लेखक~नीरज सिंह
♂÷बचपन में होली का जो नजारा हमारे मोहल्ले और गांवों में देखने को मिलता था। अब वो नजारे बीते जमाने की बात सी लगने लगी है। होलिका की रात से मन बैचेन हो जाता था और रंग हाथाें से चेहरे पर आने के लिए थिरकने लगाते थे। बाजारों में तो एक सप्ताह पहले से ही होली का माहौल दिखने लगता था। घरों में नमकीन, गुझिया और पापड़ के साथ ही अन्य व्यंजन बनाने का सिलसिला शुरू हो जाता था।
♀रंग-ए-होली
होलिका जलते ही रंग-गुलाल उड़ने लगते थे। मुख्य चौराहों से लेकर लगभग हर मोहल्ले में मटका फोड़ प्रतियोगिता भी होती थी। होली की सुबह होते ही छतों और बारजों पर खड़े छोटे-छोटे बच्चे पिचकारियों से हर आने जाने वाले रंगने की कोशिश में जुट जाते थे। हमारे मोहल्ले में तो बच्चों की पूरी सेना घर के बार्डर पर खड़े होकर रंग-ए-होली का एलान कर देते थे। पैदल हो या साइकिल सवार, बाइक हो या कार सवार हर किसी के आने की आहट मिलते ही उनकी आंखें सजग और हथियार यानी पिचकारी अलर्ट हो जाती थी। टारगेट पास आते ही रंगोें की बौछार से शिकार धराशायी। पैदल वालों तो बड़े गले लगाते तो बच्चे पीछे से रंग लगाने में लग जाते थे।
♀मस्तानी टोली
करीब हर मोहल्ले से म्यूजिक सिस्टम और रंगों से लदा हुआ रथ तैयार किया जाता था। किशोरावस्था पार कर चुके युवाओं की टोली होली के गानों पर झूमते हुए शहर के भ्रमण पर निकल जाते थे। लोगों से मिलने-जुलने निकली इस टीम का स्वागत हर जगह व्यंजनों से होता था। दोपहर बाद यह टीम वापसी करती और पतला दिखने वाले इंसान की तोंद शर्ट से बाहर झंकने पर मजबूर हो जाती थी। जाहिर सी बात है कि हर जगह व्यंजन का स्वाद चखने में ही पेट भर जाता था।
÷लेखक दैनिक जागरण लखनऊ में वरिष्ठ पत्रकार हैं÷