लेखक- डॉक्टर विजय मिश्र
मुझे मालूम है कि आपके क्या ख्याल हैं पर क्या आपको मालूम है कि दुनिया में स्थापित नैरेटिव क्या है?
दुनिया यही बोल रही है कि इजरायल गाज़ा में महिलाओं और बच्चों को मार रहा है, उनपर बमबारी कर रहा है, अगवा हुए और कत्ल हुए इसराइलियों की कोई चर्चा ही नहीं है और यह तब है जबकि दुनिया में यहूदी प्रचार तंत्र बेहद मजबूत है।पर वह भी वामपंथ के पसंद की नैरेटिव के विरुद्ध अपनी बात सामने नहीं रख पा रहा है,बल्कि इजराइल के भीतर बैठे वामपंथी सरकार पर हमास से समझौते का दबाव बना रहे हैं।
दुनिया में यहूदियों के विक्टिमहुड की इतनी कहानियां हैं, इतनी फिल्में बनी हैं और इतनी किताबें लिखी गई हैं. पर वह सब इसीलिए स्थापित हो पाईं क्योंकि वे नाजी उत्पीड़न के विरुद्ध थीं जो वामपंथ के काम की बात थी। यहूदियों के इस्लामिक उत्पीड़न पर आपको कोई किताब या फिल्में नहीं मिलेंगी, कैसे चार अरब देशों की सेनाओं ने नव निर्मित यहूदी राज्य पर आक्रमण किया और यहूदियों ने कैसे उनका प्रतिकार किया, मारा और युद्ध में शर्मनाक रूप से परास्त किया।इस पर आपको कुछ भी नहीं मिलेगा क्योंकि यह पॉपुलर विक्टिमहुड नैरेटिव का अंग नहीं है।
अभी पिछले दिनों ब्रिटेन के साउथपोर्ट में तीन बच्चियों की हत्या एक अफ्रीकी मूल के व्यक्ति ने कर दी। इसके विरोध में यहां की राइट विंग ने कई शहरों में विरोध प्रदर्शन किया लंदन में एक बड़ी रैली निकली थी लेकिन विरोध प्रदर्शन ज्यादातर जगहों पर फीका ही रहा,मुझे एक ऐसे विरोध प्रदर्शन में कुल तीस चालीस लोग दिखे पर मीडिया में यह नैरेटिव बन गया कि पूरे इंग्लैंड में इस्लाम विरोधी नस्लवादी हिंसा की लहर चली हुई है और मुस्लिम डर के साए में जी रहे हैं।मासूम बच्चियों की निर्मम हत्या का विषय जनमानस से धुल पुंछ गया,सोशल मीडिया तक पर इसपर लिखने पर कड़ी कारवाई की गई. पूरा विमर्श ही उलट गया।
ये बातें कह रहा हूं सिर्फ यह बताने के लिए कि हम आज किस दुनिया में जी रहे हैं,हमारा सामना जिस मशीनरी से है वह कितनी गहरी और ताकतवर है। हमने कम्युनिस्ट सोवियत रूस और उत्तर कोरिया का जीवन नहीं देखा है, पर जिन्होंने जॉर्ज ऑरवेल की पुस्तक 1984 पढ़ी हो वे उसकी आहट सुन सकते हैं।
ऐसी दुनिया में भारत एक आइलैंड है जहां आप अब भी कुछ लिख बोल सकते हैं और उसके लिए अभी तक आपको कोई निजी कीमत नहीं चुकानी पड़ती है, पर उसका सबसे बड़ा नुकसान यह है कि आपको घर बैठे शत्रु की शक्ति का अंदाजा नहीं लग पा रहा। जब किसी को कहते सुनता हूं कि दस साल हो गया, अब तक अपना इकोसिस्टम क्यों नहीं बना, तब लगता है कि आपके मस्तिष्क में ईकोसिस्टम की जो तस्वीर है वह शायद कमोड के फ्लश जैसी है कि प्लंबर बुलाया, बाजार से लाए और लगवा लिया।
उसके पीछे जो इंटेलेक्चुअल इनपुट चाहिए वह कहीं अस्तित्व में ही नहीं है. चार लोग आपको सोशल मीडिया पर चार लाइन लिखते मिलते हैं और आपको लगता है कि आपके पास अपना ईकोसिस्टम बिल्ड करने के लिए पर्याप्त मैटेरियल है।जिनको आप अपने इकोसिस्टम का रॉ मैटेरियल समझते हैं, उन लोगों को कभी नजदीक से ठोक बजा कर देखने का मौका आपको शायद नहीं मिला है मिला होता तो जानते,नरेंद्र मोदी दस वर्षों में कोई ईकोसिस्टम क्यों नहीं बना सकते।
यह तीन इलेक्शन टर्म का नहीं तीन पीढ़ियों का काम है, आप आज जागे हैं और बोल रहे हैं कि ऐसा एक इकोसिस्टम होना चाहिए,यह आप बोल पा रहे हैं तो इसलिए कि संयोग से आपके पास एक फेवरेबल सरकार है,अगर 2014 में सत्ता परिवर्तन नहीं हुआ होता तो आप हथियार डाल चुके होते।
इंग्लैंड की बात करूं तो यहां किसी को इसकी खबर ही नहीं है कि ऐसे एक इकोसिस्टम की जरूरत भी है, कोई इसकी बात सोचता भी नहीं, पूरा देश ही ब्रेनवाश हो रखा है और यह दस या बीस वर्षों में नहीं हुआ है। जिस व्यवस्था ने लोगों के मस्तिष्क की यह अवस्था की है वह इकोसिस्टम कम से कम सवा सौ साल पुराना है।
आपको हड़बड़ी है कि आपकी सरकार है तो दस वर्षों में सब कुछ वापस क्यों नहीं पलट गया,हर बात आपके पसंद की क्यों नहीं हो रही तो आप अपनी सरकार को पलट दे सकते हैं।
सदियों की गुलामी के हार्मोन जोर मार रहे हैं तो उनकी ही सुन लीजिए, लेकिन सभ्यताओं का सर्वाइवल धैर्य का खेल है यह एक ग्रोन-अप स्पोर्ट है, बच्चों का खेल नहीं है।

(लेखक लंदन में चिकित्सक हैं और यह उनके निजी विचार है)