★मुकेश सेठ★
★मुम्बई★
काशी में ही पहली बार भक्त प्रह्लाद और होलिका की मूर्ति स्थापना कर होलिका दहन की हुई थी शुरुआत
काशी में चिता के भस्म से तो बरसाना में लट्ठमार होली और कानपुर के मिश्रिख में राक्षसों के संहार के लिए अस्थियां दान करने वाले महर्षि दधीचि कुण्ड पर मेले में होलिका दहन के पूर्व घण्टो होती है आतिशबाजी
जानिए कानपुर, बनारस, ब्रज और सीतापुर में होली मनाने की सदियों से चलती आ रही परम्परा की
♂÷रंगोत्सव का त्योहार होली का पर्व आज देश के अधिकतर हिस्सों में हर्ष और उल्लास पूर्वक मनाया जा रहा है है। इस पर्व में रंगों का अलग ही क्रेज होता है। होली के दिन इसकी धूम नजर आ रही है, घरों-दुकानों, प्रतिष्ठानों में तैयारियां हो चुकी है। इस पर्व का उत्साह हिलोरे मार रहा है। होली में एक-दूसरे को रंग लगाकर रंगों की तरह ही लोग रिश्तों में भी रंग-बिरंगी यादों को संजोने की कोशिश करते हैं। दरअसल, देखा जाए तो खुशियों के ये पर्व यही संदेश लेकर आते भी हैं।
इस बार 8 मार्च को होली मनाई जा रही है। यूपी के अलग-अलग शहरों में इसको लेकर धूम दिखने लगी है, लेकिन बाबा विश्वनाथ के त्रिशूल पर टिकी दुनियां की सर्वाधिक प्रचीन नगरी और प्रधानमंत्री नरेन्द्र दामोदर दास मोदी के दो बार से बनारस लोकसभा क्षेत्र में यूं तो अड़भंगी होली प्रसिद्ध है तो वहीं मणिकर्णिका के शवदाह घाट पर रंग एकादशी के दिन चिता के भस्म से खेली जाने वाली अजूबी होली संसार भर में सुप्रसिद्ध है।वह इसलिए कि चिता के राख से होली खेलने के लिए साधु,सन्यासी, अघोरी के साथ ही महादेव के भक्त भूत पिशाच, नन्दी बैल समेत तमाम रूप धर होली खेलते हैं।इस चिता भस्म होली को देखने के लिए देश दुनियां से भारी संख्या में लोग शामिल होते हैं।
उधर क्रांतिकारियों की धरती कही जाने वाली उत्तर प्रदेश प्रदेश के कानपुर की नगरी, मथुरा के शहर बरसाना और नंदगांव की होली का अपना अलग ही महत्व है।
इन शहरों की होली अपने आप में स्वर्णिम यादों को समेटे है। यही नहीं, राजधानी लखनऊ से सटे सीतापुर के 84 कोसी परिक्रमा और मिश्रिख की पंचकोसी परिक्रमा की भी अद्भुत, अविस्मरणीय और अलौकिक स्मृतियां हैं, जो हजारों हजार सालों से एक तरह से जीवंत बनी हुई हैं। यहां होली में दीवाली जैसा सतरंगी नजारा देखने को मिलता है। तो आज बात उत्तर प्रदेश के इन चारों शहरों में मनाई जाने वाली होली की करेंगे, लेकिन उससे पहले आइए बात होली के रंगों की कर लेते हैं। आपको बता दें कि हर रंग का अपना महत्व है और इसका हमारे जीवन में भी गहरा असर पड़ता है। जी हां, अलग-अलग ये रंग हमारे तन-मन पर क्या असर डालते हैं, आइए आपको पहले इससे रूबरू करा देते हैं। लाल रंग का इस्तेमाल शुभ अवसरों पर किया जाता है। लाल रंग में जोश, उल्लास, शुद्धता छिपी हुई है। ये रंग अग्नि का भी सूचक है। उर्जा, गर्मी और जोश भी देता है। इसीलिए होली में इस रंग का प्रयोग सबसे ज्यादा होता है। अब बात हरे रंग की करते हैं। ये रंग शीतलता, सुकून और सकारात्मकता का संदेश देता है। ये रंग अपनों से बड़े को जरूर लगाया जाता है। नारंगी रंग प्रसन्नता और सामाजिकता का प्रतीक है, इससे मानसिक शक्ति भी बढ़ती है। पीला रंग देवताओं को लगाया जाता है। ये रंग रोशनी का सूचक है। ये रंग समृद्धि और यश को प्रदर्शित करता है। नीला रंग शांति, गंभीर और स्थिरता का प्रतीक है। तो हमने आपको रंगों के महत्वों को बताया। अब बात होली के महत्व को लेकर करते हैं। वैसे होली का पर्व तो एक जैसा ही होता है, लेकिन इसके मनाने के लोगों की अपनी-अपनी परंपराएं हैं। लोग इसको तरह-तरह के अंदाज से बनाते हैं। सबसे पहले बात क्रांतिकारियों की धरती कानपुर में मनाई जाने वाली होली की करते हैं। कैसे यहां होली मनाने की परंपरा है।दरअसल, देश-दुनिया में बहुत सी क्रांतियां हुईं, लेकिन रंग खेलकर बगावत की परंपरा औद्योगिक नगरी कानपुर ने डाली है।
विदित हो कि ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ लोगों में आक्रोश और विरोध तो था ही, लेकिन भारतीयता के प्रति अगाध स्नेह और सौहार्द भी चरम था। बस, उसी बगावत की याद में आज भी यहां होली के सात दिन बाद गंगा मेला के दिन हटिया मोहल्ले से रंगों का ठेला निकलता है। रंगों से सराबोर संकरी गलियों में अपनत्व के फूल बरसते हैं। शाम को सरसैया घाट किनारे शहर के सबसे बड़े होली मिलन समारोह में गंगा-जमुनी तहजीब मुस्कुराती नजर आती है। आपको बता दें कि पहले हटिया ही कानपुर का हृदय हुआ करता था। व्यापारियों के यहां स्वाधीनता के दीवाने और क्रांतिकारी डेरा जमाते, आंदोलन की रणनीति बनाते और उन्हें अंजाम देकर अंग्रेजों को नाकों चने चबवाने को मजबूर करते थे। हटिया के गुलाबचंद सेठ हर साल होली पर विशाल आयोजन करते थे। साल 1942 में होली के दिन अंग्रेज अधिकारी आए और आयोजन बंद करने को कहा। बताते हैं कि गुलाबचंद सेठ ने इससे साफ इन्कार किया तो गुस्साए अंग्रेज अधिकारियों ने गुलाबचंद को गिरफ्तार कर लिया। इसके विरोध पर जागेश्वर त्रिवेदी, पं. मुंशीराम शर्मा सोम, रघुबर दयाल, बालकृष्ण शर्मा नवीन, श्यामलाल गुप्त पार्षद, बुद्धूलाल मेहरोत्रा और हामिद खां को भी गिरफ्तार कर सरसैया घाट जेल में बंद कर दिया। इन गिरफ्तारियों ने जनआक्रोश को भड़का दिया। शहर के लोगों ने एक अलबेला आंदोलन छेड़ दिया, इसमें स्वतंत्रता सेनानी भी जुड़ते गए। हिंदू-मुस्लिम सभी मिलकर हटिया ही नहीं, शहर के अलग-अलग हिस्सों में बस होली ही खेल रहे थे, लेकिन लोगों की माने तो विरोध का ये तरीका अंग्रेजों को डराने का बड़ा हथियार बना। घबराए अंग्रेज अफसरों को गिरफ्तारी के आठवें दिन ही लोगों को छोड़ना पड़ा। ये रिहाई अनुराधा नक्षत्र के दिन हुई। फिर क्या था, होली के बाद अनुराधा नक्षत्र का दिन कानपुर के लिए त्योहार का दिन हो गया। ये परंपरा वाकई में अपने आप स्वर्णिम यादों को समेटे हैं। उस दौर के उन लोगों की वीरता, साहस और पराक्रम को भी रंगों का ये पर्व याद दिलाता है, जब गोरों की हुकूमत के खिलाफ लोगों ने आवाज बुलंद की। कैसे उनकी बुलंद आवाज उनके लिए बड़ा हथियार बन गई, जिसके आगे ब्रिटिश हुकूमत को भी झुकना पड़ा। अब बात बाबा विश्वनाथ की नगरी बनारस यानी की काशी की करते हैं। यहां की होली की यादें अमिट हैं। परंपराओं की जड़ को खुली सोच की नई धारा से सींचती काशी की होली के मस्ती की कहानी बहुत अलग सी है।पर्यावरण असंतुलन के मद्देनजर जब पेड़ों की कटान विश्वव्यापी चिंता का विषय बना हो, होलिका के नाम पर हजारों टन वन संपदा की आहुति के औचित्य को लेकर पूरे शहर में एक विमर्श का दौर चल रहा है। ऐसे में पर्वाेत्सवों की नगरी काशी की इस होलिका का नजीर बन जाना स्वाभाविक ही है, जो सादगी और शुद्धता के आंचल में बसी ये नगरी बरबस ही लोगों का ध्यान खींचती है। काशी की घनी बस्ती सोनारपुरा से लेकर हरिश्चद्र तिराहे तक के नागरिकों ने बीते कई वर्षों से होलिका में लकडिय़ों की आहुति देने की बजाय गोबर से बने कंडे की होलिका जलाने का प्रयास शुरू किया है। आयोजन कर्ता-धर्ताओं की माने तो पेड़ों को तहस-नहस करने की प्रवृत्ति को बढ़ावा न मिले, इस सावधानी के तहत होलिका के आकार को लेकर कभी किसी तरह की होड़ को बढ़ावा नहीं दिया। बुजुर्गों की सलाह पर बस्ती के नौजवानों ने गोबर के कंडे की होलिका को विकल्प के रूप में आजमाया और परिणाम जन स्वीकार्यता के रूप में सामने आने लगा। भावनाओं की अभिव्यक्ति को मुखरता देने के लिए होलिका दहन के मौके पर होलिका और भक्त प्रहलाद की प्रतिमाओं की स्थापना को भी आयोजन के प्रमुख अंग के रूप में स्वीकार कर इसे एक अनूठे अनुष्ठान का रूप दे दिया गया है। यहां के चेतगंज, भोजूबीर, नाटीइमली व अन्य कई स्थानों पर कंडे की होलिका जलाने की परंपरा की नींव पड़ गई है। आज इस अनूठे आयोजन में शामिल होना प्रयाग कुंभ के आध्यात्मिक और जैसलमेर के उमंगी मेले के उत्सवी रंगों में एक साथ नहाने जैसा है। हर घर से पांच कंडे हवन सामग्री, पत्र-पुष्प होलिका में चढ़ाने का एक नया चलन शुरू हो गया है। लोग कंडों के साथ रस्म की संपूर्णता के साथ कुछ लकडिय़ां भी जलाते हैं, लेकिन उसका स्वरूप घरेलू हवन सरीखा है। वसंत पंचमी को भी शगुन के रूप में रेड़ का पूरा पेड़ काट कर होलिका स्थापना की पुरानी रीत भी टूटी है। पक्के मोहल्लों के दक्षिणी नाके चौक से सटी कचौड़ी गली की होलिका का इतिहास बहुत पुराना है। दहन पर होलिका और भक्त प्रह्लाद की प्रतिमाओं की स्थापना की पहली कल्पना भी यहीं की देन है।आपने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र काशी की होली की परंपरा को जाना। कैसे होली मनाई जाती है। कैसे लोग अनूठे प्रयोग कर पर्यावरण को बचा रहे हैं। नए प्रयोगों से कैसे होलिका स्थापना की काशी में पुरानी रीत भी टूटी है। भक्त प्रहलाद की प्रतिमाओं की स्थापना की पहली कल्पना भी इसी बाबा विश्वनाथ की नगरी की ही देन है।सबसे अलग और अजूबे ढंग से रंग एकादशी के दिन मणिकर्णिका घाट पर चिता के भस्म यानी राख से महाकाल बाबा विश्वनाथ के भक्त अघोरी,साधु संत के साथ ही काशी वासियों के संग देश दुनियां से आये लोग भी इस अनूठे मसाने की होली में भाग लेते हैं।
मान्यता है कि भगवान शंकर ने माँ पार्वती का गौना लेकर जब काशी पहुँचे तब काशी वासी,साधु संत,अघोरी,भूत पिशाच गण लोगों नें चिता के भस्म से अड़भंगी होली खेली थी।तब से यह पुरातन परम्परा चली आ रही है।
काशी के घाट पर शाम को होली के दिन हास्य व्यंग्य का सम्मेलन अयोजित होता है जो कि वह भी देश दुनियां में अपनी अश्लील शब्दों, अर्थों और लोगों को कबीरा के माध्यम से गाली बनाकर ख़ूब महफ़िल जमाई जाती है।
कहा जाता है कबीरा इस तरह से अश्लीलता लिया हुए होता है कि घाट के आस पड़ोस तक मे रहने वाले परिवार उस वक़्त घर छोड़कर अन्य स्थान पर चले जाते हैं।काशी भर में इस दिन प्रमुख हस्तियों,नामचीन लोगों को निशाना बनाकर उनपर बेहद ही अश्लील पूर्ण ढंग से समाचार-कविता,कबीरा छपे होते हैं जोकि बनारस शहरवासियों को इस अनूठे पुस्तक का बेसब्री से इंतजार रहता है।
अब बात यूपी के मथुरा यानी की बृज की फूलों और लट्ठमार होली की कर लेते हैं। इस तरह होली की परंपरा ब्रज में क्यों पड़ी। इसकी क्या महत्ता है। आपको यहां पर ये बता दें कि बरसाना और नंद गांव की होली देश-प्रदेश ही नहीं विदेशों तक में मशहूर है। होली के दिन यहां रंग खेलने की जो तस्वीरें सामने आती है, वह अमिट होती है। यहां की होली जीवन पर कभी न मिटने की छाप छोड़ जाती है। मथुरा-वृदांवन की होली में शामिल होने विदेशों से भी लोग दौड़े चले आते हैं। आपको बताते हुए हमें बड़ा हर्ष हो रहा है कि मथुरा-वृंदावन की होली का जश्न देखने के लिए देश-विदेश से लोग आते हैं। यहां की लट्ठमार होली लोगों को खींच लाती है। ये हर साल फाल्गुन माह के शुक्ल पक्ष की नवमी को खेली जाती है। इस होली के पीछे मान्यता है कि इसी दिन श्री कृष्ण, राधा रानी के गांव होली खेलने गए थे। इसके लिए अष्टमी के दिन नंदगांव व बरसाने का एक-एक व्यक्ति गांव जाकर होली खेलने का निमंत्रण भी देता है। नवमी के दिन जोरदार तरीके से होली का हुडदंग शुरू होता है। नंदगांव के पुरुष नाचते-गाते छह किलोमीटर दूर बरसाने पहुंचते हैं। पहला पड़ाव पीली पोखर है। इसके बाद सभी राधारानी मंदिर के दर्शन कर लट्ठमार होली खेलने के लिए रंगीली गली चौक में जमा होते हैं। गीत गाकर, गुलाल उड़ाकर एक दूसरे के साथ हंसी-ठिठोली करते हैं, फिर यहां की महिलाएं नंदगांव के पुरुषों पर लाठियां बरसाती हैं और वे ढाल लेकर अपना बचाव करते नजर आते हैं। होली खेलने वाले पुरुषों को होरियारे और महिलाओं को हुरियारिनें कहा जाता है।
कृष्ण के गांव नंदगांव के पुरुष बरसाने में स्थित राधा के मंदिर पर झंडा फहराने की कोशिश करते हैं, लेकिन बरसाने की महिलाएं एकजुट होकर उन्हें लट्ठ से खदेड़ने की कोशिशें करती हैं। इस दौरान पुरुषों को प्रतिरोध की आज्ञा नहीं होती। वे महिलाओं पर केवल गुलाल छिड़ककर उन्हें चकमा देकर झंडा फहराने की कोशिश करते हैं। अगर पकड़े गए तो पिटाई भी होती है। इसके बाद उन्हें महिलाओं के कपड़ें पहनाकर श्रृंगार इत्यादि करके सामूहिक रूप से नचाया जाता है। अगले दिन दशमी को बरसाने के होरियारे नंदगांव की हुरियारिनों के साथ होली खेलने जाते हैं। आपको बता दें कि लट्ठमार होली उत्तर प्रदेश के राज्य मथुरा के शहर बरसाना और नंदगांव में ही खेली जाती है। पूरे भारत में एकमात्र ये ऐसी रस्म है, जो केवल बरसाना में ही होती है। इसकी शुरुआत 16वीं शताब्दी से होनी बताई जा रही है। दरअसल, उस समय भगवान कृष्ण अपने सखाओं के साथ होली खेलने बरसाना जाया करते थे। उसके बाद वे राधा और उनकी सखियों के साथ ठिठोली करते थे। उनकी हरकतों से रुष्ट होकर राधारानी और उनकी सखियां कृष्ण और उनके सखाओं पर डंडे बरसाया करती थीं। धीरे-धीरे उनका ये प्रेमपूर्वक होली खेलने का तरीका परंपरा बन गया। तो हमने आपको ब्रज की होली से रूबरू कराया। नंदगांव और बरसाना में कैसे होली खेली जाती है। कबसे और इस लट्ठ मार होली खेलने की क्या परंपरा है। लट्ठमार मार होली क्यों पूरे देश में ही विदेशों में ही आकृषण का केंद्र है। हमने आपको बताया कि कैसे लोग इस होली के अगाध प्रेम में खिंचे चले आते हैं। आगे बढ़ते हैं और बात सीतापुर की होली के मिश्रिख में मनाई जाने वाली होली की करते हैं। कैसे होलिका दहन के ठीक पहले आतिशबाजी की दशकों पुरानी परंपरा है। होली के रंगों में सराबोर हो जाने का और माहौल एक दूजे को गुलाल से रंगने का है। रंगों की रंगीनी में मस्त हो जाने का, लेकिन ऐसे रंगों के माहौल में हम आतिशबाज़ी की बात करने लगे तो आपको अजीब लगना स्वाभाविक है, लेकिन यहां पर इसका जिक्र जरूरी है। दरअसल, सीतापुर के मिश्रिख तीर्थ में होलिका दहन के ठीक पहले जमकर आतिशबाजी होती है, लेकिन जिन लोगों को नहीं पता होगा तो वो ऐसा मंजर देखकर अचरज में जरूर पड़ जाएंगे कि यहां होली में दीवाली जैसा नजारा क्यों है, पर ये सच है कि आसमानी पटाखों की गड़गड़ाहट आपको ऐसा सोचने पर मजबूर कर देगी। दरअसल, आपको बता दें कि हर साल होली की शुरुआत रंगों से नहीं बल्कि पटाखों के साथ होती है, जिसमें लाखों की तादात में श्रद्धालु इस मनोहारी द्रश्य का गवाह बनते हैं। पौराणिक कथाओं के अनुसार राक्षसों के संहार के लिए अपनी अस्थिया दान करने वाले महर्षि दधीची की तपोस्थली मिश्रिख स्थित दधीच कुंड पर होली से ठीक पूर्व होने वाले होली मेले का अपना अलग महत्त्व है। इस तीर्थ के इर्द गिर्द 15 दिनों के दौरान होने वाली 84 कोस व पंचकोसी परिक्रमा के बाद मिश्रिख पहुंचने वाले लाखों तीर्थ यात्री होली मेला में डेरा डालते हैं। जिसका समापन होलिका दहन से पूर्व घंटों चलने वाली आतिशबाजी के साथ हो जाता है। आतिशबाज़ी भी कोई मामूली नहीं बल्कि ऐसी की बस देखते ही रह जाओ। आतिशबाजी के पूर्व लाखों की मौजूदगी में पहले तीर्थ की आरती के साथ पूजन किया जाता है। इस बार 84 कोसी परिक्रमा में भी पिछले वर्षाें की तुलना में प्रशासन ने बेहतर इंतजाम किए थे। इसी तरह से मिश्रिख में होली परिक्रमा मेले में चार चांद लगाने की तैयारियों को अंतिम रूप दे दिया गया है। इस बार सांस्कृति और भक्तिमय कार्यक्रमों का अनूठा संगम दधीचि की धरा पर देखने को भी मिलेगा क्योंकि पिछले कई सालों से कोरोनो की वजह से कार्यक्रमों को भव्ययता प्रदान पर रोक लगी थी, पर इस पर नामचीन हस्तियों के सुरों से महफिल सजने वाली है। इसका हर किसी को बड़ी बेसब्री से इंतजार है। सीतापुर के बीहट गौर की कर लेते हैं, जहां पर एक दिन बाद होली मनाने की परंपरा सदियों से चली आ रही है।