संबंध निर्माण में 1949 की संधि का विशेष महत्व है। इस संधि के अनुसार दोनों देशों ने चिरस्थायी शांति सुनिश्चित करने का आश्वासन दिया है। संधि के मुताबिक भूटान सरकार विदेशी मामलों में भारत सरकार की सलाह को मानने के लिए सहमत है जो सामरिक दृष्टि से भारत के लिए विशेष महत्व रखता है। भारत-चीन युद्ध के उपरांत भूटान ने प्रतिरक्षा का भार भारत को सौंप दिया। लेकिन फरवरी 2007 में जब भूटान सम्राट जिग्मे खेसर नामग्याल वांगचूक की भारत यात्रा पर आए तो दोनों देशों ने संधि को संशोधित करते हुए इसमें एक नई बात जोड़ दी। वह यह कि दोनों देश एकदूसरे की संप्रभुता, स्वतंत्रता, और क्षेत्रीय अखण्डता का सम्मान करेंगे। गौर करें तो पिछले एक दशक में भारत-भूटान संबंधों में काफी उतार-चढ़ाव आए हैं। याद होगा डा0 मनमोहन सिंह की सरकार के दौरान जिस तरह भारत सरकार ने भूटान के संसदीय चुनाव से पहले केरोसिन और रसोई गैस की सब्सिडी पर रोक लगायी उससे दोनों देशों के बीच संबंधों में खटास उत्पन हुआ। देखें तो 2008 के बाद से ही भारत के संदर्भ में भूटान की रणनीति में बदलाव आया। भूटान की प्राथमिकता में भारत के बजाए चीन आ गया। तब के भूटानी प्रधानमंत्री थिनले की चीन से आत्मीयता बढ़ गयी थी। याद होगा कि गत वर्ष पहले रियो द जेनेरो में एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन के दौरान उन्होंने चीनी प्रधानमंत्री से मुलाकात की और 15 बसों का सौदा किया। तब यह माना जाने लगा था कि बदले वैश्विक माहौल में भूटान भारत की छाया से मुक्त होना चाहता है। विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय मसलों पर भी उसकी नीति भारत से विपरित रही। 1979 के हवाना गुटनिरपेक्ष सम्मेलन में जहां भारत बहुसंख्यक निर्गूट देशों के साथ कम्पूचिया की सीट को खाली रखने के पक्ष में था वहीं उसने कम्पूचिया की सीट पोल पोत समूह को देने का समर्थन किया। यही नहीं उसकी नीति परमाणु अप्रसार संधि के मसले पर भी भारत के खिलाफ रहा। याद होगा कि 1981 में भूटानी विदेश मंत्री ने राष्ट्रीय असेंबली में घोषणा की कि भूटान चीन के साथ द्विपक्षीय वार्ता करना चाहता है। इसके अलावा भारत-भूटान संबंधों में उत्तेजना के कुछ अन्य कारण और भी रहे जिसमें भूटान के आयात-निर्यात पर भारत के कानूनों का लागू होना प्रमुख है। 1972 के व्यापार समझौते की धारा 5 में इसकी व्यवस्था है। हालांकि नवंबर 1977 में बतौर विदेश मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भूटान यात्रा की तो भरोसा दिया कि ये नियम अब भूटान के आयात-निर्यात पर लागू नहीं होंगे। पर्यटकों के लिए आंतरिक परमिट व्यवस्था को लेकर भी भूटान की भारत से नाराजगी रही है। उसका कहना है कि विदेशी पर्यटकों को भूटान आने में परमिट न मिलने से उसे राजस्व की हानि होती है। लेकिन तथ्य यह भी है कि पिछले एक दशक में चीन की भूटान में घुसपैठ भारत के लिए चिंता का सबब बना है। उचित होगा कि जिस तरह भारत भूटान की शिकायतों को लगातार दूर कर रहा है उसी तरह भूटान भी भारत की चिंता पर गौर करे। गत वर्ष पहले जब भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भूटान यात्रा हुई तब दोनों देशों ने दशकों पुराने रिश्ते को उर्जा से भर दिया। दोनों देशों ने अंतरिक्ष अनुसंधान, विमानन, आईटी, उर्जा, और शिक्षा के क्षेत्र में 10 सहमति पत्र पर हस्ताक्षर किए। प्रधानमंत्री मोदी ने शब्दरुंग नामग्याल द्वारा 1629 में निर्मित शिमटोखा जोंग में खरीदारी कर रुपे कार्ड की भी शुरुआत की। भारत और भूटान के बीच रिश्तों में गरमाहट इसलिए आवश्यक है कि सामरिक दृष्टि से भूटान भारत के लिए विशेष महत्व रखता है। भारत की उत्तरी प्रतिरक्षा के संदर्भ में भूटान को भेद्यांग की संज्ञा दी जाती है। चुम्बी घाटी से चीन की सीमाएं सिर्फ 80 मील हैं। अगर चीन चुम्बी घाटी तक अपनी पकड़ बनाने में कामयाब हो जाता है तो वह उत्तरी बंगाल, असम और अरुणाचल प्रदेश को भारत से अलग करने की साजिश रच सकता है।
÷लेखक राजनीतिक व सामाजिक विश्लेषक हैं÷