लेखक – डॉक्टर राजीव मिश्र
इस धरती पर कहीं रेगिस्तान है, कहीं दलदल है, कहीं नदी बहती है तो कहीं झरने फूटते हैं. लेकिन प्रकृति हर रूप में प्रकृति है. और ऐसा नहीं है कि धरती जैसी आज है वैसी ही हमेशा थी. आज का मैदान कल रेगिस्तान बन सकता है. आज की नदी कल रास्ता बदल कर कहीं और निकल जा सकती है. जहां आज न्यूयॉर्क शहर बसा हुआ है वहां कुछ हजार साल पहले बीस फुट बर्फ जमी रहती थी.
अक्सर यह आरोप लगता है कि मनुष्य ने प्रकृति को बहुत नुकसान पहुंचाया है..संसाधनों का बेहिसाब दोहन किया है.
मनुष्य को प्रकृति ने ऐसा कुछ भी नहीं दिया है जिससे वह अपनी प्राकृतिक अवस्था में सर्वाइव कर सके. हमें बस यह क्षमता मिली है कि हम अपने वातावरण को अपने अनुसार बदल ले सकते हैं. हम अपने आपको प्रकृति के अनुरूप ढालने के बजाय प्रकृति को अपने अनुरूप बनाते हैं और इस क्षमता के बिना हमारा अस्तित्व संभव नहीं है.
संसाधन क्या होते हैं? धरती पर जो भी संसाधन गिने जाते हैं वे सिर्फ मनुष्य के लिए संसाधन हैं. मनुष्य उनका उपयोग करना जानता है इसलिए वे संसाधन कहलाते हैं. एक चिम्पांजी के लिए ना पेट्रोलियम संसाधन है, ना यूरेनियम संसाधन है. वह जमीन के अंदर से पानी नहीं निकाल सकता है तो उसके लिए भूजल का स्तर यदि सतह से दो फीट नीचे भी हो तो वह संसाधन नहीं है. उसके लिए उत्पादकता नाम का शब्द नहीं है...धरती पर जो है, जितना है, वह उसका भोग कर सकता है और प्रकृति द्वारा और दिए जाने की प्रतीक्षा कर सकता है. पर यदि उस प्रतीक्षा में हम खड़े रहे तो हमारा अस्तित्व ही नष्ट हो जायेगा.
अधिक नहीं, आज से सौ वर्ष पहले संसाधनों का “दोहन” कम होता था…परिणाम क्या था? क्या जहां आज रेगिस्तान है वहां नदियां बह रही थीं? बस यह था कि हम अधिक दरिद्र थे. औसत आयु 25 वर्ष थी. और सिर्फ भारत में ही नहीं, अमेरिका में भी पिछली सदी के आरंभ में औसत आयु सिर्फ 45 वर्ष थी. हमारे देश में हजार में 534 बच्चे, यानि आधे से अधिक एक वर्ष से कम आयु में मर जाते थे. आज यह दर प्रति हजार में 25 है. प्रति वर्ष अकाल पड़ता था, लाखों मरते थे. प्रति वर्ष बाढ़ आती थी, हजारों घर बह जाते थे. अकाल मृत्यु जीवन का नियम था. अभाव अस्तित्व की स्थायी अवस्था थी.
मनुष्य पर आरोप है कि वह अपने असीमित भोग की इच्छा को पूरा करने के लिए संसाधनों का दोहन कर रहा है. आप अपने जीवन को देखें…आप किस संसाधन का बेहिसाब दोहन कर रहे हैं? कौन सा असीमित भोग कर रहे हैं?
भर पेट भोजन करने की इच्छा, अपना बच्चा एक साल की उम्र में मर न जाए यह इच्छा, अपने नाती पोतों को देखने तक जीवित रहने की इच्छा, वाहन द्वारा जल्दी से घर पहुंच कर अपने परिवार के साथ समय बिताने की इच्छा, बीमार पड़ने पर हस्पताल में इलाज कराने की इच्छा को असीमित भोग की इच्छा कैसे कहते हैं? उसके अलावा आप क्या कर रहे हैं जिसे आपको छोड़ देना चाहिए? और यह असीमित भोग आप नहीं कर रहे तो दूसरा कौन कर रहा है? हर किसी को लगता है कि वह तो बस अपनी मूलभूत आवश्यकता की पूर्ति कर रहा है पर दूसरा असीमित भोग के पीछे भाग रहा है.
हम सदियों में पहली पीढ़ी हैं जिसके पास पर्याप्त भोजन है. अभी हम सदियों के दुर्भिक्ष से निकले हैं, दरिद्रता से अब निकल रहे हैं. हमें अपने संसाधनों का पर्याप्त "दोहन" करने की आवश्यकता है. संसाधनों का दोहन करके हम समृद्ध होंगे तभी हमारे पास पर्यावरण की रक्षा करने के बेहतर संसाधन भी होंगे. हमारे पास अच्छी चौड़ी सड़कें होंगी तो ट्रैफिक जाम में फंसी गाडियां बेकार में धुआं छोड़कर वातावरण को प्रदूषित नहीं करेंगी. हम नदियों को जोड़ सकेंगे और उनके पक्के किनारे बांध सकेंगे तो कहीं बाढ़ और कहीं सूखा नहीं पड़ेगा. हम खेती के आधुनिक तरीके प्रयोग कर सकेंगे तो कम स्थान में सबके लिए भोजन उपलब्ध हो सकेगा और वृक्ष लगाने के लिए अधिक धरती उपलब्ध होगी. हम गगनचुंबी इमारतें बनाएंगे तो कम जमीन पर अधिक लोग रह सकेंगे और खाली जगहों पर पार्क बनाए जा सकेंगे. हम सड़कों के किनारे पक्के फुटपाथ बनाएंगे तो गाड़ियों से धूल नहीं उड़ेगी. और समृद्धि आती है जनसंख्या भी स्थिर हो जाती है, वृद्धि की दर रुक जाती है.
समृद्धि पर्यावरण का शत्रु नहीं है...सबसे अच्छा मित्र है. विकसित औद्योगिक देशों में पर्यावरण अधिक संरक्षित है, प्रदूषण कम है. और समृद्धि संसाधनों के "दोहन" से ही आएगी. मनुष्य इस धरती पर बोझ नहीं है, मनुष्य तो इस धरती की सार्थकता है. मनुष्य का मस्तिष्क, उसकी तर्क बुद्धि इस धरती पर ईश्वर की सबसे बड़ी उपलब्धि है, उसकी सुंदरतम रचना है. अपने अस्तित्व पर गर्व करें...कुंठा न पालें।
(लेखक लंदन में चिकित्सक हैं)