लेखक-अरविंद जयतिलक
♂÷जी-20 शिखर सम्मेलन में अतिथियों के लिए जिस स्थान पर रात्रिभोज का आयोजन हुआ उसकी पृष्ठभूमि में बिहार के नालंदा विश्वविद्यालय का भग्नावशेष सहज ही लोगों का मन मोह रहा था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अतिथियों का स्वागत के साथ-साथ उन्हें नालंदा विश्वविद्यालय की सारगर्भित ऐतिहासिकता और उपादेयता से भी अवगत करा रहे थे। अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन हों अथवा ब्रितानी प्रधानमंत्री ऋषि सुनक सभी नालंदा विश्वविद्यालय की हजारों वर्ष पुरानी शिक्षण प्रणाली की गौरवगाथा सुनकर आश्चर्यचकित थे। प्रधानमंत्री मोदी ने अतिथियों को बताया कि यह विश्वविद्यालय पांचवी सदी से 12 वीं सदी के बीच अस्तित्व में था। इसकी विरासत महावीर और बुद्ध के युग से चली आ रही है। सच कहें तो प्रधानमंत्री मोदी ने जी-20 शिखर सम्मेलन में सांस्कृतिक प्रतीकों को दर्शा कर भारतीय विरासत और उसके मूल्यों को जीवंत कर दिया। विशेषकर नालंदा विश्वविद्यालय जो कि वसुधैव कुटंबकम का महान केंद्र रहा। इतिहास के गर्भ में जाएं तो बौद्ध शिक्षा केंद्र नालंदा विश्वविद्यालय की एक गौरवमयी पृष्ठभूमि रही है। 5 वीं से 7 वीं शताब्दी के मध्य यह विश्वविद्यालय अपनी ज्ञान ज्योति से संपूर्ण संसार को आलोकित करता रहा। लेकिन कालांतर में वैष्णव धर्म का उत्थान, विश्वविद्यालय को मिलने वाली अनुदान में कमी और विदेशी आक्रमणों ने शिक्षा के इस महान केंद्र को धूल-धुसरित कर दिया। भौगोलिक रुप से नालंदा विश्वविद्यालय दक्षिणी बिहार स्थित राजगिरि के समीप है। इसके ध्वंसावशेष आज भी बड़ागांव ग्राम तक फैले हुए हैं। ऐसा माना जाता है कि नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना बौद्ध संन्यासियों द्वारा की गयी थी जिसका मूल उद्देश्य एक ऐसे स्थान की स्थापना करना था जो ध्यान व अध्यात्म के लिए उपयुक्त हो। ऐसा माना जाता है कि महात्मा बुद्ध ने नालंदा की कई बार यात्रा की थी। बहरहाल इस विश्वविद्यालय का निर्माण कब हुआ इसे लेकर विद्वानों में एक राय नहीं है। लेकिन ऐतिहासिक दस्तावेजों से जानकारी मिलती है कि इस विश्व प्रसिद्ध विश्व विद्यालय की स्थापना गुप्तवंशी शासक कुमारगुप्त ने की थी। चीनी यात्री ह्वेनसांग एवं अन्य बौद्ध यात्रियों ने अपने विवरणों में सम्राट कुमारगुप्त को इस विश्वविद्यालय का संस्थापक बताया है। नालंदा के उत्खनन से प्राप्त मुद्राओं से भी इसकी पुष्टि होती है। इस विश्वविद्यालय की अति प्राचीनता पर किसी को शक नहीं है। इसके प्रमाणिक साक्ष्य उपलब्ध हैं। गुप्तवंशी शासक कुमार गुप्त (414 से 455) द्वारा इस बौद्ध शिक्षा केंद्र को दान दिए जाने का उल्लेख मिलता है। चीनी यात्री ह्नेनसांग ने अपने विवरण में लिखा है कि 470 ई0 में गुप्त सम्राट नरसिंह गुप्त बालादित्य ने नालंदा में एक सुंदर मंदिर निर्मित करवाकर इसमें 80 फीट ऊंची तांबे की बुद्ध प्रतिमा को स्थापित करवाया। चीनी यात्री इत्सिंग के विवरण से भी नालंदा विश्वविद्यालय के बारे में भरपूर जानकारी मिलती है। उसने इसकी विशालता का उल्लेख करते हुए यहां छात्रों की संख्या 3000 बताया है। इत्सिंग के विवरण में नालंदा के अलावा विक्रमशिला विश्वविद्यालय का भी जिक्र है। 8 वीं शताब्दी में पालवंशीय शासक धर्मपाल द्वारा बिहार प्रांत के भागलपुर में विक्रमशीला विश्वविद्यालय की स्थापना की गयी। पूर्व मध्यकालीन भारत में इस विश्वविद्यालय का महत्वपूर्ण स्थान था। इस विश्वविद्यालय के सर्वाधिक प्रतिभाशाली भिक्षु दीपंकर ने 200 गं्रथों की रचना की। जिस समय चीनी यात्री ह्नेनसांग नालंदा विश्वविद्यालय में शिक्षा ग्रहण कर रहा था, उस समय विद्यार्थियों की संख्या करीब 10000 और शिक्षकों की संख्या 1500 थी। ऐसा कहा जाता है कि यहां के पुस्तकालय में हजारों की संख्या में पुस्तकें एवं संस्मरण उपलब्ध थे। इस पुस्तकालय की विशालता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इसमें लगी आग को बुझाने में छः महीने से अधिक का समय लग गया था। उल्लेखनीय है कि तुर्क शासक बख्तियार खिलजी ने 1199 ई में इस विश्वविद्यालय में आग लगवा दी। कहा जाता है कि इस विश्वविद्यालय में इतनी पुस्तकें थी कि पूरे तीन महीने तक यहां आग धधकती रही। अनेक धर्माचार्यों और शिक्षकों की हत्या कर दी गई। चीनी यात्राी ह्नेनसांग कन्नौज के राजा हर्षवर्धन के शासनकाल में जब भारत आया तो उसने लगभग 6 वर्षों तक नालंदा विश्वविद्यालय में अध्ययन किया। उसके ग्रंथ सी-यू-की से तत्कालीन भारतीय समाज व संस्कृति के बारे में भरपूर जानकारी मिलती है। ह्नेनसांग नालंदा विश्वविद्यालय शिक्षक परिवार का हिस्सा भी था। कहा जाता है कि वह अपने साथ भारत से कोई 150 बुद्ध के अवशेषों, सोने, चांदी, व संदल द्वारा बनी बुद्ध की मूर्तियां और 657 पुस्तकों की पाण्डुलिपियों को ले गया था। यह भगवान बुद्ध में उसकी आस्था का प्रमाण है। महान विद्वान शीलभद्र नालंदा विश्वविद्यालय के कुलपति थे। उन्होंने अपने ज्ञानपूंज से नालंदा विश्वविद्यालय को जगत प्रसिद्ध किया। ह्नेनसांग ने अपने विवरण में अपने समय के महान विद्वान शिक्षकों- धर्मपाल, चंद्रपाल, गुणपति, स्थिरमति, प्रभामित्र, जिनमित्र, आर्यदेव, दिगनाग और ज्ञानचंद्र इत्यादि का उल्लेख किया है। ये शिक्षक अपने विषयों के साथ-साथ अन्य विषयों में भी पारंगत, निपुण और ज्ञानवान थे। नागार्जून, असंग, वसुबंधु जैसे महान बौद्ध महायानी इसी विश्वविद्यालय की उपज थे। असंग की महायान सूत्रालंकार, वसुबन्धु का अभिधर्म कोश और नागार्जुन की दिव्यावदान, महावस्तु, मंजूश्रीमूलकल्प, प्रज्ञापारमिता, शतसाहस्त्रका और माध्यमिका सूत्र जैसी रचनाएं नालंदा विश्वविद्यालय के ज्ञान की ही देन है। नालंदा विश्वविद्यालय में बौद्ध धर्म एवं दर्शन के अतिरिक्ति न्याय, तत्वज्ञान, व्याकरण एवं विज्ञान की भी शिक्षा दी जाती थी। वस्तुतः नालंदा विश्वविद्यालय के अधिकतर छात्र तिब्बतीय बौद्ध संस्कृतियों वज्रयान और महायान से संबंद्ध थे। विश्वविद्यालय प्रशासन जितना कठोर था, शिक्षा को लेकर उतना ही जागरुक, संवेदनशील और सतर्क था। यह इसी से समझा जा सकता है कि प्रवेश के इच्छुक विद्यार्थियों को पहले द्वारपाल से वाद-विवाद करना पड़ता था और फिर उसमें उत्तीर्ण होने पर ही उन्हें प्रवेश मिलता था। छात्रों को रहने के लिए छात्रावास की सुविधा उपलब्ध थी। इत्सिंग के लेखन के अनुसार यहां होने वाले चर्चाओं में सभी की भागीदारी आवश्यक थी। सभा में मौजूद सभी लोगों के फैसले पर संयुक्त रुप से आम सहमति की आवश्यकता होती थी। विश्वविद्यालय के संचालन के लिए राजाओं द्वारा विशेष अनुदान दिया जाता था। लेकिन विश्वविद्यालय के संचालन में उनका किसी तरह का हस्तक्षेप नहीं था। आश्चर्य यह कि बौद्ध धर्म न अपनाने वाले शासक भी इस विश्वविद्यालय को भरपूर अनुदान देते थे। यह शिक्षा के प्रति उनकी अनुरक्ति को ही रेखांकित करता है। विश्वविद्यालय को सुचारु रुप से चलाने के लिए हर्षवर्धन ने 200 ग्रामों का अनुदान दिया था जिससे पर्याप्त राजस्व प्राप्त होता था। वैष्णव धर्म के अनुयायी गुप्त शासक भी नालंदा विश्वविद्यालय को भरपूर अनुदान देने में अपना गौरव समझते थे। नालंदा विश्वविद्यालय का प्रांगण बहुत बड़ा था। उत्खनन से प्राप्त अवशेषों से जानकारी मिलती है कि विश्वविद्यालय में व्याख्यान हेतु छोटे-बड़े कई कमरे थे। पुरातत्वविदों का निष्कर्ष है कि यहां 7 बड़े और तकरीबन 300 से अधिक छोटे कक्ष थे। शैलेन्द्र शासक बालपुत्र देव द्वारा तत्कालीन मगध के राजा देवपाल की अनुमति से नालंदा में जावा से आए भिक्षुओं के निवास के लिए एक विहार के निर्माण का भी उल्लेख है। इस अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त विश्वविद्यालय में भारत के अलावा जावा, चीन, तिब्बत, श्रीलंका, एवं कोरिया के विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करने आते थे। विद्यार्थियों के बीच बौद्ध दर्शन के अलावा अन्य विषयों इतिहास, भूगोल, तर्कशास्त्र और विज्ञान पर भी वाद-विवाद होता था। लेकिन बौद्ध धर्म की महायान शाखा का विशेष रुप से अध्ययन-अध्यापन होता था। शिक्षा पालि भाषा में दी जाती थी। यहां हस्तलिखित ग्रंथों का एक नौ मंजिला ‘धर्मगज’ नामक पुस्तकालय था जो तीन बड़े भवन रत्नसागर, रत्नोदधि और रत्नरंजक नाम से विभाजित था। समय की जानकारी के लिए जलघड़ी का उपयोग होता था। इसके अलावा भी कई ऐसे वैज्ञानिक व सांस्कृतिक तथ्य हैं जो नालंदा विश्वविद्यालय की उत्कृष्टता का बोध कराते हैं। वर्ष 2005 में तत्कालीन राष्ट्रपति डा0 एपीजे अब्दुल कलाम ने इस प्रतिष्ठित संस्थान को पुनस्र्थापित करने का विचार दिया। अच्छी बात है कि विगत वर्षों से शैक्षिक सत्र की शुरुआत हो चुकी है और देश-विदेश के छात्र अध्ययन कर रहे हैं। यूनेस्को ने इसे वैश्विक धरोहरों में शामिल कर इसकी गरिमा में चार चांद लगा दी है। इससे न सिर्फ ऐतिहासिक विरासत को सहेजने में मदद मिल रही है बल्कि इसके जरिए दक्षिण-पूर्व एशिया में सामाजिक और सांस्कृतिक विकास को सुनिश्चित करने और संबंधों को पुर्नस्थापित करने में भी मदद मिल रही है। जी-20 शिखर सम्मेलन में यह विश्वविद्यालय पुनः जीवंत हो उठा है।

÷लेखक राजनीतिक व सामाजिक विश्लेषक हैं÷