लेखक-अरविंद जयतिलक
अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन द्वारा यूक्रेन को रुस के भीतर अमेरिकी मिसाइलों के इस्तेमाल की मंजूरी दिए जाने के बाद एटमी जंग का संकट गहरा गया है। प्रतिकार स्वरुप रुस के राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन ने भी नई परमाणु नीति को मंजूरी दे दी है। उन्होंने एलान कर दिया है कि किसी भी परमाणु शक्ति वाले देश के समर्थन से कोई रुस पर हमला करता है तो इसे उनके देश पर संयुक्त रुप से हमला माना जाएगा। ऐसी स्थिति में रुस एटम बम का इस्तेमाल कर सकता है। दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य यह कि अमेरिकी मंजूरी मिलने के बाद यूक्रेन की सेना रुस के भीतर तकरीबन आधा दर्जन एटीएसीएमएस मिसाइलों से प्रहार तेज कर दी है। बदले में रुस भी आक्रामक है। नतीजतन नाटो देशों में घबराहट बढ़ गई है और वे अपने नागरिकों को भयावह जंग के लिए तैयार होने की सलाह दे रहे हैं।
अगर रुस और नाटो देश आपसी समझदारी का परिचय नहीं देते हैं तो एटमी जंग के हालात पैदा हो सकते हैं। सच कहें तो हालात वैसे ही हैं जैसे शीतयुद्ध से पहले सोवियत संघ द्वारा याल्टा समझौते की अवहेलना, बाल्कन समझौते का अतिक्रमण, टर्की पर दबाव, यूनान में हस्तक्षेप, बर्लिन की नाकेबंदी और ईरान से सोवियत सेना के न हटने से पैदा हुई थी। अंतर सिर्फ इतना है कि शीतयुद्धकालीन विश्व व्यवस्था के निर्धारक तत्व सैनिक कारक थे और आज भूमण्डलीकरण के दौर में उसका स्थान आर्थिक कारक ने ले लिया है। सैन्य युद्ध का जगह व्यापार युद्ध ने ले लिया है और हथियारों की जगह मुद्राएं टकरा रही हैं। शक्ति का केंद्र बिंदू सैन्य ताकत नहीं बल्कि आर्थिक ताकत बन चुका है। नाटो, वारसा पैक्ट, सीटो, सेंटो की प्रासंगिकता खत्म हो चुकी है और उसका स्थान गैट, आसियान, साफ्टा, नाफ्टा और बिमटेस्क ने ले लिया है। अब मौंजू सवाल यह है कि रुस-यूक्रेन युद्ध को लेकर नवनिर्वाचित अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड टंªप की रणनीति क्या होगी? क्या वे जो बाइडन की नीति बदलेंगे या उसी पर आगे बढेंगे? अभी दो वर्ष पूर्व संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंतोनिया गुटेरस ने चिंता जताते हुए कहा था कि मानवता परमाणु विनाश से महज एक कदम की दूरी पर है। तब उनके सुर में सुर मिलाते हुए अंतर्राष्ट्रीय परमाणु उर्जा एजेंसी (आईएईए) के महानिदेशक राफेल ग्रोसी ने भी कहा कि कि यूक्रेन संकट इतना गंभीर है कि परमाणु संघर्ष का खतरा बढ़ गया है। परमाणु युद्ध हुआ तो दुनिया की सामान्य मृत्यु दर दुगुनी हो जाएगी।
परमाणु युद्ध के कारण 1.6 से 3.6 करोड़ टन काला और घना कार्बन का धुंआ पूरी दुनिया में उपरी वायुमंडल में छा जाएगा जिससे धरती पर सूर्य की रोशनी में 20 से 35 प्रतिशत तक कमी होगी। धरती का तापमान 2 से 5 डिग्री सेल्सियस कम हो जाएगा। बारिश में 15 से 30 फीसद कमी आएगी और ऐसी ठंड होगी जैसी हिमयुग के बाद में नहीं देखी गयी। इतना ही नहीं धरती पर पेड़-पौधों की संख्या में भी 15 से 30 प्रतिशत की कमी आएगी और 5 से 15 फीसद समुद्री जीवन नष्ट हो जाएगा। लेकिन इसकी चिंता किसी भी परमाणु संपन्न देश को नहीं है। परमाणु संपन्न दुनिया के दो सबसे ताकतवर देश अमेरिका और रुस टकराव के मुहाने पर हैं और हालात द्वितीय विश्वयुद्ध से पहले जैसे दिख रहे हैं। उल्लेखनीय है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अमेरिका और रुस के राजनीतिक और आर्थिक हितों का टकराव शुरु हो गया था। अमेरिका और रुस की प्रमुखता वाले सोवियत संघ में अपना प्रभाव बढ़ाने की होड़ लग गयी।
वर्ष 1990 तक दुनिया के ज्यादातर देश इन्हीं महाशक्तियों के बीच बंटे रहे और उनके बीच छल-प्रपंच होता रहा। सोवियत संघ के विखंडन के बाद ही शीतयुद्ध खत्म हुआ और अमेरिका दुनिया का सबसे ताकतवर देश बनकर उभरा। मौजूदा वैश्विक परिदृश्य पर नजर दौड़ाएं तो निःसंदेह 26 दिसंबर 1991 को सोवियत संघ के विघटन के बाद रुस की ताकत घटी है और अमेरिका का वर्चस्व बढ़ा है। जहां अमेरिका आर्थिक महाशक्ति बन चुका है वहीं रुस की अर्थव्यवस्था हिचकोले खा रही है। दोनों देशों के बीच तल्खी के बाद एक बार फिर हालात बिगड़ने लगे हैं। रुस अपनी प्रतिष्ठा और सैन्य ताकत को मजबूत करने में जुटा है वहीं अमेरिका और यूरोपिय शक्तियां उसे अपने घुटने पर लाने के लिए आमादा हैं।
लेकिन सच यही है कि सोवियत संघ के विघटन के बाद भी रुस को संयुक्त राज्य सुरक्षा परिषद में पुराने सोवियत संघ का दर्जा हासिल है और वह सोवियत संघ के संपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय उत्तरदायित्वों का निर्वहन भी कर रहा है। आज भी उसकी इच्छा यही है कि 1991 में सोवियत नियंत्रण से मुक्त हुए देशों में अमेरिका और यूरोपिय संघ की पकड़ मजबूत न हो और वह हर हाल में स्वतंत्र देशों में अप्रत्यक्ष रुप से अपना ही शासन बनाए रखे। किंतु अमेरिका और उसके सहयोगी यूरोपिय देशों को रुस की यह नीति रास नहीं आ रही है। उधर रुस एकध्रुवीय विश्व व्यवस्था की रीढ़ को तोड़कर नई विश्व व्यवस्था में अपना सम्मानपूर्ण स्थान चाहता है। हां यह सही है कि आज अमेरिका विश्व की एकमात्र आर्थिक व सैनिक शक्ति है और अंतर्राष्ट्रीय दारोगा भी। सीधे तौर पर उसे चुनौती देने वाला कोई नहीं है। उसकी ताकत का नतीजा है कि वह तमाम राष्ट्रों पर दबाव डालकर उन्हें अपनी नीतियां बदलने को मजबूर कर रहा है। संयुक्त राष्ट्र संघ से लेकर अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष एवं विश्व बैंक सभी अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं उसकी मुठ्ठी में है। अफगानिस्तान युद्ध के बरक्स वह मध्य एशिया और पश्चिमी एशिया में अपनी पकड़ मजबूत कर चुका है।
एशियाई देशों मसलन अफगानिस्तान, पाकिस्तान, फिलीपीन्स, जापान, दक्षिण कोरिया समेत मध्य एशियाई देश सऊदी अरब, ओमान और कतर में उसके सैनिक पसरे हुए हैं। इराक, हैती, रवांडा, कोसोवो, बोस्निया और अफगानिस्तान में अपनी सैन्य ताकत का प्रदर्शन कर अमेरिका इस निष्कर्ष पर जा पहुंच चुका है कि कोई भी देश उसके आगे टिक नहीं सकता। लेकिन रुस भी अपने रुतबे को कम होने देना नहीं चाहता। वह यूक्रेन पर फतह कर नाटो देशों को कड़ा सबक देना चाहता है। अगर मौजूदा समय में विश्व समुदाय रुस और अमेरिका के खेमों में बंटता है तो फिर एटमी युद्ध की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। वैसे भी देखें तो परमाणु अप्रसार संधि मजाक बनकर रह गयी है। आज विश्व भर में 70 हजार से अधिक परमाणु शस्त्र हैं और प्रत्येक शस्त्र की क्षमता हिरोशिमा और नागासाकी जैसे किसी भी शहर को एक झटके में मिटा देने में सक्षम है। एक रिसर्च के मुताबिक इन शस्त्रों के जरिए दुनिया को एक दो बार नहीं बल्कि दर्जनों बार मिटाया जा सकता है।
आंकड़ों पर गौर करें तो अमेरिका 1945 के बाद से हर नौ दिन में एक के औसत से परमाणु परीक्षण की है। 1945 के बाद से दुनिया में कम से कम 2060 ज्ञात परमाणु परीक्षण हो चुके हैं जिनमें से 85 फीसद परीक्षण अकेले अमेरिका और रुस ने किया है। ये दोनों देश विश्व की महाशक्तियां हैं और दुनिया के अधिकांश देश इन्हीें दोनों देशों के खेमे में बंटे हैं। इसमें से अमेरिका ने 1032, रुस ने 715, ब्रिटेन ने 45, फ्रांस ने 210, चीन ने 45 परीक्षण की है। उल्लेखनीय है कि अमेरिका ने 16 जुलाई, 1945 को मैक्सिको के आल्मागार्दो रेगिस्तान में परमाणु बम का परीक्षण किया और उसके बाद से परमाणु युग की शुरुआत हो गयी। अमेरिका की तर्ज पर सोवियत संघ ने 1949 में, ब्रिटेन ने 1952 में, फ्रांस ने 1958 में तथा चीन ने 1964 में अपना पहला परमाणु परीक्षण किया। इस बिरादरी में भारत भी सम्मिलित हुआ जब उसने 18 मई, 1974 को पोखरन में अपना प्रथम भूमिगत परीक्षण किया। हालात यह है कि आज समूची दुनिया कभी न खत्म होने वाली परमाणु परीक्षणों की घुड़दौड़ में शामिल हो गयी है। परमाणु अस्त्रों के उत्पादन को सीमित करने तथा उनके प्रयोग एवं उनके परीक्षण पर रोक लगाने के संबंध में संसार की दो महाशक्तियों के बीच 1967 की परमाणु अप्रसार संधि (एनपीटी) जिसे 12 जून 1968 को संयुक्त राष्ट्र महासभा ने भारी बहुमत से स्वीकृति प्रदान की और 5 मार्च 1970 से प्रभावी हो गयी। लेकिन आज इइस संधि का कोई मूल्य-महत्व नहीं है।
(लेखक राजनीतिक व सामाजिक विश्लेषक हैं)