लेखक- मधुसूदन पाराशर “देवारंय”
समाजवादी पार्टी से सांसद रामजीलाल सुमन कोई दूध पीते बच्चे नहीं हैं ना ही यह कोई स्लिप ऑफ़ टंग हो गया ना यह रामजीलाल सुमन की कोई व्यक्तिगत सोच भर है।
मुगल आक्रान्ता औरंगजेब से तीन पीढ़ी पहले के योद्धा सम्राट का नाम लेना एक रणनीतिक प्रयोग है और आगे इसके कई और स्तर खुलेंगे।
भारतीय राजनीति ने जिस तरह का वातावरण और विमर्श की प्रक्रिया तैयार की है, उसमें जातीय घृणा और वैमनस्य को खूब हवा दी जा रही है। तथाकथित दलितों पिछड़ों को ऐसा छद्म साहित्य परोसा गया कि वह पढ़ सुन कर उनके मन में घृणा और प्रतिशोध के अतिरिक्त और कोई भाव आने से रहा।
इस दिशा में अनेक राजनीतिक प्रयोग होते रहते हैं। कभी तुलसीदास पर साहित्यिक सामरिक आक्रमण, कभी मनु महाराज पर, कभी मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम पर, कभी लीला पुरुषोत्तम पर।
इसी कड़ी में नया नाम जुड़ गया महाराणा संग्राम सिंह सांगा। मेवाड़ अधिपति, सिसोदिया कुलदीपक, महाराज कुंभा के महान रक्त का गौरव, सनातन क्षत्रिय तेज का प्रतिनिधि, हमारी आन बान शान सांगा।
राणा सांगा से हमारा परिचय कोई पांच छः वर्ष की आयु से ही है। हमारे पास उस समय ‘ हमारे पूर्वज हमारे धरोहर’ नाम की एक पुस्तक थी, जिसमें महाराणा पर एक अध्याय था। रोएं खड़े कर देने वाले पराक्रम की चर्चा।
एक साल बाद में जब बाबा ने ज्योतिष पढ़ाना प्रारम्भ किया तो पता चला कि कैसा व्यक्तित्व होगा राजा का जिसकी कुंडली में सूर्य शनि मंगल शुक्र एक साथ उच्च के हों। ऐसा व्यक्तित्व केवल राणा सांगा जैसा ही संभव है। ज्योतिष के विश्वासी और उत्साही कुंडली बनाकर देख लें। १२ अप्रैल १४८२ चित्तौड़।
राणा रायमल और रानी रतन कुंवर के सबसे छोटे बेटे महाराणा सांगा के जीवन में फलित ज्योतिष की भूमिका इतनी महत्वपूर्ण है कि वह एक अलग शोध प्रबन्ध का विषय है। ऐतिहासिक सत्य है कि महाराणा के भाइयों ने इन पर इसलिए आक्रमण कर दिए कि किसी ब्राह्मण ने फलित करते हुए कहा था कि राजकुमार संग्राम सिंह एक दिन मेवाड़ के यशस्वी महाराणा बनेंगे।
अस्तु, मूल विषय पर आते हैं। राणा सांगा ही क्यों? बलिदानी क्षत्रियों के इस महादेश में से एक महाराणा का ही इस निर्लज्ज ने क्यों नाम लिया?
इसका रहस्य राणा के राजनीतिक जीवन में छुपा हुआ है। एक एक कर उस पर संक्षिप्त प्रकाश डालने का प्रयास करते हैं।
१) जैसे विधर्मी म्लेच्छ कहते हैं कि हम गजवा ए हिन्द तक सौ मैदान और हजार साल की लड़ाई लड़ेंगे। इनकी हजारों पुश्तों से बढ़कर एक अकेले महाराणा संग्राम सिंह का पराक्रम ठहरता है। सौ युद्ध इनकी पुश्तें लड़ेंगी, सौ युद्ध अकेले महाराणा ने लड़े।
२) महाराणा सांगा ने इब्राहिम लोदी को दो बार स्वयं हराया था। लोदी को हराने के लिए उनको किसी बाबर डाबर को न्यौता देने की कोई आवश्यकता ही नहीं था।
३) अकेले ही महाराणा ने मालवा के सुल्तान नसीरुद्दीन और गुजरात के सुल्तान मुजफ्फर को सीधे युद्ध में हराया था।
४) सबसे महत्वपूर्ण कारण। पृथ्वीराज चौहान के बाद अकेले शासक जिन्होंने इस्लामिक आततायियों के विरुद्ध राजपूतों को एकत्रित करने का प्रयास किया था।
५) प्रमाणित तथ्य यह है कि महाराणा ने इस्लामिक अर्थ तंत्र की अद्भुत समझ विकसित की थी। जजिया का सांस्थानिक विरोध अगर ढंग से किसी ने किया तो वह महाराणा ही थे।
६) महाराणा भारतीय क्षत्रिय तेज के वास्तविक प्रतिनिधि थे। कल्पना करें एक ऐसा योद्धा रणक्षेत्र में लड़ता हुआ, जिसने सौ युद्ध लड़े और केवल एक युद्ध हारे खानवा का। बयाना, बाड़ी, खातौली, गागरोन एक से एक चरम युद्ध के मैदान।
७) कल्पना करें कि कैसा दृश्य होगा खानवा के मैदान का। एक योद्धा लड़ रहा जिसने संघर्षों में एक हाथ एक पैर एक आंख पहले ही गंवा दिया था। भीष्म ने महाभारत में ऐसे ही योद्धाओं के लिए तो कहा है कि जो परमपद ब्राह्मणों साधकों योगियों मुनियों को हजारों जन्म तक जप तप दान यज्ञ करके मिलता है। वही परमपद क्षत्रियों को एक न्यायपूर्ण युद्ध में लड़ने मात्र से मिल जाता है।
८) विश्वासघाती सामंतों ने अगर खानवा के युद्ध के बाद महाराज को जहर न दे दिया होता तो खानवा में ही दूसरा युद्ध होता और मुगलिया खून के छींटे तक न मिलते भारत भूमि पर।
९) कभी शुद्ध रक्त राजपूत मिले तो उनसे पूछिएगा कि ‘पाती पेरवन’ परम्परा जो महाराणा ने शुरू की वह क्या है? आपको पता चलेगा महाराणा से घृणा का कारण।
१०) महाराणा के नेतृत्व का क्या असर था कि गोली लगने के कारण केवल एक घंटे के लिए सांगा हटते हैं और झला अजजा वह लीडरशिप नहीं दिखा पाए जो सांगा के पास था। पूरा युद्ध बदल जाता है। बाबर ने इसे संज्ञा दी “काफिरों के बीच खुदाई मदद से अर्जित एक घंटा “
११) महाराणा ने क्षात्र पौरुष देवी कृपा कटाक्ष से प्राप्त करने की सनातन कीमियागिरी को समझा था। युद्ध में हारने के बाद जब मेदिनी राय महाराणा का विश्वस्त अनुचर बन गया था। उसने एक युद्ध में महाराणा के कौशल को देखते कहा था, ” ऐसा लगता है जैसे चामुण्डा स्वयं पुरुष वेश में युद्ध कर रही हो”!
आज २७ मार्च २०२५ महावारूणी पर्व है पुण्य कमाने का इससे अच्छा साधन नहीं दिखा कि हम अपने पूर्वज सेनापति”हिंदूपति” का पुण्य स्मरण करें।
ध्यान रहे जैसे पिछली शताब्दी में ब्राह्मण को हेय बनाने उनका सत्व नष्ट करने, उनकी आध्यात्मिक सम्पदा छीन लेने का कुत्सित प्रयास किया गया। अब बारी क्षत्रियों की है। सावधान।
इन दोनों के नष्ट होते ही धर्म नष्ट हो जाएगा। परिवार नष्ट हो जाएंगे। अर्जुन की चिन्ता सत्य हो जाएगी कि केवल वर्णसंकर जन्मेंगे।
यह धर्मयुद्ध सनातन धर्म के विरोध में है। इसे लड़ना ही होगा।
धर्म्माद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत् क्षत्रियस्य न विद्यते ।
(भीष्म पर्व २६/३१ )
राष्ट्र धर्म और राष्ट्र-रक्षा यज्ञ है। वर्तमान समय में क्षात्र धर्म का धारण ही राष्ट्र के लिए सम्यक धम्म है। रक्षण आक्रमण में लगे हमारे क्षत्रिय योद्धा धन्य हैं।धन्य हैं वह जो इस यज्ञ में प्राणों की आहुतियां दे रहे हैं देने को तत्पर हैं। हमारे मोक्ष जैसा परमपद भी उन वीरों की सद्गतियों के सम्मुख तुच्छ है।
क्षत्रियो निहत: संख्ये न शोच्य इति निश्चय: ।(वाल्मीकि रामायण – युद्धकाण्ड १०९|१८ )
स्वकर्म स्वधर्म में लगे महाराणा और उन जैसे असंख्य क्षत्रियों के चरण रज को नमन

(लेखक इतिहासभिज्ञ हैं और यह उनके विचार हैं)