लेखक -संजय राय
डोनाल्ड ट्रम्प के अमेरिका का राष्ट्रपति पद की शपथ लेने के एक महीने के भीतर ही रूस-युक्रेन अब अपने अंत की ओर आ गया है। इस युद्ध को लेकर पिछले कुछ दिनों के दौरान अमेरिका, रूस, युक्रेन और यूरोपीय देशों के जो बयान आये हैं, उनसे यह साफ हो गया है कि इस लड़ाई में भारत का रुख बिलकुल सही था।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पुतिन और जेलेंस्की दोनों को सलाह दी थी कि यह युद्ध का समय नहीं है। उस समय जेलेंस्की भारत से काफी नाराज थे। वह चाहते थे कि भारत उनका पक्ष ले। अमेरिका और यूरोपीय देशों ने खुलकर युक्रेन का साथ दिया। वे भी चाहते थे कि भारत युक्रेन का समर्थन करे और रूस पर लगाये गये आर्थिक प्रतिबंधों का समर्थन करे। लेकिन युद्ध की हकीकत को समझते हुए भारत ने ऐसा नहीं किया। अमेरिका और यूरोप के भारी दबाव को दरकिनार करके भारत ने रूस से सस्ते दर पर खनिज तेल खरीदना शुरू कर दिया।
इस युद्ध में जेलेंस्की अब खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं। जिस अमेरिका के भरोसे वह रूस का मुकाबला करते हुए अपने लाखों मासूम नागरिकों को मरवा चुके हैं, वही अमेरिका अब खुलकर पुतिन के साथ युक्रेन की जमीन के नीचे मौजूद 15 ट्रिलियन डाॅलर से अधिक बहुमूल्य खनिज भंडार की सौदेबाजी कर रहा है और पुतिन इसके लिये तैयार भी हो गये हैं।
ट्रम्प ने जेलेन्सकी को डिक्टेटर और मसखरा घोषित करके युक्रेन में चुनाव करवाने की घोषणा कर दी है। जाहिर है यह चुनाव भी रूस की शर्तों पर होगा, वरना पुतिन दोबारा युद्ध शुरू कर सकते हैं। ऐसे में जेलेंस्की के सामने चुपचाप राष्ट्रपति पद से हटने के अलावा एकमात्र विकल्प यही बचा है, वरना उन्हें जबरन हटा दिया जायेगा। ट्रम्प ने तो पूरे नाटो को ही अप्रासंगिक कर दिया है। उनके इस रुख से यूरोपीय संघ भी छटपटा रहा है।
इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यूरोपीय संघ अब अपने हितों की रक्षा के लिये भारत की तरफ देख रहा है। यूरोपीय संघ चाहता है कि शांति स्थापना के प्रयासों में भारत एक प्रमुख भागीदार की भूमिका निभाये और यूक्रेन की सुरक्षा सुनिश्चित करने में गारंटर बने। इसके लिये यूरोपीय संघ की अध्यक्ष उर्सुला वाॅन डेर लेएन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से बातचीत करने दिल्ली आई हुई हैं।
भारत को यूरोपीय संघ का यह प्रस्ताव स्वीकार करने से पहले दुनिया में अब तक हुए युद्धों के इतिहास को देखना चाहिये। आज भले ही अमेरिका और नाटो अलग-अलग नजर आ रहे हैं, लेकिन ऐसा बिलकुल नहीं है। जिस तरह युक्रेन रूस के साथ युद्ध के लिये अमेरिका पर निर्भर था, अगर भविष्य में रूस किसी नाटो सदस्य यूरोपीय देश पर हमला करता है तो उसे भी अमेरिका पर ही निर्भर रहना पड़ेगा। आज यूरोप अर्थिक बदहाली के दौर से गुजर रहा है। इसलिये नाटो देशों की अमेरिका पर निर्भरता और अधिक बढ़ी हुई है।
इस तरह के माहौल में यूरोपीय संघ का यह कहना कि भारत युक्रेन की सुरक्षा की गारंटी दे, एक दूरगामी चाल लग रहा है। अमेरिका और नाटो देश मिलकर इस मामले में भारत को बेवजह घसीटना चाहते हैं, जिससे कि रूस और भारत के संबंध खराब हो जायें। भारत को किसी न किसी तरह युद्ध में घसीटने की इनकी कोशिश लंबे समय से जारी है। याद कीजिये डोनाल्ड ट्रम्प जब पहली बार राष्ट्रपति बने थे तो उसी समय चीन के साथ भारत का टकराव शुरू हुआ था। तब ट्रम्प ने भारत को सुझाव दिया था कि वह चीन के साथ लड़ जाये। लेकिन भारत ने अथाह धैर्य का परिचय देते हुए चीन के साथ बातचीत से समस्या का समाधान तलाशने का रास्ता चुना। अपने से शक्तिशाली देश के साथ ऐसे समय में युद्ध करना जब देश तेजी से प्रगति के रास्ते पर चल रहा हो, किसी भी दृष्टि से सही नहीं होता है।
भारत ने अभी तक रूस-युक्रेन युद्ध में कूटनीतिक बुद्धिमत्ता का परिचय दिया है। उसे हर हाल में यूरोपीय संघ का मध्यस्थता का प्रस्ताव खरिज कर देना चाहिये, क्योंकि यह प्रस्ताव स्वीकार करने से उसे कुछ भी हासिल होने वाला नहीं है। अगर अमेरिका यह युद्ध रुकवा सकता है तो वह युक्रेन की सुरक्षा की गारंटी भी ले सकता है। लेकिन अमेरिका अपने हित को सबसे ऊपर रखकर रूस के साथ अपने संबंध प्रगाढ़ करेगा और युक्रेन पर रूस के प्रभुत्व को स्वीकार भी करेगा। वह सौदेबाजी करेगा। उसे युक्रेन की कोई चिंता नहीं है। युक्रेन को रूस के साथ लड़वाकर उसने अपने हितों को साध लिया है।
इस युद्ध में अमरीका को जो चाहिए था, पुतिन वह देने के लिये तैयार हो चुके हैं। जेलेंस्की आजादी का चाहे जितना ढोल पीटें, अमेरिका अब उनकी एक भी सुनने वाला नहीं है। वह रूस के कब्जे में जा चुकी युक्रेन की जमीन के नीचे छिपे खनिज भंडारों के दोहन के लिये तकनीकी सहायता देगा और इसके बदले में वह इसमें अपना हिस्सा भी तय कर लेगा। यह भी हो सकता है कि कोरिया और सूडान की तरह युक्रेन को काटकर दो नये राष्ट्र बना दिये जायें। एक रूस के कब्जे में रहे और दूसरा अमेरिका के कब्जे में रहे।
अमेरिका पहले ही पश्चिम एशिया और यूरोप को बरबाद कर चुका है। अफ्रीका और लेटिन अमेरिका का भी यही हाल है। अरब के कई अन्य देशों का भी यही हाल है। तमाम कोशिशों के बावजूद अगर कोई अमेरिका के जाल में फंसने से बचा हुआ है तो वह भारत और चीन हैं। अमेरिका को पता है कि अपनी बादशाहत को बरकरार रखना है तो उसे चीन और रूस को एक साथ आने से हर हाल में रोकना होगा, वरना ये दोनों देश उत्तर कोरिया और ईरान के साथ मिलकर उसे तगड़ी चुनौती दे सकते हैं। इसीलिये ट्रम्प रूस के साथ खड़े हो गये हैं और चीन से भी संबंध नहीं बिगाडने का साफ संकेत दे रहे हैं।
मौजूदा वैश्विक व्यवस्था में डाॅलर को मजबूत बनाये रखना अमेरिका की सर्वोच्च प्राथमिकता है। ट्रम्प ने अमेरिका फस्र्ट का नारा यूं ही नहीं दिया है। उन्हें अपने देश को हर हाल में मजबूत बनाये रखना है। इसलिये वह अपने बयानों से पूरे विश्व में उथल-पुथल मचाने की कोशिश कर रहे हैं। उनके बयान का असर भारत की राजनीति पर भी पड़ रहा है। यूएसएड फंड की बात को उन्होंने जान-बूझकर उछाला है। कांग्रेस पार्टी इसे मुद्दा बनाकर मोदी सरकार पर लगातार हमले कर रही है। सबको पता है कि यूएसएड के तहत भारत में कोई पहली बार अमेरिका से पैसा नहीं आया है। पहले भी सरकार ने इसी तरह की सहायता ले रखी है। ऐसे में यह कोई बड़ा मुद्दा नहीं बन सकता है। फिर भी भारत सरकार को कमजोर करने की कोशिश जारी है।
जेलेंस्की को अपना देश बरबाद करने के बाद यह बात समझ में आ गयी होगी कि महाशक्तियां आपस में कभी भी नहीं लड़ती हैं। वे दो देशों को आपस में लड़वाती हैं। रूस और चीन से अमेरिका कभी भी सीधे लड़ाई नहीं करेगा। भारत से वह इसलिये सीधे नहीं लड़ेगा, क्योंकि यहां उसके आर्थिक हित जुड़े हुए हैं। भारत उसके लिये विशाल बाजार है। वह भारत को एक सीमा से आगे मजबूत होते नहीं देख सकता है। इसीलिये वह कभी नेपाल, तो कभी पाकिस्तान, कभी बांग्लादेश तो कभी मालदीव, कभी श्रीलंका में अस्थिरता पैदा करने की कोशिश कर चुका है। उसकी इस कोशिश में चीन और पाकिस्तान जैसे देश भी पर्दे के पीछे से साथ देते हैं, क्योंकि भारत की मजबूती उन्हें भी स्वीकार्य नहीं है।
स्पष्ट है वर्तमान वैश्विक माहौल में भारत आज एक ऐसे मुकाम पर खड़ा है, जहां गलती करने की कोई गुंजाइश नहीं है। भारत ने ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ के सिद्धांत को विश्व पटल पर पेश किया है। इसके साथ ही प्रधानमंत्री मोदी ने ‘आत्मनिर्भर भारत’ का नारा देकर देश को 2047 तक दुनिया की महाशक्ति बनाने का लक्ष्य निर्धारित किया है। भारत के लिये यह लक्ष्य प्राप्त करना कोई बड़ी बात नहीं है। भारत को बस अपने पुराने रुख पर अड़े रहना है कि हम पूरे विश्व में शांति चाहते हैं और यह युद्ध का समय नहीं है। इसी में भारत की भलाई है और अगर दुनिया इसे मान ले तो पूरे विश्व की भी भलाई है।

(लेखक आज अखबार के नेशनल ब्यूरों इन चीफ हैं)