लेखक~डॉ.के. विक्रम राव
♂÷उनका हिंदी की आधुनिक पत्रकारिता में साहित्यिकता भरने का श्रेय डॉ. भारती को जाता है | यूं तो पत्रकारिता ही त्वरित लिखा साहित्य कहलाता है| मगर डॉ. भारती के सन्दर्भ में माकूल परिभाषा में कहें तो : “साहित्य दो बार पढ़ा जाता है | (उनका) पत्रकारी लेखन पहली बार ही आत्मसात हो जाता है|”
डॉ. भारती जो भी लिखते थे, साहित्यिक ही सही, आमजन के लिए बौद्धिकतापूर्ण लहजा बन जाता था| एक श्रमजीवी पत्रकार तथा साहित्य का छात्र होने के नाते मेरा ऐसा ही आकलन है| उनके संपादकत्व में साप्ताहिक ‘धर्मयुग’ इसीलिए नये आयाम छू सका, नयी दिशाएं तय कर पाया|
उनके बारे में उन्हीं के शब्दों में : “जानने की प्रक्रिया में होने और जीने की प्रक्रिया में जाननेवाला मिजाज जिन लोगों का है उनमें मैं अपने को पाता हूँ|” (ठेले पर हिमालय)
लेकिन हिंदीभाषियों के वास्ते अपशकुन रहा कि हिंदी पत्र-पत्रिकायें अकाल मृत्यु से ग्रसित रहीं| ‘धर्मयुग’ कालकवलित हो गया| सिलसिला अभी भी जारी है|
डॉ. भारती से मेरी भेंट (1964 में) मुंबई के ‘टाइम्स भवन’ में हुई थी | वे चौथी मंजिल में बैठते थे| उनके ठीक नीचेवाले (तीसरे) माले में हम ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ के स्टाफ वाले विराजते थे| यूं मुझे अंग्रेजी से बेहतर हिंदी आती है, क्योंकि लखनऊ में परवरिश हुई थी| अतः इच्छा हुई कि द्विभाषी लेखन चले| तभी तगड़े पठान फौजी मार्शल मोहम्मद अयूब खान ने वामनाकार लाल बहादुर शास्त्री के भारत पर धावा (सितम्बर 1965) बोल दिया| डॉ. भारती से मिलकर मैंने कहा कि युद्ध सम्बन्धी अध्ययन है, अतः कुछ लिखना चाहूँगा| अंग्रेजी में मुझसे सीनियर असंख्य पड़े हैं| अतः ‘टाइम्स’ में अवसर नहीं मिलेगा|
डॉ. भारती तनिक मुस्कराए फिर बोले : ‘कल दे दीजिये, भारत-पाक युद्ध पर कुछ|”
उस दौर में कभी मुंबई का छात्र रहा जुल्फिकार अली भुट्टो पाक विदेश मंत्री था| मार्शल अयूब के खासम-खास| दूसरे ही दिन अपना लेख मैंने जमा कर दिया| डॉ. भारती ने देखा और स्वंय शीर्षक दिया| अगले ही अंक में छाप भी दिया| आज के पकिस्तान के दसवें सेनाध्यक्ष जनरल कमर जावेद बाजवा के कठपुतली बने मोहम्मद इमरान खान भुट्टो से कमतर नेता हैं| वे गरजते हैं, बरसते नहीं| त्रासदी थी कि भुट्टो की मौत फांसी के फंदे पर हुई|
♂÷यहाँ प्रसंग है पछ्पन वर्ष पहले प्रकाशित मेरे लेख “धर्मयुग” (1965) से| शीर्षक में डॉ. भारती की अद्भुत लेखकीय सोच झलकती है :
भुट्टो भभकी
उर्फ दास्ताने जनाब जुल्फिकार अली भुट्टो साहब की
÷डॉ.के. विक्रम राव
(कुछ अन्तर्राष्ट्रीय संवाददाताओं, विदेशी यात्रियों तथा मुम्बई में भुट्टो साहब के पुराने सहपाठियों से मिली जानकारियों पर आधारित)
“किसी राकेट पर इन्हें अन्तरिक्ष में भेज दें, तभी शान्ति संभव है”, यह राय थी कराची हवाई अड्डे पर तीन दिन की बेसब्र प्रतीक्षा के बाद काहिरा से मुम्बई आये एक यूरोपीय पर्यटक की पाकिस्तानी विदेशमंत्री के बारे में।
एक एशियाई सहयात्री का मासूम सवाल थाः “क्या उस राकेट में आक्सीजन रखना जरूरी होगा ?”
इस्लामी जम्हूरिया पाकिस्तान के वजीरे-खारिजा, हिलाल-ए-पाकिस्तान, जनाब जुल्फिकार अली शहानवाजखान भुट्टो का नाम पिछले हफ्तों (अगस्त, 1965) में जिस तेजी से फैला है उसके सामने संक्रामक रोग की गति भी धीमी लगती है।
भुट्टो साहब का अन्दाज सदा संगीतमय रहा। वे हर ऋतु में सिर्फ एक राग ही अलापते रहे, भैरवी, और उन्हें एक तान ही पसन्द रहीः काश्मीर।
आठ सदियों से जिस दिल्ली पर चंगेजी हुकूमत रही, उसी को जांबाज मुजाहिद पुनर्स्थापित करेंगे, यह सपना देखा था मिस्टर भुट्टो ने पांच अगस्त की रात को। फिर उन्होंने नारा दिया कि काश्मीर के लिए हजार वर्ष तक जंग करने के लिए पाकिस्तान उद्यत है, भले ही वे स्वयं यह देखने के लिए न रहें। और फिर उनकी धमकी थी कि पाकिस्तान संयुक्त राष्ट्र संघ को छोड़ने पर आमदा होगा यदि “पहली जनवरी (1966) के सूरज ने काश्मीर को पाकिस्तान में न देखा।”
इस पर एक राजनैतिक पर्यवेक्षक ने कहाः “निकाले जाने के पहले उसका निकल जाना ही श्रेयस्कर होगा|”
विदेशमंत्री के पद पर भुट्टो की नियुक्ति ऐतिहासिक इसलिए रही है क्योंकि उससे पाकिस्तान का भौगोलिक सन्तुलन बिगड़ गया। पूर्वी (अब बांग्लादेश) और पश्चिमी भागों में करार था कि वित्त और विदेश विभाग दोनों क्षेत्रों में समविभाजित होगें, पर दोनों ही पद पंजाब और सिंध को मिले। उसका नतीजा यह हुआ कि ढाका के विद्यार्थियों के समक्ष जब भुट्टो साहब बोलने खड़े हुए, तो उनके सत्तर मिनट के भाषण का एक शब्द भी किसी को सुनायी नहीं दिया। नारों का गर्जन और झण्डों के काले रंग से लगता था घटा छा रही है।
तभी का वाकया है। (सन् 1964 में) चटगांव के एक तालाब में डूबते हुए आदमी को बचाने के उपलक्ष में अब्दुल करीम खां का जब र्शौर्य के लिए सत्कार किया गया, तो उन्होंने कहाः “पानी में कूदकर, मैंने इस आदमी का चेहरा ठीक से देखा कि कही जनाब भुट्टो तो नहीं है और यकीन हो जाने पर मैं उसे बाहर निकाल कर लाया|”
सुरक्षा परिषद में जब वे बोलने गये, तो भारतीय प्रतिनिधि श्री जी. पार्थसारथी से वे हाथ मिलाकर अपना कूटनीतिक सौजन्य दर्शाना चाहते थे|
लेकिन उनके सौजन्य के कुछ नमूने हमें याद है|
कनाडा के प्रधानमंत्री लेस्टर पियर्सन द्वारा न्यूयार्क में दी गई दावत में श्रीमती विजयलक्ष्मी पंडित की सेहत के नाम जाम पेश किया गया, तो जनाब भुट्टो सिगार का कश लेते बातों में माशगूल थे। इतना ही नहीं, जब पियर्सन ने श्रीमती पण्डित का परिचय कराया, तो वे दूसरी ओर मुड़ गये।
लेकिन सबसे ज्यादा विनम्र व्यवहार उनका एक और किस्म का रहा। शान्तिघाट से लौटने के बाद जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु पर हुई शोक सभा की तस्वीरें दूसरे दिन अखबारों में छपी, तो उनमें सिर्फ एक चेहरा ऐसा था जो उदास नहीं था, बल्कि जिस पर कुटिल मुस्कराहट थी। वह था जनाब भुट्टो साहब का।
कलाबाजियां और जादूगरी जनाब भुट्टो की,
मिस्टर भुट्टो एक चतुर राजनीतिक नट रहे।
अमरीका के दोस्त पाकिस्तान को चीन का दोस्त बनाने का सेहरा उनके सर पर है।
बीजिंग के मेयर से वे बोलेः (अनीश्वरवादी कम्यूनिस्ट) चीन और (मजहबपरस्त सामन्तवादी) पाकिस्तान भाई-भाई हैं, क्योंकि दोनों “समसिद्धान्तवादी” राज्य है।दोनों अल्पसंख्यकों के आत्मनिर्णय के अधिकार के हिमायती है। इसपर अरब लीग के एक प्रवक्ता ने जानना चाहा कि शिनजियांग और येन्नान के मुसलमानों के संघर्ष का चीनी केन्द्रीय सरकार द्वारा जो दमन हुआ, उस पर भुट्टो साहब का क्या रूख है?
एक जादूगर की भांति मियां भुट्टो मजहबी इबादत को सियासी तिजारत बनाकर पाकिस्तानी जनता को उकसाते रहे कि पण्डतों और बरहमनों का बुतपरस्त भारतउनके हसीन वतन को नेस्तनाबूद करने का कुचक्र रच रहा है। पर वे अवाक रह गये जब संसदीय संयुक्त विरोधी दल के नेता ने जनगणना की रिपोर्ट सुनायी कि “पाकिस्तान के सवा-करोड़ हिन्दू एकदशक में घट कर मात्र सत्तर लाख रह गये और भारत में मुसलमान साढ़े तीन करोड़ से पांच करोड़ हो गये।’’
सैंतीस-वर्षीय (1965) इस युवाहृदय विदेश मंत्री की दिलचस्पी केवल राजनीति तक ही सीमित नहीं रही। इनके विषय में चर्चित घटनाएं और कहानियां डॉन जुआन और मिस्र के अपदस्थ शाह फारूख की याद दिलाती है।
बम्बई के कैथेड्रल स्कूल में इनके साथ पढ़े कुछ लोगों ने बताया कि भुट्टो साहब के शुरूआती रूझान को देख कर इनके सहपाठियों को इनके होनहार कल का तभी आभास हो गया था। उनमें एक ने, जो भारत के मशहूर क्रिकेटर भी हुए, बताया कि जुल्फिकार “सनी आफ द बालरूम डांस हाल” के रूप में मशहूर थे।
इनके एक बम्बइया पारसी मित्र भुट्टो साहब को तीन-दिलवाली मछली (कटलीफिश) कहते थे, जो एक ही समय दो से भी अधिक लोगों से दिली अनुराग दरसा सकती थी।
(धर्मयुग, 1965)
÷लेखक वरिष्ठ पत्रकार/स्तम्भकार और आईएफडब्ल्यूजे के नेशनल प्रेसिडेंट हैं÷