लेखक-ओम लवानिया
इनका परिचय इनके किरदार देते है और अभिनय उन्हें लिखता है। 70एमएम पर इसकी लिखावट ऐसी कि टाइगर मेनन के साथ पवन मल्होत्रा के अभिनय स्किल्स को देखकर दाऊद इब्राहिम ने मिलने बुलाया था। किंतु इन्होंने मना कर दिया था।
पवन मल्होत्रा को कोई फर्क नहीं पड़ता है कि इनके किरदार की लेंग्थ कितनी है, मायने रखता कि उसकी कहानी के साथ डेप्ट कैसी और कहानी क्या डिमांड कर रही है। किरदार ही दर्शकों के बीच आने की सीढ़ियाँ बनाते है और अभिनेता किस स्केल के अभिनय स्किल्स पहनकर उन्हें चढ़ता है।
हाल में जियो की पेशकश पिल में ब्रह्मा गिल से मिलते पवन को देखा, ड्रग इंडस्ट्री के डेविल अर्थात् माफिया के जिस अंदाज में हाव-भाव दिखलाए है अद्भुत, उम्दा है। पूरी सीरीज में अकेले किरदार से जान फूँक देते है। दर्शक को यकीन दिलवा देते है कि वाकई ड्रग में ऐसे ही दरिंदे है जिन्हें सिर्फ प्रॉफिट दिखता है। बाकी कुछ नजर नहीं आता है। महत्वपूर्ण बात है कि काफी बारीकी से किरदार और कहानी के कनेक्शन को समझते है। इसकी बानगी फेसिअल एक्सप्रेशन में देखें।
ब्रह्मा गिल, अपनी माँ, ऑफिस टीम और डॉक्टर बासु के साथ, साथ ही आशीष खन्ना के बीच इंटरैक्शन को ध्यान से देखेंगे तो गिल की थीम दिखेगी।
जब भी पवन ने गिल को स्क्रीन पर फेंका है, सीक्वेंस में वजन बढ़ा है। भले माँ के साथ उनके द्वारा पिता की फिजूल लगती बातें हो, किरदार को डिफाइन करती है। बाहर मौत बेचकर लाभ कमाने में शिकन तक नहीं है किंतु माँ के ख्याल में चिंता के भाव है।
पवन का फिल्मी सफर तकनीकी परिवेश से होकर निकला है लेकिन जब स्टेज पर पहुँचे है तब दर्शकों के दिमाग में अपना किरदार डालने में कतई सफल हुए है। बाघ बहादुर और सलीम लंगड़े पर मत तो, में राष्ट्रीय पुरस्कार से सुशोभित कला दिखाई थी। तब सभी हैरान हो चले थे।
इन्होंने हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री पर बहुत मार्के की बात कही थी कि कई हीरोज को का, की में अंतर नहीं मालूम और डायलॉग भी भूल जाते है बल्कि याद नहीं कर सकते है। मेरे द्वारा उनके संवाद बोलने के बावजूद नहीं बोल सके। जबकि मुझसे अधिक फी ले रहे थे। परंतु जब फ़िल्म आती है तब माहौल उनका बनाया जाता है।
ऐसे वाक़ये तो कई कलाकारों ने दर्ज करवाए है इसलिए तो देखिए, मनोज वाजपेयी, नवाजुद्दीन सिद्दीक़ी, पंकज त्रिपाठी, राजकुमार राव आदि ने भी पीआर वाला मामला शुरू कर दिया है। ताकि सोलो कंटेंट में दर्शक इनके प्रिजेंस से फिल्म देखें। वरना पहले बॉक्स ऑफिस में इन ऐक्टर्स की फिल्में औसत को छूती थी। अब बॉक्स ऑफिस हो या ओटीटी अच्छा बज बनता है।
इसलिए कमर्शियल हीरोज दमदार कलाकारों को कास्ट नहीं करते है। क्योंकि इससे उनकी लाइम लाइट को खतरा है। डिजिटल युग से पहले ऐसा कोई डेंजर जोन न था, हीरोज के इंटरव्यूज होते थे। कलाकारों को विविध भारती या अन्य एफएम चैनल वाले बुलाया करते थे।
पवन के कई किरदार यानी कंटेंट अभी वॉच लिस्ट में पेडिंग है, समय के साथ देखें जाएँगे। 1984 में पुलिस इंस्पेक्टर तो ऐसा उतारा कि घिन आने लग जाए।
(लेखक फ़िल्मी समीक्षक हैं)