लेखक- डॉ विजय मिश्र
2016 के चुनावों में मीडिया ने हिलेरी की जीत का पूर्वानुमान लगाया था. यह मुंह के बल गिर पड़ा. 2020 में मीडिया बाइडेन को पांच से दस प्रतिशत की बढ़त दे रही थी. लेकिन जब चुनाव के परिणाम आने लगे तो डेमोक्रेट्स की सिट्टी पिट्टी गुम हो गई और अंत में पोस्टल बैलट का घपला करके ही बाइडेन जीत सका.
यह चुनाव कांटे का बताया जा रहा है. इसको सरल भाषा में समझा जाए तो ट्रंप को अच्छी खासी बढ़त मिलनी चाहिए… लेकिन डीप स्टेट आखिर तक घपले की गुंजाइश जिंदा रखना चाहता है और स्विंग स्टेट्स में कुछ लाख वोटों की हेराफेरी की गुंजाइश है.. पर शायद उतना जीत के लिए काफी न हो.
ऐसा क्यों होता है कि मीडिया और ओपिनियन पॉल हमेशा ट्रम्प के लिए सपोर्ट को अंडरएस्टीमेट करते हैं? कुछ तो अपना बायस है, कुछ अंदर की बदमाशी है. पर उससे भी बड़ा कारण है, जो ट्रम्प का वोटर होता है वह अपना समर्थन छुपा कर रखता है. ट्रम्प को खुल कर समर्थन देना आपके कैरियर और जॉब के लिए नुकसानदेह हो सकता है.
अगर एक वामपंथी आपसे असहमत होता है तो वह सिर्फ असहमत नहीं होता, वह आपसे घृणा करता है. उसके लिए आप सिर्फ एक अलग ओपिनियन नहीं रखते, सिर्फ गलत ओपिनियन भी नहीं रखते… आप हार्मफुल ओपिनियन रखते हैं. आपके ओपिनियन को, और उस ओपिनियन को रखने के लिए आपको कुचल दिया जाना उचित ही नहीं, आवश्यक है.
उनकी यह घृणा सिर्फ आपको आपके वर्क प्लेस पर कुचलने तक सीमित नहीं है. उससे आगे जाकर आपको शारीरिक क्षति पहुंचाने से भी वे बाज नहीं आएंगे. उनकी हिंसा सिर्फ वैचारिक ही नहीं, शारीरिक भी हो सकती है. इस चुनाव में ट्रम्प की बढ़त को रोकने में असफल तंत्र ने ट्रम्प की हत्या करवाने का प्रयास किया. किसी भी बुद्धिजीवी और मीडिया ने इसकी निंदा नहीं की, बल्कि कइयों ने इसके असफल होने का अफसोस जाहिर किया.
घृणा एक उपयोगी पॉलिटिकल टूल है. वामपंथ इस घृणा का न सिर्फ सफल और प्रभावी उपयोग करता है, बल्कि इसे इंस्टीट्यूशनलाइज करता है. उसने हिंसा और घृणा को फैलाने के तंत्र बना रखे हैं. इस तंत्र का नाम कहीं यूनिवर्सिटी है, कहीं मीडिया है, कहीं आर्ट है.

(लेखक लंदन में चिकित्सक हैं और अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के जानकार हैं)