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1984 में बहुजन समाज पार्टी बनाकर कांशीराम चुनावी राजनीति में आए। तब नारे थे- ‘ठाकुर ब्राह्मण बनिया चोर, बाकी सब हैं डीएस फोर’ व ‘तिलक तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार।’ बसपा का कहना है कि ये उसके नारे नहीं थे। कांशीराम कहते थे- पहला चुनाव हारने, दूसरा हरवाने और तीसरा जीत के लिए लड़ेंगे।
1984 में इंदिरा लहर में बीएसपी का खाता भी नहीं खुला। 1989 में कांशीराम ने वीपी सिंह के खिलाफ इलाहाबाद से चुनाव लड़ा। तब उन्होंने एक वोट एक नोट अभियान चलाया। वे हारे लेकिन बिजनौर सीट से बसपा का खाता खुला और मायावती लोकसभा पहुंचीं।
राममंदिर आंदोलन के दौर में 1993 के विधानसभा चुनाव में कांशीराम और मुलायम मिलकर लड़े और भाजपा को हरा दिया। 1995 में मुलायम सरकार गिरने के बाद भाजपा के सहयोग से मायावती सीएम बनीं। 2006 में कांशीराम के निधन के बाद मायावती बसपा अध्यक्ष बनी। वे समझ गई थीं कि कोर वोट के आगे बढ़ने के लिए ‘बहुजन’ को ‘सर्वजन’ में बदलना होगा। 2007 के यूपी चुनाव में उन्होंने सवर्ण वोटरों को जोड़ने के लिए ‘हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा-विष्णु महेश है’, ‘पंडित शंख बजाएगा, हाथी बढ़ता जाएगा’ जैसे नारे दिए गए।
सपा के नारे ‘यूपी में है दम क्योंकि यहां जुर्म है कम’ को निशाने पर लेते हुए मायावती ने नारा दिया ‘चढ़ गुंडन की छाती पर मुहर लगेगी हाथी पर’। दलित-ब्राह्मण को साथ लाने में सतीशचंद्र मिश्रा ने बड़ा रोल निभाया था। 14 साल बाद किसी एक पार्टी को पूर्ण बहुमत मिला था। 402 सीटों पर वोटिंग हुई इनमें से बसपा ने 206 सीटें मिली थी।