लेखक -अमित सिंघल
कई राष्ट्रवादी इंदिरा गाँधी के कार्यकाल को अवसाद के साथ याद करते है। लिखते है कि प्रधानमंत्री मोदी में इंदिरा गाँधी जैसा “दम” नहीं है। इंदिरा को देखो इसे बर्खास्त कर दिया, उसे जेल में डाल दिया, वहां आक्रमण कर दिया, इत्यादि, इत्यादि।
अतः इंदिरा के कालखंड को देखने का प्रयास करते है।
प्रथम, इंदिरा के समय में कांग्रेस ही एकमात्र राष्ट्रीय दल था। अन्य सभी दल प्रांतीय स्तर पर कार्यरत थे; कुछ सीट खींच ले जाते थे। यहाँ तक कि वे प्रांतीय दल भी कोंग्रेसियों के बनाये हुए थे। लगभग सभी प्रांतो में (तमिल नाडु एवं जम्मू-कश्मीर को छोड़कर) कांग्रेस की सरकार थी। बंगाल में वामपंथी 1977 में सत्ता में आ पाए थे। इंदिरा सत्ता में केवल परिवार के कारण आयी थी। कांग्रेस का नेतृत्व एक ही परिवार के पास था; अतः, कांग्रेस के निर्णय को कोई चुनौती नहीं थी।
द्वितीय, हाई कोर्ट एवं सुप्रीम कोर्ट के जजों का चयन सरकार करती थी। एक तरह से केवल इंदिरा। विपक्ष का कोई रोल नहीं था; ना ही कोई कॉलेजियम व्यवस्था थी। अधिकतर जज भी कोंग्रेसी विचारधारा वाले थे; उसी अभिजात वर्ग से निकले थे। अब हाई कोर्ट एवं सुप्रीम कोर्ट के जजों का चयन सरकार नहीं करती; सुप्रीम कोर्ट के जज स्वयं जजों का चयन करते है; सरकार केवल उन जजों की नियुक्ति करती है।
तृतीय, अधिकतर जनता के लिए आल इंडिया रेडियो ही न्यूज़ का एकमात्र स्रोत था। दूरदर्शन कुछ घंटे दो-तीन महानगरों में टेलीकास्ट होता था और टीवी अतिधनाढ्य वर्ग ही अफोर्ड कर सकता था। रेडियो एवं टीवी पूर्णतया सरकारी कण्ट्रोल में थे। टीवी में एक व्यक्ति समाचार पढ़के निकल लेता था। डिबेट का कोई सिस्टम नहीं था।
समाचारपत्र के लिए आयतित एवं सब्सिडाइज़्ड न्यूज़प्रिंट का कोटा सरकार निर्धारित करती थी। अगर लाइन से बाहर गए, तो न्यूज़प्रिंट की उपलब्धता में एकाएक कमी हो जाती थी। सभी (सभी पर जोर है) एडिटर एवं पत्रकार सरकारी अनुकम्पा, जैसे कि सरकारी घर, देश-विदेश यात्रा, रेल पास, फिक्स्ड लाइन फोन, कुकिंग गैस, सीमेंट, चीनी (एक समय सीमेंट-चीनी भी सरकारी अनुकम्पा से मिलती थी) राशन इत्यादि के लिए सरकार पर निर्भर थे।
चतुर्थ, सभी विपक्षी सांसद सदन के अंदर शिष्टाचार से व्यवहार करते थे। विपक्ष के पास जॉर्ज फर्नांडीस, अटल, अडवाणी, विजय राजे सिंधिया, जयपाल रेड्डी, सोमपाल जैसे नेता थे। ना कि महुआ, संजय सिंह, राहुल जैसे अपशब्द बोलने वाले नेता।
पंचम, उस समय कोई इंटरनेट नहीं था। आज हर व्यक्ति एक सेल फ़ोन के साथ एक संवाददाता है। वह स्वयं न्यूज़ बनाता है और उसका उपभोग भी कर रहा है। दूसरे शब्दों में, किसी भी राजकीय हिंसा में कुछ या सैकड़ो मृत्यु की सम्भावना हो सकती है जिसका एक-एक पल रिकॉर्ड किया जा सकता है। अगर सरकार इंटरनेट बंद कर दे, तब भी कुछ दिन बाद वीडियो सामने आ जायेंगे। तब कोर्ट के निर्देश पर अधिकारियों पर कार्यवाई हो सकती है। इंदिरा के समय में असम के अकेले नेल्ली नरसंहार में 3000 लोग मर गए थे जिसकी जांच आयोग की रिपोर्ट आज तक सार्वजनिक नहीं हुई है। असम की हिंसा के पीछे इंदिरा गाँधी द्वारा 40 लाख बांग्लादेशियों को नागरिकता देने के विरोध में था जिसे बेरहमी से कुचल दिया गया। लेकिन उस समय सोशल मीडिया ना होने से अधिकतर लोगो को असम में की गयी राजकीय हिंसा के बारे में पता ही नहीं है। फिर, असम में विरोध छात्र संघ कर रहा था, कोई राजनैतिक दल नहीं। यही स्थिति पंजाब हिंसा की थी – जब केंद्र एवं राज्य दोनों में कांग्रेस सरकार थी – जिस में कई हज़ार भारतीयों की मृत्यु हो गयी थी। क्या उस हिंसा का कोई वीडियो आपने देखा है?
षष्ठम, इंदिरा ने लोलीपॉप, स्लोगन, इमरजेंसी, तुष्टिकरण, गुंडागर्दी, चमचो के द्वारा अपने आप को सत्ता के शीर्ष पर बनाये रखा था। आज इस मॉडल को अखिलेश, लालू, अरविन्द, ठाकरे, ममता, पवार परिवारों ने अपना लिया है जिसके कारण राज्य स्तर पर अराजकता सी व्याप्त है। पिछले कुछ दशकों में, अनुच्छेद 352 (इमरजेंसी) या अनुच्छेद 356 (राज्य सरकार बर्खास्त करना) के ऑप्शन को अत्यधिक सीमित कर दिया गया है। अतः राज्य स्तर पर विपक्षी सरकारों द्वारा सत्ता बनाये रखने के लिए राजनीतिक गुंडागर्दी को बढ़ावा दिया जा रहा है।
सप्तम, NGO एवं मीडिया के माध्यम से कुछ विषयों को एक हथियार के रूप में प्रयोग किया जा रहा है जो इंदिरा के समय में नहीं था। जैसे कि जाट, किसान, दलित, तुष्टिकरण वाली राजनीति। यहाँ तक कि आतंकी हमलो को जस्टिफाई करने का कुत्सित प्रयास किया जाता है। बाटला हाउस पर आंसू बहाना, इशरत- सोहराबुद्दीन को निर्दोष प्रचारित करना, मुंबई आतंकी हमले को आरएसएस द्वारा प्रायोजित कहना, सर्जिकल स्ट्राइक पर प्रश्न उठाना, सनातनी मूल्यों को गाली देने वालो को स्थापित राजनीतिक दलों का समर्थन प्राप्त है और उन राजनीतिक दलों को सनातनी जनता भारी वोट देकर जिताती भी है।
अष्टम, विश्व दो एकसमान शक्ति वाले खेमो में बटा था। संयुक्त राष्ट्र का मानवाधिकार कार्यालय नहीं था। अंतर्राष्ट्रीय आपराधिक न्यायलय नहीं था (इस समय पुतिन के विरूद्ध अरेस्ट वारंट है; नेतन्याहू के विरूद्ध अरेस्ट वारंट जारी करने का केस चल रहा है)। अर्थव्यवस्था का ग्लोबलाइज़ेशन नहीं था।
अंत में, इंदिरा एवं राजीव के समय में 90 प्रतिशत भारतीय निर्धन थे। उन्हें दरिद्र नारायण बोलकर संतुष्ट कर दिया जाता था। बजट में माचिस की डिब्बी एवं साबुन पर पांच पैसा सस्ता करके प्रसन्न कर दिया जाता था। बदले में डिटर्जेंट एवं बिस्कुट के दाम में दस पैसे की वृद्धि कर दी जाती थी। कुछ लाख भारतीय आयकर देते थे; अतः आयकर की दर बहुत अधिक थी। लेकिन शोर मचाने के लिए सोशल मीडिया नहीं था।

(लेखक सुप्रसिद्ध ब्लॉगर हैं)