लेखक -रंगनाथ सिंह
दुनियाँ का सर्वाधिक ताकतवर देश अमेरिका ही नही बल्कि सभी लोकतंत्र की राह वाले राष्ट्र में सनसनी फ़ैल गयी कि पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की ह्त्या करने के लिए एक युवक ने गोलियां चला दी।
डोनाल्ड ट्रम्प से नफ़रत करने वाले युवक जॉन मैथ्युज ने यह हमला करने से पूर्व सोशल मिडिया पर अपनी नफ़रत का इजहार भी किया था।
हमलावर सुरक्षा में लगे स्नैपर मैन की जवाबी कार्रवाई में मारा जा चुका है।
हालांकि ट्रम्प पर हुए हमले में उनकी जान जा सकती थी अगर वह रैली में बोलते वक्त हल्के से मुह को घुमाये न होते तो।
सवाल तो सुरक्षा एजेंसियों पर भी खड़े हो रहे हैं कि ज्यो ही हमलावर जार्ज मैथ्युज ने रायफल निकाला तब ही क्यों नही उसको मार गिराया गया!
मालूम हो कि ट्रम्प से पहले भी अमेरिका के कई राष्ट्रपतियों पर जानलेवा हमला हो चुका है। अब्राहम लिंकन और जॉन एफ कैनेडी समेत चार नेता अमेरिकी राष्ट्रपति की पद पर रहते हत्या हो चुकी है। ट्रम्प समेत दो पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति जानलेवा हमले में सौभाग्य से बच गये। भारत में महात्मा मोहनदास गांधी, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की हत्या हो चुकी है। जब समाज का एक वर्ग किसी एक व्यक्ति को किसी सामाजिक-राजनीतिक समस्या का एकमात्र जिम्मेदार ठहराने लगता है तो उस वर्ग के बीच से कोई न कोई सिरफिरा यह सोचने लगता है कि उस व्यक्ति के खात्मे के साथ ही वह समस्या खत्म हो जाएगी!
राजनीतिक नफरत से प्रेरित हत्याओं की सबसे बड़ी खतरा ये है कि उनसे हत्याओं का सिलसिला शुरू होने का डर रहता है। इसके बावजूद गैर-जिम्मेदार लोग ऐसे बीज समाज में रोपते रहते हैं जिनके परिणाम हिंसक हो सकते हैं।
भारत में जब किसी सिरफिरे ने पीएम नरेंद्र मोदी के काफिले पर चप्पल उछाल दी तो एक गैर-जिम्मेदार नेता ने कहा कि लोगों ने डरना बन्द कर दिया है!
इसी तरह पिछले वर्ष किसान आंदोलन की आड़ में कथित किसान नेताओं और कनाडा में बैठे खालिस्तानी समर्थको के द्वारा प्रधानमंत्री मोदी के विरुद्ध, देश के विरुद्ध नफरत फैलाई जा रही थी और उस आंदोलन में शामिल तमाम किसान रूपी एजेंडा बाज़ लोग मोदी की कब्र खोदने और मौत की मन्नत मांग देश के कुछ वर्ग में नफरत का जहर घोल रहे थे।
जिसका परिणाम रहा था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक पुल पर SPG, NSG वाले अपनी सुरक्षा घेरे में लंबे समय तक घेरे रहे। जबकि पुल के नीचे दोनों सिरों पर हजारों उपद्रवियों की भीड़ की मंशा यही थी मोदी जी को जिंदा वापस नही जाने देना है।
पँजाब की आम आदमी पार्टी की सरकार और उसकी पुलिस देश के प्रधानमंत्री की सुरक्षा करने में पूरी तरह से विफ़ल साबित हुए थे।
यह जहरीली नफरत की सबसे ताजा यथार्थ देखा था देश और दुनिया ने।
कुछ दिन पूर्व हिमांचल प्रदेश की मंडी लोकसभा सीट से सांसद व फिल्म अभिनेत्री कंगना रनौत को एक महिला सुरक्षाकर्मी ने चंडीगढ़ के एयर पोर्ट पर थप्पड़ मार दिया तो लोगों ने कहा कि चार साल पुराने एक डिलिट किए जा चुके ट्वीट से नाराज थी लोगों को सोच-समझकर बोलना चाहिए।
मेरे ख्याल से ऐसे ज्यादातर बचकाने बयान ऐसे लोग देते हैं जो लम्बे समय से सेफ-जोन में जी रहे होते हैं। उनकी जबान समझदारी भरी बातें करती प्रतीत होती है लेकिन उनके अन्दर यह अहसास नहीं होता कि उनके बयान का क्या दुष्परिणाम हो सकता है! वे यह नहीं सोच-समझ पाते हैं कि अगर कोई उनसे डरना बन्द कर देगा तो उनका क्या होगा? अगर कोई उनके किसी चार साल पुराने डिलीट किए जा चुके ट्वीट से नाराज होगा तो उनका क्या होगा!
सबसे बड़ी बात ये है कि अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प को शैतान ठहराने वाले हों या भारत में नये पैदा हुए राजनीतिक संप्रदाय “डरो मत” के लोग हों, ये सभी जन समाज की उस विचारधारा के प्रतिनिधि हैं जो खुद को उदार-प्रगतिशील और न जाने क्या-क्या कहते जाने किंतु देश में इसकी आड़ में अपनी जगह विरोधी को सत्ता में देख कर उनके प्रति जहर भरने की हद तक नफ़रत की राजनीति करते हैं।
कम्युनिस्ट इत्यादि विचारधाराओं का सामूहिक हिंसा से नाभिनालबद्ध सम्बन्ध रहा है लेकिन भारत में कई लोकतांत्रिक विचारधाराएँ भी अब हिंसा-वाद को शरण देती प्रतीत होती हैं। एक ऐसा वर्ग हमारे बीच उभर हो चुका है जो हिंसा के आह्वान को सामाजिक सशक्तिकरण समझने लगा है!
लोकतांत्रिक उपचारों से सशक्त हुए कुछ लोगों को लगने लगा है कि उनके पास इतनी ताकत आ गयी है कि अब दूसरों को रौंद सकते हैं! अफसोस होता है कि ऐसे हिंसा-लोलुप जन में ऐसे लोग भी हैं जिन्हें सक्षम बनाने के लिए सामूहिक प्रयास किये गये हैं। कई लोग तो फैसल खान की तरह दो-चार पीढ़ी पहले का बदले लेने की बात करते हैं! ऐसे ज्यादातर लोगों को यह भ्रम होता है कि उनके पीछे एक जनसैलाब खड़ा है इसलिए उनके पास हिंसा करने का अधिकार आ गया है! इतिहास गवाह है कि पहली गोली चलती ही भीड़ छँट जाती है! कई बार क्षणिक उत्तेजना में हिंसा कर बैठने वाले भी अपने किए का परिणाम सामने देखकर गीदड़भभकी देना भूल जाते हैं।
भारत में चार जून से पहले तरह-तरह के अनिष्ट की आशंका व्यक्त की जा रही थी कि ये नहीं हुआ तो वो हो जाएगा! चूंकि परिणाम ऐसी धमकियाँ देने वाले वर्ग के अनुकूल आया तो यह देखना रह गया कि परिणाम कुछ और होता तो क्या होता! पंजाब और बंगाल में पूर्ण जनसमर्थन मिलने के बाद भी हिंसक घटनाएँ हुईं यानी जहाँ ऐसे लोग जीतते हैं वहाँ खुशी में हिंसा करते हैं, और जहाँ हारते हैं, वहाँ गम में हिंसा करने की धमकी देते हैं! नवजागरण और प्रबोधन के अगुवा फ्रांस में भी ऐसा ही हुआ। पहले चरण में मिली हार से नाराज होकर हिंसा करने वालों ने दूसरे चरण में मिली जीत की खुशी में हिंसा की!
छोटे-बड़े स्तर पर हिंसा के दर्शन को पालने-पोसने वालों से कहना चाहूँगा कि आपको जो राजनीति पसन्द हो करिए लेकिन लोकतांत्रिक तरीके से करिए। संविधान की सीमा में रहकर जनमत को अपनी तरफ मोड़ने का प्रयास करिए लेकिन किसी हिंसक गैर-कानूनी कृत्य को बढ़ावा मत दीजिए। सार्वजनिक जीवन में व्यवधान पैदा करने या सार्वजनिक सम्पत्ति के तोड़फोड़ इत्यादि के लिए उकसाने से बचिए। लोकतांत्रिक रास्तों को छोड़कर हिंसक रास्ते अपनाने की आलोचन करिए। अगर किसी कारणवश ऐसे कृत्य की आलोचना नहीं कर सकते हैं तो कम से कम उसका समर्थन मत करिए। यह कतई न भूलिए आपका पाला-पोसा प्यारा शेर, आपको पीछे दबे पाँव चुपचाप घात लगाये बैठा रहता है,
“लगेगी आग तो आएंगे कई घर जद में।
यहाँ पर सिर्फ हमारा मकान थोड़ी है”
उक्त शेर के जनक इन्दौरी साहब जहाँ भी हों, उन्हें “राहत” मिले।
(लेखक राजनीतिक समीक्षक हैं)