लेखक: संदीप पाण्डेय
ईरान-इज़राइल संघर्ष में सुन्नी बहुल देशों की सरकारें, जनता और अभिजात वर्ग तीनों ने मिलकर चुप्पी साध ली और ईरान के समर्थन में खुलकर सामने नहीं आए.अरब मीडिया में ईरान पर इज़राइली हमलों या उसके जवाबी हमलों को लेकर बहुत सीमित कवरेज रही। यह दर्शाता है कि बुद्धिजीवी, पत्रकार और लेखक जो आमतौर पर ऐसे मुद्दों पर मुखर होते हैं, अपेक्षाकृत चुप रहे।Pew Research और Al Jazeera Centre for. Studies की पुरानी रिपोर्टें भी दिखाती हैं कि सुन्नी बहुल मुल्कोँ की जनता में ईरान के प्रति असहजता और अविश्वास पहले से ही मौजूद हैं, जिस कारण संघर्ष के समय सहानुभूति में नहीं बदली।
आज का इस्लामी विश्व, विशेषकर पश्चिम एशिया, एक गहरे संप्रदायिक विभाजन से ग्रस्त है। सुन्नी और शिया समुदायों के बीच यह दरार केवल धार्मिक स्तर पर सीमित नहीं है, बल्कि यह भू-राजनीतिक समीकरणों और अंतर्राष्ट्रीय संबंधों को भी प्रभावित कर रही है। इस विभाजन के सबसे प्रमुख और स्पष्ट उदाहरणों में से एक ईरान की स्थिति है, जो कि एक शिया बहुल देश हैं.
जब भी ईरान पर किसी बाहरी शक्ति का राजनीतिक, सैन्य या आर्थिक दबाव पड़ता है, तो आशा की जाती है कि इस्लामी एकता के आधार पर मुस्लिम देश उसका समर्थन करेंगे। परंतु वास्तविकता इसके एकदम विपरीत है। किसी भी बड़े सुन्नी राष्ट्र ने अब तक खुले रूप से ईरान के साथ खड़े होने का साहस नहीं दिखाया है। सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, मिस्र, तुर्की जैसे क्षेत्रीय शक्तिशाली देश ईरान के प्रति या तो उदासीन हैं या विरोध की मुद्रा में रहते हैं। तुर्की ने इस जंग इजरायल का मौखिक विरोध किया.यह चुप्पी केवल ईरान के मामलों तक सीमित नहीं है। फ़िलिस्तीन जैसे मुद्दे, जिन पर एक समय मुस्लिम जगत की एकजुटता देखने को मिलती थी, आज उन पर भी अधिकांश सुन्नी देशों का रुख या तो तटस्थ है या व्यावसायिक और कूटनीतिक संतुलन के आधार पर तय किया जाता है।
विश्व की दो सबसे बड़ी मुस्लिम आबादी वाले देश पाकिस्तान और इंडोनेशिया ने भी हाल के वर्षों में ईरान के समर्थन में कोई ठोस या मुखर रुख नहीं अपनाया। पाकिस्तान का इतिहास तो और भी गहरा है। वहां के पूर्व सैन्य तानाशाह जनरल ज़िया-उल-हक़ ने एक समय शिया मुसलमानों को गैर-मुस्लिम करार दिया था। यह बयान केवल एक व्यक्ति की राय नहीं थी, बल्कि उस विचारधारा का प्रतिनिधित्व करता था जो सुन्नी वर्चस्व को ही इस्लामी पहचान का आधार मानती है।
दिलचस्प तथ्य यह है कि जिन देशों ने हाल के वर्षों में ईरान का समर्थन किया है, वे इस्लामी राष्ट्र नहीं हैं। रूस जो एक ऑर्थोडॉक्स ईसाई राष्ट्र है, और चीन जो एक नास्तिक कम्युनिस्ट राष्ट्र है ने ईरान के साथ आर्थिक, रक्षा और ऊर्जा आधारित साझेदारी को प्राथमिकता दी है। इन दोनों देशों के लिए धर्म कोई मायने नहीं रखता। वे केवल ईरान को एक ऐसे साझेदार के रूप में देखते हैं जिससे उन्हें क्षेत्रीय संतुलन बनाए रखने, पश्चिमी वर्चस्व को चुनौती देने और अपने ऊर्जा हितों की रक्षा करने में मदद मिल सकती है।
यह परिदृश्य इस बात का गहरा संकेत है कि इस्लामी दुनिया में अब ‘उम्मा’ (एकजुट मुस्लिम समुदाय) की भावना केवल एक आदर्श बनकर रह गई है। धार्मिक पहचान की एकता को अब व्यावहारिक रणनीति और भू-राजनीतिक हितों ने पीछे छोड़ दिया है। मुस्लिम देशों के आपसी रिश्ते अब इस बात पर निर्भर नहीं करते कि कौन मुसलमान है और कौन नहीं, बल्कि इस बात पर तय होते हैं कि कौन कितना उपयोगी है, कौन कितना ताकतवर है, और किससे किसे कितना लाभ हो सकता है।
ईरान के उदाहरण से यह स्पष्ट होता है कि मुस्लिम दुनिया में संप्रदायवाद, सामरिक स्वार्थ और वैश्विक गठबंधनों की राजनीति ने धर्म और एकता की भावनाओं को पीछे छोड़ दिया है। इस्लामी एकता की बातें केवल सम्मेलनों और भाषणों में सुनाई देती हैं, जबकि ज़मीनी हकीकत इससे बहुत दूर है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और यह उनके निजी विचार हैं)