लेखक -डॉ.के. विक्रम राव
जब 19-वर्षीय जसवंत सिंह चाइल को कल (5 अक्टूबर 2023) लंदन के एक न्यायालय ने नौ साल के कठोर कारावास की सजा सुनाई, तो हर देशभक्त भारतीय गर्वान्वित हुआ होगा। सर फख्र से ऊंचा किया होगा। यह सिख-तरुण महारानी एलिजाबेथ द्वितीय को दो साल पूर्व मार डालने उनके आवास पर गया था। विंडसर किले में पकड़ा गया था। कोशिश नाकाम रही। चर्चा तो चली। चाइल के हाथ में आड़ा धनुष (क्रासबो) था। इससे निकला तीर मौत का पैगाम दे देता। वर्षों से जलियांवाला बाग नरसंहार पर क्षमायाचना से महारानी मुकरती रहीं। युवा उधम सिंह ने तो 21 वर्ष प्रतीक्षा करी थी। फिर पंजाब गवर्नर माइकल ओ डायर को लंदन की सभा में पिस्तौल की गोली से भून दिया था। असली हत्यारा ब्रिगेडियर रेजिनाल्ड डायर तब तक मर चुका था। उसी ने सिपाहियों को गोलीबारी का आदेश जालियांवाला बाग (अमृतसर) में दिया था। इस क़त्लेआम के समय उधम सिंह स्वयं वहां मौजूद थे। वहाँ की मिट्टी उठाकर क़सम खाई थी कि वो एक दिन इस अत्याचार का अवश्य बदला लेंगे।
यह बहादुर उधम सिंह 26 दिसंबर 1899 को पंजाब के गांव सुनाम (संगरूर) में जन्मे, सर्वधर्म समभाव के पुरोधा थे। यही कारण है कि 10 धर्म वाले इनके साथ जुड़े हैं। लोग उनको मोहम्मद सिंह आजाद के नाम से भी जानते हैं। इस नाम का उनका जिक्र लंदन में उनके केस की फाइलों से मिलता है। ज्ञानी जैल सिंह की बदौलत (1974 में) इग्लैंड से इस शहीद के ताबूत को (23 जुलाई 1974 को) भारत लाया गया था तथा 31 जुलाई 1974 को शहीद के पैतृक गांव सुनाम भेजा गया। वहां भारतीय रीति से उनकी अस्थियों को सात कलशों में डालकर सुनाम के खेल स्टेडियम, अमृतसर के जलियांवाला बाग तथा फतेहगढ़ साहिब के रोजा शरीफ सहित चार अन्य स्थानों में रखवाया गया था।
इंग्लैंड में युवा जसवंत सिंह गुस्से में रहता था। ब्रिटिश सरकार ने इतने साल में एक बार भी माफी नहीं मांगी। यह अमानवीय हरकत युवा जसवंत को सालों से सालती रही थी। वह पीड़ित था। हालांकि वह महारानी को मारने में सफल तो नहीं हुआ। एलिजाबेथ बुढ़ापे के कारण ही मर गई।
जशवंत ने विस्तार से पढ़ा था सरदार उधम सिंह की सुकृति को। यह आक्रोशित युवा महारानी को क्यों मारना चाहता था ? क्योंकि इस राजसी मद में चूर महिला से भारतीय स्वाधीनता सेनानी दशकों से मांग करते रहे कि जलियांबाग वाले सामूहिक हत्याकाण्ड पर एलिजाबेथ खेद व्यक्त करें। बच्चा-बच्चा जानता है कि जलियांवाला बाग में ब्रिटिश सैन्य जनरल रेजिनाल्ड डायर द्वारा गोलीबारी पाशविक थी, राक्षसी थी। उससे ज्यादा गर्हित और जघन्य कत्लेआम इतिहास में अकल्पनीय है। मगर क्या कहा था मलिका एलिजाबेथ तथा उनके प्रिय पति प्रिंस फिलिप्स ने ?“दुख है”। उनको तब स्मरण भी कराया गया था कि बैसाखी (13 अप्रैल 1919) में अमृतसर के उद्यान में 1500 लोग गोलियों से भून दिये गये थे, 1200 लोग घायल हुये। उनमें सैकड़ों बच्चे भी थे। जनरल डायर ने हन्टर जांच समिति को बताया था : “और अधिक को मैं नहीं मार पाया था क्योंकि मेरे पास गोलियां खत्म हो गयीं थीं।”
इस नरभक्षी जनरल के लंदन लौटने पर उसके ब्रिटिश स्वजनों ने उन्हें बीस हजार रूपये (आज के दो करोड़) का पर्स भेंट दिया। मगर लोमहर्षक बात तो तब हुयी जब भारतीय स्वतंत्रता का स्वर्णोत्सव (1997) मनाया जा रहा था। महारानी एलिजाबेथ जलियांवाला बाग भी गयीं। तब फिलिप्स ने विवाद सर्जाया। वे बोले: ‘‘मृतकों की संख्या में अतिशयोक्ति है।‘‘ मगर महारानी ने सिर्फ कहा:‘‘कठिन हादसा था।‘‘ दिल्ली में संसद को अपने उद्बोधन में वे बोलीं: ‘‘जलियांवाला बाग पर मुझे पीड़ा हुयी है।‘‘ बस पीड़ा ? मगर इस राजनीतिक दंपत्ति से लगातार मांग की गयी कि हत्यारे जनरल डायर के कुकृत्य पर वे क्षमा याचना करें।महारानी ने नहीं स्वीकारा। अब उन्हें कौन समझाता कि क्षमा शब्द की तुलना में पीड़ा निहायत हल्का अल्फाज है। क्षमा का न तो कोई पर्यायवाची है, न समानार्थी। रानी भारत तीन बार आ चुकी थीं। पति तो सर्वप्रथम 1959 में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के खास मेहमान बनकर पधारे थे। मगर इतने क्रूर और दानवी वाकये पर भी उस औरत का दिल द्रवित न हुआ हो ? तो वह रहमदिल और करूणामयी कतई नहीं थीं?
जलियाँवाला बाग की घटना अंग्रेजों द्वारा एक बर्बर प्रतिशोध था ? उन दिनों अमृतसर में एक ब्रिटिश स्कूल की प्राध्यापिका कुमारी मार्सेला शेरवूड साईकिल पर अपने मिशनरी स्कूली छात्राओं को सुरक्षित बचाने हेतु घूम रही थीं। तभी रोलेट एक्ट के विरोधी प्रदर्शनकारियों ने कूचा कुर्रीछान की गली में उसे मारा। कुछ भारतीयों ने इस गोरी युवती को बचाकर छावनी पहुंचा दिया। वहाँ जनरल रेजिनाल्ड डायर कमांडर था। श्वेतान्गिनी मास्टरनी पर आघात का बदला इन अश्वेतों और हिन्दुस्तानियों से लेने का संकल्प उसने तभी लिया। जनरल डायर ने उस स्थल को स्मरणीय बनाया जहाँ भारतीयों ने कुमारी मार्सेला को घायल किया था। उस सड़क से जो भी भारतीय गुजरता था उसे पेट के बल दो सौ गज रेंगकर (19 अप्रैल से 25 अप्रैल 1919 तक) जाना पड़ता था। फिर हुआ जालियांवाला बाग में बैसाखी पर उत्सव। इस पर यहां कवि प्रदीप की पंक्तियां याद आती हैं जिसमें इस शहीद उद्यान का सजीव चित्रण है : “जलियाँवाला बाग ये देखो यहीं चली थी गोलियां। ये मत पूछो किसने खेली यहाँ खून की होलियां ? एक तरफ़ बंदूकें दन दन, एक तरफ़ थी टोलियां। मरनेवाले बोल रहे थे इंक़लाब की बोलियां। यहां लगा दी बहनों ने भी बाजी अपनी जान की। इस मिट्टी से तिलक करो ये धरती है बलिदान की। वंदे मातरम, वंदे मातरम।” बस इसीलिए यह युवा जसवंत सिंह गोरों का घमंड घटाना चाहता था। माँ को वंदे !
(लेखक IFWJ के नेशनल प्रेसिडेंट व वरिष्ठ पत्रकार/स्तंभकार हैं)