मुस्लिम समाज को इस तरह के नैरेटिव से बाहर आने की जरूरत है। प्रधानमंत्री की अपील के बावजूद क्या ऐसा लगता है कि भारतीय मुसलमान आत्ममंथन करेंगे और जो पार्टियां उन्हें वोट के तौर पर देखती हैं, वे उन्हें ऐसा करने देंगी?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश के मुसलमानों से अपील की है कि वे अपने व्यवहार पर आत्ममंथन करें। प्रधानमंत्री अगर लोकसभा चुनाव के बीच देश के दूसरे सबसे बड़े समुदाय से ऐसी अपील करते हैं तो इसे निश्चय ही गंभीरता से लिया जाना चाहिए। उन्होंने मुसलमानों को ‘आत्मचिंतन’ करने की अपील की और नसीहत भी। यह पहला मौका है कि देश के प्रधानमंत्री ने मुसलमानों से किसी पार्टी का वोट बैंक या बंधक बनने के बजाय खुले दिमाग से सोचने की नसीहत दी है। प्रधानमंत्री मोदी का मानना है कि एक सीधी लकीर की तरह वोट देना और वह भी हिंदू वर्चस्व या हिंदू-विरोध के नाम पर भाजपा जैसे राष्ट्रवादी दलों के खिलाफ मुसलमानों का वोट करना एक गलत और पूर्वाग्रही ट्रेंड है।
पहले जनसंघ और बाद में भाजपा बुनियादी और वैचारिक तौर पर हिंदूवादी पार्टी रही है। यह दीगर है कि अच्छी तादाद में मुसलमान पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के दौर में भी भाजपा को वोट देते थे और आज प्रधानमंत्री मोदी के सूत्रवाक्य-‘सबका साथ, सबका विकास…’ का समर्थन करते हुए 08 – 10 फीसदी मुसलमान भाजपा के पक्ष में वोट कर रहे हैं, लेकिन वह कभी भी ‘निर्णायक’ साबित नहीं हुआ। यकीनन देश की आजादी के बाद कांग्रेस अधिकांश समय सत्तारूढ़ रही। 1951 से 1975 तक तो कांग्रेस को कोई चुनौती ही नहीं थी, लिहाजा उसने अपनी चुनावी रणनीति के तहत मुसलमानों को ‘वोट बैंक’ की तरह बांधे रखा और दलितों, आदिवासियों, कुछ पिछड़ी जातियों में भी कांग्रेस ने जनाधार बनाए रखा।
कोई चाहे इसे किस रूप में भी देखे, स्वतंत्रता के बाद से पहले कांग्रेस और बाद में ज्यादातर पार्टियों ने वोट के लिए मुसलमानों के बीच जनमत को विकृत किया। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि मुसलमानों और ईसाइयों में शिक्षित वर्ग ने कभी इसका मूल्यांकन नहीं किया कि ऐसा क्यों है ? कांग्रेस और उसके बाद अन्य कई पार्टियों ने उनके अंदर डर पैदा कर वोट तो लिया, पर उनके उत्थान, वास्तविक कल्याण या विकास के लिए जो करना चाहिए, वह नहीं किया गया। ऐसे-ऐसे मुद्दे पार्टियों और सरकारों ने उठाए और उन पर काम किया, जो भावनात्मक रूप से उनको छूते थे या उनके समाज में यथास्थिति को बनाए रखने वाले थे, जो उनके सामाजिक आर्थिक सांस्कृतिक विकास में बाधक थे।
हालांकि केंद्र में वाजपेयी सरकार के 6 साल और मोदी सरकार के 10 साल के अलावा या तो कांग्रेस सत्ता में रही है अथवा बाहरी समर्थन से लडख़ड़ाती सरकारें बनवाई हैं। दरअसल जब कांग्रेस से अलग होकर या उसका विरोध करते हुए क्षेत्रीय दलों के उभार का दौर आया, तो मुसलमान सपा, बसपा, राजद और तृणमूल कांग्रेस आदि क्षेत्रीय दलों की ओर भी ध्रुवीकृत हुए। नतीजतन मुस्लिम वोट बंटते रहे हैं, लेकिन मुस्लिम आज भी मानसिक तौर पर कांग्रेस के साथ हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने ‘आत्मचिंतन’ की नसीहत इसलिए दी है, ताकि मुसलमान सोच सकें कि जिन्होंने उन्हें वोट बैंक का बंधक बनाए रखा, उन्होंने आखिर क्या दिया है?
इस चुनाव में मुसलमानों के अंदर यह भय पैदा किया जा चुका है कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा सत्ता में लौटी तो भारत में इस्लाम के लिए कयामत आ जाएगी, उनकी लाखों मस्जिदें गिरा दी जाएंगी, उनको नमाज पढ़ने तक से वंचित किया जाएगा तथा वे अपनी इच्छा अनुसार इस्लामी मजहब का पालन भी नहीं कर सकेंगे। यह पहला चुनाव है जहां मुसलमानों के अगुवा माने जाने वाले व्यक्तियों के बड़े समूह ने भाजपा को वोट न देने को दीन और ईमान का विषय बना दिया है। यही हाल ईसाइयों का है, चर्च और धर्म प्रचारकों का मानना है कि इस बार सत्ता में आने के बाद मोदी सरकार धर्मप्रचार पर रोक लगा देगी।
प्रधानमंत्री का यह कथन उचित है कि मुसलमानों को सोचना चाहिए कि उन्हें क्या मिला ? इसी संदर्भ में प्रधानमंत्री मोदी ने 1992 के कथित बाबरी मस्जिद विध्वंस, 2002 के गोधरा सांप्रदायिक दंगों का जिक्र किया है। किसी प्रधानमंत्री ने शायद यह भी पहली बार कहा है कि यदि एक सांप्रदायिक वृत्तांत गढऩे की कोशिश न की गई होती और मुसलमानों के रहनुमा बनकर अपने खेमे में बांधे रखने की सियासत नहीं की गई होती, तो ये दोनों दौर उतने भयावह न होते ! उप्र के मुख्यमंत्री के तौर पर मुलायम सिंह को ‘रामसेवकों’ पर गोलियों की बौछार नहीं करनी पड़ती ! प्रधानमंत्री ने तीन तलाक से लेकर शाहबानो तक के संदर्भ भी उठाए हैं। ‘सच्चर कमेटी’ के निष्कर्षों का भी जिक्र किया, लेकिन रंगनाथ मिश्रा आयोग का हवाला देना भूल गए अथवा उसे जरूरी नहीं समझा। उसी आयोग ने अनुशंसा की थी कि धार्मिक आधार पर भी आरक्षण दिया जा सकता है।
भारतीय मुसलमानों के अगुवा वर्ग की एप्रोच सही होती तो उनकी मानसिकता बदलती और नरेंद्र मोदी सरकार दुश्मन नहीं नजर आती। इस सरकार के कार्यकाल में पंथ, मजहब, जाति या रंग के आधार पर सरकारी नीतियों में किसी तरह के भेदभाव का एक भी प्रमाण नहीं है। सच यह है कि भारतीय मुसलमानों को हिंदुओं की तुलना में आबादी के प्रतिशत से ज्यादा लाभ सरकार की योजनाओं का मिला है।
प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि मुसलमान समाज दुनिया में बदल रहा है। यह बदलाव सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, बहरीन आदि देशों में साफ दिखाई पड़ता है। खाड़ी के देशों में योग की ओर मुसलमानों का आकर्षण है लेकिन भारतीय मुसलमानों ने योग को ही इस्लाम विरुद्ध मान लिया। सऊदी अरब में योग सरकारी सिलेबस का विषय है। शरीयत के अनुसार चलने वाले शासन के मुल्कों में भी अनेक ऐसे हैं, जिन्होंने तीन तलाक को गैर-इस्लामी घोषित किया हुआ है। अनुच्छेद 370 का इस्लाम से क्या लेना-देना था? जम्मू-कश्मीर तो छोड़िए, देश भर के मुसलमानों का एक बड़ा वर्ग इसे लेकर छाती पीट रहा है। गौ हत्या निषेध मुसलमान के विरुद्ध कदम कैसे हो गया? समान नागरिक संहिता में किसी मजहबी कर्मकांड पर रोक नहीं है। लंबे समय से मुसलमानों के दिमाग में बिठा दिया गया कि समान नागरिक संहिता इस्लाम के विरुद्ध है।
मुस्लिम समाज को इस तरह के नैरेटिव से बाहर आने की जरूरत है।
प्रधानमंत्री की अपील के बावजूद क्या ऐसा लगता है कि भारतीय मुसलमान आत्ममंथन करेंगे और जो पार्टियां उन्हें वोट बैंक के तौर पर देखती हैं, वे उन्हें ऐसा करने देंगी?
(साभार लेख)