लेखक-संजय राय
ईरान और इजराइल के बीच 12 दिन चले युद्ध के समाप्त होने से विश्व ने राहत की सांस ली है। इस लड़ाई में अमेरिका और यूरोपीय देशों ने खुलेआम इजराइल का समर्थन किया। इजराइल और अमेरिका ने ईरान के परमाणु ठिकानों पर ताबड़तोड़ हमला करके उसके एटमी कार्यक्रम को दस साल पीछे ढकेलने का दावा किया है हालांकि उनके इस दावे पर सवाल भी उठे हैं। ऐसी खबरें हैं कि ईरान ने 10 परमाणु बम बनाने लायक 400 किलो यूरेनियम गायब कर दिया है। अगर ऐसा हुआ है तो यह पूरी दुनिया के लिए गंभीर चिंता का विषय होना चाहिए।
मध्य-पूर्व की राजनीति सदियों से अशांत रही है। अब्राहमिक धर्म के आधार पर यहूदी, ईसाई और इस्लाम के नाम इस इलाके में काफी खून खराबा हुआ है। ईरान और इजराइल युद्ध के पीछे पेट्रोलियम और हथियार कंपनियों की शक्तिशाली लॉबी दोनों तरफ खड़ी है, लेकिन हर बार की तरह इस बार भी धर्म का भरपूर इस्तेमाल किया गया। इजराइल ने “ऑपरेशन राइजिंग लॉयन” और ईरान ने “ऑपरेशन ट्रू प्रॉमिस 3” वाक्यांशों को अपनी धार्मिक मान्यता से उठाया था। बहरहाल, दोनों देशों के बीच हुए युद्ध विराम का तात्कालिक निष्कर्ष यही दिखा कि अमेरिका और इजराइल की धौंस के आगे ईरान नहीं झुका। लेकिन युद्ध विराम के बाद आ रही खबरें साफ इशारा कर रही हैं कि यह युद्व विराम किसी भी समय टूट सकता है। ईरान ने अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (आईएईए) से अपना संबंध तोड़ लेने और परमाणु कार्यक्रम जारी रखने की घोषणा की है। वहीं दूसरी तरफ इजराइल, अमेरिका और नाटो देश इस बात पर सहमत हैं कि ईरान के पास परमाणु हथियार किसी भी कीमत पर नहीं होने चाहिए। जाहिर है इसके लिए अगर दोबारा हमले की जरूरत पड़ी तो वह भी किया जाएगा।
हमास ने जब 7 अक्टूबर, 2023 को इजराइल पर हमला किया था तो उस समय इजराइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने कहा था कि हम मिडल-ईस्ट और दुनिया का नक्शा बदल देंगे। इसके बाद इजराइल ने हमास को लगभग नेस्तनाबूद कर दिया है, हिजबुल्लाह की कमर तोड़कर रख दिया है और हुती (अंसार अल्लाह) से मुकाबला कर रहा है। ये तीनों संगठन ईरान समर्थित हैं। सीधे शब्दों में कहें तो इजराइल के अस्तित्व को खतम करने की खुली घोषणा कर चुके ईरान ने सैन्य रणनीति के तहत हमास, हिजबुल्लाह और हुती जैसे संगठनों को इजराइल से लड़ने के लिए बना रखा है।
गौर करने वाली बात यह है कि इन तीनों संगठनों को कमजोर करने के बाद इजराइल, ईरान से सीधे भिड़ा और अमेरिका भी इस भिड़ंत में खुलकर इजराइल के साथ खड़ा हो गया।
ईरान अमेरिकी धौंस के आगे नहीं झुका। उसे रूस, चीन और उत्तर कोरिया का पूर्ण समर्थन मिला, लेकिन इस युद्ध ने इस्लामिक एकता की बखिया उधेड़कर रख दी। पाकिस्तान एटम बम के साथ अमेरिका की गोद में बैठा रहा। भारत समेत अनेक देशों ने ईरान और इजराइल के साथ अपने संबंधों को ध्यान में रखकर युद्ध को जल्द से जल्द समाप्त करके शांतिवार्ता के माध्यम से कूटनीतिक समाधान का सुझाव दिया। बात भी सही है अगर यह युद्ध लंबा खिंचता तो दुनियाभर की अर्थव्यवस्था पर इसका बुरा असर पड़ता और आम आदमी की परेशानियां बढ़तीं।
पहले के इतिहास और वर्तमान वैश्विक समीकरण के आधार पर यह कहा जा सकता है कि ईरान-इजराइल युद्ध विराम महज अगले युद्ध की तैयारी के लिए दोनों पक्षों द्वारा ली गई मोहलत भर है। भारत और चीन विश्व बाजार में बड़ी भूमिका निभाते हैं। दोनों देश पारंपरिक ऊर्जा स्रोतों पर निर्भरता तेजी से कम कर रहे हैं। अमेरिका को अपने तेल भंडार को दुनिया के बाजारों में बेचना है। इसके लिए जरूरी है कि तेल बेचने वाले देशों को किसी न किसी तरह इन बाजारों तक पहुंचने से रोका जाए। बेशकीमती खनिजों (रेयर अर्थ मिनरल्स) के बाजार ने भी युद्ध की संभावनाओं को बढ़ाने में अहम भूमिका निभाई है। इन खनिजों पर इस समय चीन का वर्चस्व है। अमेरिका और नाटो रेयर अर्थ मिनरल्स नए संभावित इलाकों पर कब्जे के लिए प्रयासरत हैं। ये सभी कारक यही संकेत कर रहे हैं कि युद्ध आगे भी जारी रहेगा।
अगर ऐसा हुआ तो इससे पूरी दुनिया के भू-राजनीतिक समीकरण निश्चित रूप से बदलेंगे। ये युद्ध आने वाले वर्षों में वैश्विक नक्शे को फिर से परिभाषित करेंगे।
एक बार फिर आते हैं ईरान और इज़राइल पर। दोनों देशों के बीच संबंध कभी भी सौहार्द्रपूर्ण नहीं रहे। 1979 में ईरान की इस्लामी क्रांति के बाद से ईरान ने इजराइल को एक अवैध “ज़ायोनी राज्य” के रूप में मानने से इनकार कर दिया। इधर इज़राइल भी ईरान के परमाणु कार्यक्रम को अपनी संप्रभुता के लिए एक बड़ा खतरा मानता आया है।ईरान का समर्थन लेबनान के हिज़बुल्ला, सीरिया के बशर अल-असद और गाजा के हमास जैसे संगठनों को प्राप्त है। ये सभी इज़राइल विरोधी हैं। वहीं इज़राइल को अमेरिका जैसे शक्तिशाली देशों का समर्थन प्राप्त है। गाजा युद्ध और उसके बाद की घटनाओं ने दुनिया को पूर्ण युद्ध के मुहाने पर लाकर खड़ा कर दिया है।किसी भी समय यह युद्ध एक सीमित क्षेत्रीय संघर्ष न होकर एक संभावित विश्वव्यापी टकराव का रूप ले सकता है।इस टकराव की वजह से मध्य-पूर्व का नक्शा सबसे ज्यादा प्रभावित होता दिख रहा है। आने वाले समय में कई देशों जैसे सीरिया, लेबनान, यमन की सीमाएं बदल सकती हैं और कुर्दों, शिया और सुन्नी गुटों के बीच नये विवाद जन्म ले सकते हैं। क्योंकि ईरान और इजराइल युद्ध विराम के बाद अमेरिका ने एक बार फिर से अब्राहम समझौते का राग अलापना शुरू कर दिया है।
अब्राहम समझौता अमेरिका की पहल पर 2020 में हस्ताक्षरित इजरायल और कई अरब देशों के बीच राजनयिक संबंधों को सामान्य बनाने के लिए समझौतों की एक श्रृंखला है। इसका मुख्य उद्देश्य मध्य पूर्व में शांति और स्थिरता स्थापित करना और आर्थिक सहयोग को बढ़ावा देना है।
अब्राहम समझौते में मुख्य रूप से इजरायल, संयुक्त अरब अमीरात (यूएई), बहरीन, सूडान और मोरक्को शामिल हैं. इन समझौतों के तहत, इन देशों ने इजरायल के साथ राजनयिक संबंध स्थापित किए, दूतावास खोले, और व्यापार, पर्यटन, और अन्य क्षेत्रों में सहयोग शुरू किया।
अब्राहम समझौते ने इजरायल और कई अरब देशों के बीच संबंधों को सामान्य बनाया, जो पहले कई दशकों से तनावपूर्ण थे। इस समझौते ने व्यापार, निवेश, और पर्यटन जैसे क्षेत्रों में सहयोग को बढ़ावा दिया, जिससे क्षेत्र में आर्थिक विकास को गति मिली। अब्राहम समझौते को मध्य पूर्व में स्थिरता और शांति के लिए एक महत्वपूर्ण कदम माना जाता है, खासकर ईरान के बढ़ते प्रभाव के संदर्भ में। साथ ही इस समझौते ने सांस्कृतिक आदान-प्रदान और लोगों से लोगों के संपर्क को भी प्रोत्साहित किया है। अगर ऐसा हुआ तो इजराइल की सुरक्षा की पुनर्संरचना और संभावित क्षेत्र विस्तार की संभावना भी बहुत प्रबल है।
वहीं रूस, चीन और कुछ इस्लामिक देश ईरान को कूटनीतिक या सैन्य समर्थन दे सकते हैं। अमेरिका और उसके सहयोगी देशों के सामने रूस, ईरान, चीन और उत्तर कोरिया को साधने की चुनौती होगी। रूस, ईरान, चीन और उत्तर कोरिया कभी नहीं चाहेंगे कि पूरी दुनिया पर अमेरिका का वर्चस्व बने। इसलिए चीन का प्रयास होगा कि ताइवान पर पकड़ को और अधिक मजबूत बनाया जाए। चीन भारत को भी पड़ोसी देशों के माध्यम से परेशान करने की कोशिश में कोई कसर बाकी नहीं रखेगा। पाकिस्तान भारत के खिलाफ अपनी हरकतों को किसी न किसी रूप में तेज धार देने की कोशिश करेगा। वहीं रूस भी यूक्रेन को अपने प्रभाव में लेकर अन्य पूर्व सोवियत देशों पर अपनी पकड़ बढ़ाने की भरपूर कोशिश करेगा और यह सुनिश्चित करने में पूरी ताकत लगा देगा कि अमेरिकी गठबंधन के सामने सीना तानकर खड़ा रहे।
महाशक्तियों के इस खेल के कारण ऊर्जा संकट पैदा हो सकता है। यूरोप और भारत जैसे देश इस संकट से सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे। भारत संभवतः इस संकट की आहट को भांप चुका है इसीलिए भारत ने वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों की तलाश तेज कर दी है।
भारत के लिए सबसे सही रास्ता यही है कि वह ईरान और इज़राइल दोनों से अच्छे संबंध बनाए रखे और तटस्थ नीति अपनाए। इज़राइल भारत का रक्षा और तकनीकी सहयोगी है, जबकि ईरान ऊर्जा और भू-राजनीतिक दृष्टि से अहम है। जहां तक अमेरिका के साथ संबंधों की बात है तो भारत को उसके साथ वही नीति अपनानी चाहिए जो उसने अपनाई है। अपना फायदा देखना और उसके किसी भी दबाव के आगे समर्पण नहीं करना। कारोबारी समझौते में तो अमेरिका के दबाव कतई नहीं मानना चाहिए। भारत को रूस और चीन के साथ संबंधों को संतुलित बनाने पर ध्यान देने की जरूरत है।
अंत में कहा जा सकता है कि ईरान-इज़राइल युद्ध कुछ समय के लिए ही रुका है। यह एक रणनीतिक फैसला है। इस युद्ध ने भावी युद्ध का राजमार्ग खोला है। भावी युद्ध किसी एक क्षेत्र तक सीमित नहीं रहेगा। यह एक चिंगारी है जो यदि बुझी नहीं, तो पूरी दुनिया को चपेट में ले सकती है। भले ही युद्ध का मैदान पश्चिम एशिया हो, लेकिन उसका असर आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक और भौगोलिक सभी स्तरों पर पूरी पृथ्वी पर महसूस किया जाएगा।
इसलिए यह आवश्यक है कि वैश्विक शक्तियां, अंतरराष्ट्रीय संगठन और भारत के नेतृत्व में सभी शांति समर्थक देश, मिलकर इस संकट को टालने की दिशा में ठोस कदम उठाएं। यदि ऐसा नहीं हुआ, तो आने वाले दशक में दुनिया का नक्शा न केवल राजनीतिक रूप से बदलेगा, बल्कि एक नई विश्व व्यवस्था उभरेगी जो संभवतः अधिक अस्थिर और अधिक खतरनाक होगी।

(लेखक “आज” अखबार में नेशनल ब्यूरो के रूप में दिल्ली में कार्यरत हैं)