लेखक~(मुकेश शर्मा(भोपाल)सदस्य भगवान परशुराम सेवा ट्रष्ट जमदारा जिला भिण्ड मध्यप्रदेश)
♂÷क्या है अक्षय तृतीया?
सोने के आभूषण खरीदने का दिन या शादी-विवाह, गृह प्रवेश, दुकान-व्यापार शुरु करने का अबूझ मुहुर्त मात्र। यह तो सब सांसारिक और क्षय होने वाली बात है, जो भोगवादी प्रवृत्ति तक सीमित है।
अक्षय शब्द का अर्थ ही है जिसका कभी क्षय नहीं हो। इसी का एक और पर्यायवाची है अक्षर ब्रह्म। निरंतर बने रहने वाले महज दो तत्व है- आत्मा और परमात्मा।
ये दोनों तत्व मन, बुद्धि, वाणी, चित्त सहित सभी इंद्रियों और सांसारिक पदार्थों के परे की वस्तु है।
भारत में हमेशा से ही आत्मज्ञान के जरिए परमात्मा प्राप्ति के अनुष्ठान चलते रहे हैं।
संभवत: आज ही के दिन महर्षि जमदग्नि को ब्रह्मज्ञान प्राप्त हुआ, साथ ही एक पुत्र भी। अंतर में बैठे राम को उपलब्ध होने के दिन प्राप्त पुत्र का नाम उन्होंने रखा राम।
यही राम बाद में परशुराम कहलाया।
खेद की बात है कि परशुराम भारत के इतिहास में सबसे गलत ढ़ग से जिस महापुरुष की छवि प्रस्तुत की गयी वो भगवान परशुराम है।
उन्हें अत्यंत गुस्सैल और अहंकारी दिखाया गया। उनके जीवन के आध्यात्मिक रहस्यों को समझने की अपेक्षा उन्हें मातृ हत्या, क्षत्रियों के वध, राम-लक्ष्मण के साथ अमर्यादित आचरण करते हुए बताया गया, जो कि पूरी तरह से गलत है।
दरअसल भारत के ब्रह्मर्षि गूढ़ तरीके से अपने शिष्यों को ब्रह्मविद्या का ज्ञान देते थे, ताकि योग्य ही उसे ग्रहण कर सके।
सदगुरु सदाफलदेवजी महाराज ने भी अपने महान आध्यात्मिक ग्रंथ स्वर्वेद में लिखा है – उत्तम जिज्ञासु मिले, सार शब्द आदेश।
महर्षि जमद्गनि के चार पुत्र थे। उन्होंने ने भी अपने पुत्रों को यह ज्ञान देने के लिए कहा कि अपनी माता की हत्या कर दो। यहां सोचने की बात है कि जमद्गनि जैसे महर्षि कभी अपनी पत्नी की हत्या के लिए बोल सकते हैं क्या? इसको सत्यापित करने के लिए उनकी पत्नी रेणुका के चरित्र को लेकर एक कहानी भी गढ़़ ली गयी और आध्यात्मिकता का सत्यानाश कर दिया गया।
भगवान परशुराम के भक्तों को आज भी इस झूठ का जवाब देना मुश्किल हो रखा है, क्योंकि इसके आध्यात्मिक रहस्यों को न जानने के कारण सहस्त्राब्दियों से फैलाए जा रहे इस झूठ का जवाब कैसे दें।
ब्रह्मविद्या के इस गूढ़ रहस्य को तो महर्षि सदगुरु सदाफलदेवजी महाराज की असीम अनुकंपा प्राप्त शिष्य ही जान सकता है।
वास्तविकता ये है कि मातृ हत्या का अर्थ है अपने ममत्व रूपी दोषों यानि तेरा-मेरा, मद, लोभ, मोह अहंकार आदि का नाश। वैसे भी महर्षि की पत्नी का नाम रेणुका था, जिसका अर्थ है रेत। अर्थात जिस प्रकार रेत को हाथ में कैद कर नहीं रखा जा सकता, उसी प्रकार संसार के पदार्थों को भी नहीं रखा जा सकता, ये संसार की क्षणभंगुरता का संदेश था, जो अध्यात्म के पथिक का पहला सोपान है, पहली सीढ़ी है। जिसने संसार के मृत स्वरूप को नहीं समझा, उसे अध्यात्मिक ज्ञान का विद्यार्थी माना ही नहीं जा सकता।
महर्षि का संसार की क्षणभंगुरता और ममत्व से उपजे दोषों की ओर संकेत था, जिसे तीन पुत्र नहीं समझ सके, पर राम ने समझ लिया।
पिता से आगे के रहस्यों के गूढ़ तत्वों को समझकर वर्षों तक साधना की, परंतु अपने रजो गुण पर संयम नहीं कर सके, तब महर्षि ने कहा राम अपने ज्ञान रूपी कुठार से इस क्षात्र तेज का नाश कर।
परशुराम कुंड के पास साधना करने आए परशुराम ने अपनी 21 बार की प्रचेष्ठा में आखिरकार अपने आपको संसार और इसकी सभी क्षणभंगुर वृत्तियों से मुक्त कर लिया, जिसमें त्रिगुण यानि रज, सत् और तम भी है, उनसे मुक्त कर अपने वास्तविक स्वरूप को जानते हुए ब्रह्म की प्राप्ति की, इसी कारण परशुराम कुंड का महत्व है, जहां परशुराम को ब्रह्म यानि परमात्मा की प्राप्ति हुई।
यहां लोग एक और प्रश्न कर सकते हैं कि परशुराम में रजो गुण इतना अधिक क्यों था।
दरअसल उस जमाने में गुरुकुल में ब्राह्मण ही सभी विधाओं की शिक्षा देते थे, चाहे वो अर्थशास्त्र, धर्म शास्त्र, राजनीति या अस्त्रविद्या हो, परशुराम अस्त्रविद्या के आचार्य थे। गंगापुत्र भीष्म से लेकर कुंती पुत्र कर्ण तक के उनसे अस्त्र विद्या सीखने के दृष्टांत है।
जो कार्य हमें अच्छा लगता है, अथवा हम बारंबार करते हैं, वो हमारी वृति बन जाता है और उससे पीछा छुड़ाना बहुत कठिन होता है, अपने इस क्षात्रतेज से पीछा छुडाना ऐसा ही था, जैसे सहस्त्र वर्षों से अर्जित चित्त की वृत्तियों से पीछा छुड़ाना।
वैसे भी अर्जुन शब्द संस्कृत में अर्जनात से आया है, जिसका अर्थ है, अर्जन करना। परशुराम ने अपने निरंतर शस्त्रविद्या सिखाने की प्रक्रिया से उनके चित्त में जो रजोगुणी वृत्तियां संचित हुई, उनका नाश ही सहस्त्रार्जुन वध और उन पर बारंबार विजय प्राप्त करने की प्रक्रिया ही क्षत्रियों का वध और मन और इंद्रियों से ऊपजी समस्त परिस्थितियों और पदार्थों में आसक्ति पर विजय और उनकी क्षणभंगुरता का ज्ञान ही मातृ हत्या है, जिसे समुचित जानकारी के अभाव में बहुत ही विकृत तरीके से प्रस्तुत किया गया।
एक और प्रसंग जो महाराज विदेह जनक की पुत्री सीता के स्वयंवर की बात आती है, जहां उन्हें क्रोधी और वाचाल के रूप में दिखाने की अज्ञानता अध्यात्मिक रहस्यों को उसकी सूक्ष्मता में देखने की अक्षमता के परिणामस्वरूप ही है।
हमारा शरीर इस संसार का प्रतीक है और धनुष शरीर का। वैसे भी पिनाक का अर्थ है पिनाक : पुं० [सं०√पा (रक्षा करना)+आकन्, नुट्, इत्व। अर्थात शरीर, संसार और प्रकृति की हद से बाहर जाकर आत्मा की रक्षा, उसकी पुष्टि, ताकि आत्मज्ञान के द्वारा परमात्म तत्व की प्राप्ति जो राम शब्द की वास्तविक सार्थकता है।
ब्रह्मविद्या के विद्यार्थी सदगुरु कृपा से जानते हैं कि ऋषि विश्वामित्र के पास अपनी आसुरिक वृतियों पर नियंत्रण और विजय प्राप्त करने वाले राम को ऋषियों-महर्षियों से सुशोभित रहने वाले ब्रह्मविद्या के साधक विदेह की पुत्री के योग्य होने की परीक्षा देना तो अनिवार्य था।
ऐसे में जब उनसे धनुष रूपी शरीर की बाधाओं को पार कर उस मर्म स्थान के बारे में पूछा गया, जहां आत्मा, परमात्मा का साक्षात्कार करती है, तो उन्होंने शवरूपी धनुष को तोड़कर शिवरूपी यानि योग-साधन की एकमात्र अवयव आत्मा के रहस्य को बतलाकर ब्रह्मर्षियों का आशीर्वाद एवं सीता को प्राप्त किया, यहां उन्होंने परशुराम को भी संतुष्ट किया।
ये सारे आध्यात्मिक प्रसंग है, जिनका रहस्य केवल सदगुरु कृपा से जाना जा सकता है।
ब्रह्मविद्या के बोद्ध बिनु, पूजा जप, तप, पाठ।
यज्ञ, दान, व्रत, नियम जो, यह सब ऊकठा काठ।।
सदगुरु भगवान की जय।
भगवान परशुराम की जय।
÷लेखक वरिष्ठ पत्रकार व आईटीआई कार्यकर्ता हैं÷