लेखक~हिमांशु मिश्र
♂÷हम बिहार-यूपी के लोग गजबे हैं। अपने यहां सवाल नहीं करते, दूसरे गरियाते हैं तो उसके पीछे पड़ जाते हैं।
बाहर के राज्यों में गालियां सुन कर अनदेखी करते हैं, वह इसलिए कि जवाब देने की हैसियत ही नहीं है हमारे पास। हमारे पास सवालों के जवाब ही नहीं है। बस एक हेठी है, जिसको सिरहाने तकिया बना कर हम आज भी सोते रहे हैं।
पहले राज ठाकरे के पीछे पड़े थे, अब गोवा के मुख्यमंत्री प्रमोद सावंत के पीछे पड़ेंगे। राज ठाकरे ने कहा था कि ये उत्तर भारतीय यहां आते क्यों हैं? अपने राज्य में जाओ, वहां रोजगार मांगो। इस पर बवाल हुआ था। अब गोवा के मुख्यमंत्री प्रमोद सावंत ने कहा है कि उनके राज्य में 90 फीसदी अपराध इन्हीं दो राज्यों के लोग करते हैं। इस पर राजनीति गरम है। मगर कुछ सवाल हैं जिस पर हम बिहारी और यूपी वाले विचार नहीं करते। सवाल नहीं करते। थोथा तर्क देते हैं। सबसे बड़ा थोथा तर्क और दावा तो यह है कि बिहार आईएएस-आईपीएस की फैक्ट्री है। यहां भूल जाते हैं कि जब से वैश्य और दूसरी बिरादरी ने इस ओर ध्यान देना शुरू किया है तब से हमारी आईएएस-आईपीएस बनाने की फैक्ट्री लघु उद्योग में बदल गई है।
कुछ सवाल हैं जिस पर बिहार-यूपी वालों को विचार करना चाहिए-
1÷ राजस्थान का कोटा- इंजीनियर बनाने की फैक्ट्री। मगर तथ्य यह है कि यहां पढऩे और पढ़ाने वाले नब्बे फीसदी बिहारी हैं। सवाल है कि बिहार का एजुकेशन हब कहां गया। पहले पटना, भागलपुर, मुजफ्फरपुर, इलाहाबाद, बनारस था। अब हमारे पास बाबाजी का ठुल्लु है। कभी पूछा है कि जब पढऩे वाले हम और पढ़ाने वाले हम तो कोटा क्यों जाएं?
2÷ दिल्ली में आईएएस-आईपीएस, सीए बनाने के लिए कोचिंग सेंटर कुकुरमुत्ते की तरह उग आए हैं। मुखर्जी नगर, पटेल नगर न जाने कौन कौन से नगर हैं जहां यह उद्योग का रूप ले चुका है। यहां भी कभी चक्कर लगाईये। पढऩे और पढ़ाने वाले यूपी-बिहार के मिलेंगे। सवाल फिर वहीं है पढऩे और पढ़ाने वाले हम तो सैकड़ों किलोमीटर धक्के खा कर यहां जानवर की तरह जीने का दंश हम ही क्यों भोग रहे हैं?
3¡ इन दोनों राज्यों में नए उद्योग लगना तो दूर पुराने सारे उद्योग खत्म हो गए। बस एक ही उद्योग है जो अमेरिका और चीन की अर्थव्यवस्था से भी आगे है। अपराध का उद्योग। मगर इन दो राज्यों की पुरानी कहावत है। हमारे दादा के पास हाथी था। सबूत के तौर पर दरवाजे पर रखी जंजीर दिखाई जाती है। कभी इस पर विचार नहीं किया कि अब हाथी की जगह दरवाजे पर जंजीर क्यों बंधी है। इतना बड़ा हाथी कहां गया?
4÷ बुद्धिजीवी तर्क देंगे कि इन दोनों ही राज्यों के साथ नाइंसाफी हुई। आजादी के बाद राज्य के विकास पर ध्यान नहीं दिया गया। सवाल है कि संयुक्त बिहार और संयुक्त उत्तर प्रदेश की आजादी के बाद से अब तक राष्ट्रीय राजनीति में तूती बोलती रही है। सवाल यह है कि तब से अब तक क्या हमारे नेता विकास की दृष्टि पेश करने और उसे अपनाने के बदले झाल बजाते रहे? मगर ये सवाल कोई नहीं पूछेगा।
5÷ वर्तमान ही देखिये। दोनों ही राज्यों में शिक्षा व्यवस्था ध्वस्त है। पलायन चरम पर है। हंसने की बात यह है कि रोजगार की तलाश में पलायन करने वाले, शिक्षा के लिए पलायन करने वाले, बेहतर स्थिति के लिए पलायन करने वाले भी मेरे दादा के पास हाथी था कि मानसिकता से मजबूती से जकड़े हुए हैं। ये वर्ग यह सवाल नहीं करता कि हर महीने में दस-बारह हजार रुपये हासिल करने के लिए उन्हें सैकड़ों किलोमीटर दूर जानवर का जीवन क्यों व्यतीत करना पड़ता है।
6÷ एक बार मुझसे केंद्रीय मंत्री गडकरीजी ने कहा था बिहार का कुछ नहीं हो सकता। वह इसलिए कि वहां के नेतृत्व में विजन नहीं है। इसके लिए उन्होंने नागपुर का उदाहरण दिया था। उन्होंने कहा था कि संतरा के लिए प्रसिद्ध नागपुर में इसका छिलका और बीज तक व्यर्थ नहीं जाता। सबकी मार्केटिंग है। आपके यहां लीची, मक्का और आम जरूरत से ज्यादा है। मगर इससे जुड़ा एक भी उद्योग नहीं है। हमारा लंगड़ा आम सबसे पहले पकने वाला जर्दालू आम का कोई जवाब नहीं, मगर दुनिया महाराष्ट्र के अलफांसो आम को जानती है, मुजफ्फरपुर की लीची, जूट का भी जवाब नहीं, मगर इनसे जुड़ा एक भी उद्योग राज्य में नहीं है।
7÷ केंद्रीय मंत्री रहते एक बार रघुवंश बाबू ने बताया। जूट से जुड़ी फैक्ट्री बिहार के सीमांचल में स्थापित करने के लिए उन्होंने कई बार कोशिश की। खुद बिहार सरकार को प्रस्ताव भेजने का लगातार अनुरोध किया। मगर कोई प्रस्ताव नहीं आया। दूसरी ओर तमिलनाडु के सांसदों की टीम इसी फैक्ट्री के लिए मंत्रालय में रोज धमक जाती थी। प्रस्ताव के अभाव में उन्हें तमिलनाडु के अनुरोध को स्वीकार करना पड़ा।
- इन दोनों ही राज्यों में सामाजिक न्याय की राजनीति चरम पर रही है। और सामाजिक न्याय की राजनीति का अर्थ बस सरकारी नौकरी में आरक्षण रह गया है। उस सरकारी नौकरी में आरक्षण जो है ही नहीं। निजीकरण के दौर में इतनी सरकारी नौकरी बची है जिसे 140 करोड़ की जनसंख्या वाले देश में आप देख और समझ भी नहीं सकते। सरकारी नौकरी के संदभ्र में को इस कहावत से जोड़ा जा सकता है। पोखर-तालाब में मछली नहीं है तो महाजाल गिराने से क्या होगा? मगर हम इन दोनों राज्यों के लोग किसी विभाग में पांच सौ पदों की निकली भर्ती पर समाचार माध्यमों में लिखी और बताई गई बंपर भर्ती से ही आत्ममुग्ध हैं। दोनों ही राज्य अलग-अलग दलों के समर्थक जातीय समूह में आजादी के बाद से ही अब तक बंंटा है और प्रसाद स्वरूप बाबाजी का घंटा हासिल कर रहा है।
~ मोरल ऑफ स्टोरी- राजनीतिक दलों का घंटा बजाईये और प्रसाद में बाबा जी का ठुल्लु पेश है।

÷लेखक अमर उजाला के नेशनल ब्यूरो इन चीफ़ के रूप में दिल्ली में कार्यरत हैं÷