लेखक~मुकेश सेठ
अंग्रेजी सेना के तमाम बड़े अधिकारियों सहित बड़ी सँख्या में मारे गए सैनिकों से क्रुद्ध अंग्रेजों ने आलमबाग के पास के फांसी दरवाजा में अनगिनत लोगों को लटकाया था फाँसी पर
♂÷देश को स्वतंत्रता”बिना खड्ग बिना ढाल” के नही मिली है बल्कि करोड़ भर से ऊपर ने अपना सबकुछ प्राणों समेत बलिदान देकर क्रूर ब्रिटिश साम्राज्य से हासिल की है।
कहने में गुरेज़ नही होना चाहिए कि कतिपय सत्ता के दरबारी इतिहाकारो नें अपने स्वार्थ की लोलुपता में राष्ट्र के ऊपर कथित ऐसे नायकों को बाकलम लाद देने जैसी कोशिश कर, एक तरह से वास्तविक आज़ादी के लिए प्राणों के बलिदान से लेकर सबकुछ कुर्बानी देने वाले असल राष्ट्रनायकों के साथ न्याय नही किया है।
उत्तरप्रदेश की राजधानी लखनऊ की नजाकत नफासत की कहानियां दुनिया भर में कही जाती हैं लेकिन यह चर्चा नहीं होती कि वर्ष 1857 की क्रांति यहां आम लोगों ने लड़ी और बाकी जगहों से अधिक देर तक ब्रिटिश कम्पनी सरकार को नाकों चने चबवा दिए थे।
अंग्रेज इतिहासकारों ने कुटिल रूप से भले ही इसे ईसाइयों पर मुसलमानों का हमला प्रचारित किया हो लेकिन मडियांव छावनी में 6000 लोगों ने अंग्रेजो के खिलाफ युद्ध छेड़ा तो इनमें अधिक संख्या सामान्य नागरिकों की ही थी। आम नागरिकों के सहयोग से लड़ा गया चिनहट का वह भीषण संघर्ष था कि जिसने अंग्रेजो को रेजीडेंसी में समेट दिया।
लखनऊ ही वह शहर है जहां सबसे अधिक अंग्रेज अफसर मारे गए थे। 2 जुलाई वर्ष 1857 को चीफ कमिश्नर हेनरी लॉरेंस की जांघ पर तोप का गोला लगा और अगले दिन वह मर गया। मेजर जनरल हैवलक घायल होकर दिलकुशा कोठी में मरा। मेजर हडसन को बेगम कोठी के पास क्रांतिकारियों ने गोली मारी और वह घायल होकर कोठी हयात बख्श भागा और कुछ दिन बाद वह भी वही मरा। 29 जून को इस्माइल गंज के पास आज़ादी के मतवालों ने कर्नल विलियम केस को मारा। रेजीडेंसी के घेरे में कैप्टन फुलटन और मेजर बैंक्स मारे गए। 86 दिनों तक रेजीडेंसी का घेरा आम लोगों के क़ब्जे में रहकर उनकी बदौलत ही चला था।
आज जहां मेडिकल कॉलेज है वहां तब मछ्ली भवन होता था। 1 वर्ग मील में फैले अंग्रेजों के इस किले में मुबारक महल और पंचमहल नाम की दो दर्शनीय इमारतें थी लेकिन एक रात में क्रांतिकारियों ने बारूद लगाकर मछली भवन को खंडहर कर दिया था। इसके पहले कदम रसूल का हथियार खाना भी आमजन नागरिक लोग ही नष्ट कर चुके थे।
लखनऊ के पास रानी झांसी या तात्या टोपे नहीं थे। बेगम हजरत महल साहसी थी लेकिन युद्ध छिड़ने के कुछ समय बाद ही वह नेपाल चली गई। मौलवी अहमद शाह उर्फ डंका शाह शूरवीर थे लेकिन उनमें और बेगम हज़रत महल में कभी आपस में सामंजस्य नहीं बन पाया।
मार्च वर्ष 1858 तक लखनऊ अगर अंग्रेजों के विरुद्ध सशस्त्र क्रान्ति की आग में दहकता, सुलगता रहा और अंग्रेजों के काबू ना आया तो इसका कारण नेतृत्व नहीं बल्कि उसके बगैर मातृभूमि के लिए प्राण न्योछावर करने वाले आमजन थे।
उदाहरण है आलमबाग कोठी के पास बना फांसी दरवाजा। कोई गिनती नहीं कि वहां कितने क्रांतिकारियों और आम नागरिकों को जालिम अंग्रेजों ने मारा और फांसी पर लटका दिया। कानपुर से भारी सैनिक सहायता लेकर आ रहे मेजर जनरल हैवलक का यहां इतना प्रबल प्रतिरोध हुआ कि फिर उसकी शहर में घुसने की हिम्मत ना हुई और वह खेतों-खेतों होकर दिलकुशा पहुंचा और वहां से मोती महल जाकर उसकी भेंट शहर में फंसी अंग्रेज सेना से हुई।
इसके बाद अंग्रेजों की आम लोगों और क्रांतिकारियों की संयुक्त सेना से तारा वाली कोठी और चिरैया झील के पास भयंकर लड़ाई हुई। साधारण लोगों के पास गोला-बारूद कहां से आता तो वह बंदूकों में तांबे के सिक्के जानवरों के सिंघऔर लोहे के टुकड़े भरते।
9 मई वर्ष 1857 को हेनरी लॉरेंस ने लॉर्ड कैनिंग को जो पत्र लिखा वह यह साबित करने के लिए पर्याप्त है कि अंग्रेजो के खिलाफ भारतीयों की भावनाएं बेहद उग्र हो चुकी थी।
वह लिखता है, “मेरा जमादार अवध तोपखाने का सिपाही है ,40 साल का है, ब्राह्मण है, ईमानदार है और कहता है कि अंग्रेज पाखंडी है क्योंकि उन्होंने धोखे से लाहौर और भरतपुर लिया।”
आम जनों के अंदर पल रहा यही आक्रोश अंग्रेजों को भारी पड़ा और लखनऊ (अवध ) में क्रांति की आग पर काबू करने के लिए अंग्रेजों को सबसे अधिक संघर्ष करना पड़ा। सितंबर वर्ष 1858 में अंग्रेज दिल्ली जीत चुके थे जबकि अवध में नवंबर वर्ष 1858 में वह पूरी तरह से स्थापित हो पाए।
यह घटनाक्रम दर्शाने के लिए पर्याप्त है कि देश को ब्रिटिश दासता से मुक्ति दिलाने के लिए कुछ ही नेताओं को इतिहासकारों ने देश के सम्मुख नायक बनाकर लाद सा दिया ,किन्तु उन लाखों-लाख असल नायक क्रांतिकारियों को लगभग भुला दिया गया या फ़िर कथित इतिहाकारो ने उनको उनके सर्वोच्च बलिदान और आज़ादी की लौ को ज्वाला बनाने में दिए गए योगदान को बेहद ही कमतर कर दिया गया है।
जो देश अपने असल नायकों,इतिहास को नही जान पाता वह राष्ट्र शनै-शनै अपने स्वाभिमान, ताक़त, सम्प्रभुता, सभ्यता, संस्कृति और भूगोल को भी छीजने लगता है।
÷लेखक स्वतन्त्र पत्रकार हैं÷