लेखक:संजय राय
पहले श्री लंका, फिर बांग्लादेश और अब नेपाल। भारत के तीन पड़ोसी देशों में राजनीतिक तख्तापलट हो चुका है। हर तख्तापलट के बाद कभी दबी जुबान में तो कभी खुले आम यह कहा गया कि देर सबेर भारत में भी यही होगा। हालांकि, मजबूत नेतृत्व के कारण भारत अभी तक इस आग से बचा हुआ है। लेकिन, दुनिया में इस समय जिस तरह के समीकरण बने हुए हैं उसे देखते हुए भारत को विशेष रूप से सतर्कता बरतनी ही होगी। जब पड़ोस में आग लगी तो स्वाभाविक रूप से यह भारत के लिए चिंता का विषय होना चाहिए। भारत को पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई की इस बात को याद रखना होगा कि दोस्त बदले जा सकते हैं, लेकिन पड़ोसी नहीं बदल सकते हैं।
भारत और नेपाल के बीच रोटी-बेटी का रिश्ता ऐतिहासिक ही नहीं, पौराणिक भी है। नेपाल में युवाओं के आक्रोश के पीछे वहां के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली की सरकार के उस फैसले को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है, जिसमें बीते 3 सितम्बर को युवाओं में बेहद प्रचलित फेसबुक, इंस्टाग्राम, एक्स और यूट्यूब समेत 26 सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों को तत्काल प्रभाव से बंद करने का आदेश दिया गया था। इस फैसले के पांच दिन बाद 8 सितम्बर को आक्रोशित युवा काठमांडू की सड़कों पर उतर आए और देखते ही देखते काठमांडू में भड़का आक्रोश पूरे देश में फैल गया। युवाओं ने जमकर हिंसा, लूट और आगजनी की। पूर्व प्रधानमंत्री सहित कई नेताओं को दौड़ा दौड़ाकर पीटा गया। संसद भवन और सुप्रीम कोर्ट के अलावा कई इमारतों को युवाओं ने आग के हवाले कर दिया। प्रधानमंत्री ओली को इस्तीफा देने के लिए मजबूर कर दिया गया और सेना की मदद से किसी तरह उन्होंने अपनी जान बचाई।
नेपाल के घटनाक्रम कई सवाल पैदा करते हैं। जरा सोचिए किसी एक छोटे से पार्क में किसी सार्वजनिक मुद्दे पर चर्चा के लिए सौ-पचास लोगों को इकट्ठा करना भी काफी मुश्किल काम होता है। इसमें काफी समय और धन खर्च होता है। ऐसे में यह समझा जा सकता है कि रातों-रात हजारों युवाओं का जमघट काठमांडू में एक आवाज पर नहीं लगा था। इसके पीछे काफी धन खर्च किया गया है, इसमें कोई दो राय नहीं है।
यह बात बिलकुल स्पष्ट है कि नेपाल के युवाओं का यह आंदोलन भले ही स्वतःस्फूर्त दिख रहा है, लेकिन ऐसा है नहीं। यह आंदोलन श्रीलंका और बांग्लादेश की ही अगली कड़ी है और इसके पीछे भी अमेरिका के डीप स्टेट का हाथ नजर आ रहा है। सोचिए आंदोलन शुरू होने के महज कुछ घंटे के भीतर ही एक शब्द ‘जेन जी’ बड़ी तेजी से फैलाया गया। जेन जी यानी 1997 से 2012 के बीच पैदा होने वाले लोग। यह शब्द इसी डीप स्टेट के दिमाग की उपज है और आंदोलन को जान बूझकर मीडिया के बीच उछाला गया है।
नेपाल के युवाओं का यह आंदोलन आंदोलन श्रीलंका और बांग्लादेश की ही अगली कड़ी है और दुनियाभर के मीडिया में ऐसी खबरें आई हैं कि इसके पीछे भी अमेरिका के डीप स्टेट का हाथ है। यह सोचने वाली बात है कि आंदोलन जेन जी पीढ़ी के युवाओं ने किया और नेतृत्व को बदलने के बाद एक बुजुर्ग महिला को अंतरिम प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठाया गया। युवा किनारे लगा दिए गए। जेन जी एक मोहरा बनकर रह गया। उनके आंदोलन के बाद सोशल मीडिया से प्रतिबंध हट गया और जेन जी फिर से सोशल मीडिया पर डेटा खर्च करने में जुट गया। इस आंदोलन का दूसरा सबसे बड़ा मुद्दा भ्रष्टाचार था। यह देखना बाकी है कि इस मुद्दे का समाधान नेपाल की नयी सरकार कैसे करती है।
दुनिया में भारत और अमेरिका दो सबसे बड़े लोकतंत्र हैं। दोनों देशों ने समान मूल्यों को आधार बनाकर पिछले 25 वर्षों में आपसी संबंधों को लगभग सभी क्षेत्रों में प्रगाढ़ करके इसे रणनीतिक आयाम दिया है। लेकिन पड़ोसी देशों के घटनाक्रम यही दिखाते हैं कि अमेरिका को भारत की प्रगति से अब परेशानी हो रही है। उसे इस बात से भी परेशानी है कि भारत चीन के साथ अपने संबंध बिगाड़ क्यों नहीं रहा। वास्तविकता यही है कि अमेरिका पिछले लगभग एक दशक से इसी कोशिश में है कि भारत और चीन आपस में लड़ जाएं। अपने पहले कार्यकाल में अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने तो भारत से खुले आम कहा भी था कि वह चीन पर हमला कर दे। लेकिन भारत उसके उकसावे में नहीं आया। ट्रंप के बाद जब जो बाइडेन जब राष्ट्रपति बने तो उन्होंने अफगानिस्तान में भारत के हितों की अनदेखी करते हुए अचानक वहां से अपनी सेना को हटाया था।
अमेरिका का इतिहास रहा है कि उसने हमेशा दूसरे देशों की जमीन पर अपनी लड़ाई लड़ी है। लड़ाई करवाकर अपने वर्चस्व को बरकरार रखना उसकी फितरत है। इसके लिए वह हर तरीके का इस्तेमाल करता है। नाटो के रूप में अमेरिका का पिछलग्गू बना यूरोप इसमें उसे पूरा सहयोग करता है। आजकल एशिया-प्रशांत (एशिया-पैसिफिक) क्षेत्र के लिए अमेरिका और नाटो ने मीडिया में हिंद-प्रशांत (इंडो-पैसिफिक) के नाम से प्रचारित करना शुरू कर दिया है। ऐसा करके वह एशिया-प्रशांत क्षेत्र के देशों, विशेष रूप से चीन को यह संदेश देना चाहता है कि इस इलाके में भारत का सबसे पहला हक बनता है। साथ ही वह भारत को भी सीधे-सीधे उकसाने की कोशिश कर रहा है। लेकिन यह अच्छी बात है कि भारत और चीन उसके गंदे खेल को समझ रहे हैं।
भारत के पड़ोसी देशों में तख्तापलट का खेल इस तरफ भी इशारा कर रहा है कि वह भारत में उथल-पुथल मचाने की कोशिश में अभी तक विफल रहा है। इसलिए पड़ोसी देशों में ही अस्थिरता पैदा कर रहा है, जिससे कि भारत कमजोर हो सके।
कुल मिलाकर अब भारत और अमेरिका एक ऐसे मोड़ पर आ गए हैं, जहां भारत को तय करना है कि वह अपने हितों को सुरक्षित करने के लिए क्या कदम उठाए। भारत पड़ोसी प्रथम की नीति का बार-बार जिक्र करता है, लेकिन श्रीलंका, बांग्लादेश और अब नेपाल के तख्तापलट ने इस नीति पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं।
हमें स्वीकार करना ही पड़ेगा कि हमारी “पड़ोसी प्रथम” नीति बुरी तरह विफल रही है। हमारी खुफिया एजेंसियों को इन पड़ोसी देशों की घटनाओं को रोक पाना तो दूर, इसकी भनक तक नहीं लग पाई। यह हमारी घोर विफलता है। यह बिलकुल स्पष्ट है कि अब चालाक दोस्त की आदत और फितरत का पता चल जाने के बाद हमें अपनी विदेशनीति के ढीले पड़ चुके कल-पुर्जों को फिर से कसना होगा। यह काम किसी नौकरशाह के वश का नहीं है। इसके लिए किसी मंजे हुए राजनेता को विदेश मंत्रालय की कमान सौंपने के बारे में भारत सरकार को गंभीरता से विचार करना चाहिए और जितना जल्द हो सके निर्णय लेना चाहिए। हमें “पड़ोसी प्रथम” नीति के तहत यह देखना बेहद जरूरी है कि पड़ोसी देशों में होने वाली उथल-पुथल में हमारी प्रमुख भूमिका रहे और इसके असर से हमारी सीमाएं सुरक्षित रहें। ऐसा करके ही भारत विश्वगुरु बनने और महाशक्ति बनने के सपने को साकार कर सकता है।

(लेखक आज अख़बार के नेशनल ब्यूरो हैं)