“क़िस्सा कुर्सी का”ने हिला डाली थी”इंदिरा सरकार”की चूले÷
÷सरकार को जेब मे लेकर टहलने वाले संजय गाँधी को जेल की हवा खिला डाली थी फ़िल्म “किस्सा कुर्सी का” ने÷
÷1967-1971 में दो बार काँग्रेस के टिकट पर बाड़मेर से सांसद रहर फ़िल्म निर्माता श्रीकांत नाहटा फ़िल्म”किस्सा कुर्सी का”प्रिन्ट संजय द्वारा जलवा देने से चले गए थे जनता पार्टी में÷
÷आपातकाल के पश्चात हुए चुनाव के बाद इंदिरा को जनता ने नकार दिया जिसमें एक बड़ी वज़ह उस दौर में बनी थी फ़िल्म “किस्सा कुर्सी का” भी÷
°÷काँग्रेस-बीजेपी समर्थक बोलिवुडियो ने बनाई”उड़ता पँजाब”-इन्दू सरकार और अब बनकर अटक गई मोदी की बायोपिक÷
÷शिया वक़्फ़ बोर्ड अध्यक्ष व दर्जा प्राप्त राज्यमन्त्री वसीम रिज़वी की फ़िल्म”राम की जन्मभूमि”पर भी चुनाव तक लखनऊ हाइकोर्ट ने लगा रखी है प्रदर्शन पर रोक÷
लेखक= मुकेश सेठ
♂आम चुनाव के रणसमर में इन दिनों सभी दलों ने कई खेमों में बंट कर अपने चुनावी सेनापतियों के नेतृत्व में सत्ता के केन्द्र हस्तिनापुर के सिंहासन पर आरूढ़ होना चाहते है और इसके लिए सभी हथकंडों को भी आजमाने से कत्तई पीछे नही हट रहे है।सभी दलपति प्रतिद्वंद्वी को नकारा,नासमझ के साथ ये भी जनता के भेजे में घुसाने में लगे है कि मेरी ही कमीज़ सबसे उजली है और मौका मिला तो सफ़ेदी को भी आत्महत्या करने पर मजबूर कर दूँगा।
कहा भी जाता है कि राजनीति व्व खेल है जिसमें सत्ता के सभी तीर तरकश से निकाल राजनैतिक शत्रुओं को खेत कर दिया जाता है।
बॉलीवुड भी दशकों से किसी को सत्ता में लाने के लिए तो किसी को बाहर कर देने में भी वक़्त वक़्त पर मजबूत भूमिका निभाती दिखी है।
चाहे कुछेक वर्ष पूर्व अप्रत्यक्ष रूप से पँजाब के युवा वर्ग जो कि बड़ी सँख्या में ड्रग्स के गिरफ्त में रहे है और है उन विषय पर फ़िल्म बनायी थी प्रख्यात निर्माता निर्देशक अनुराग कश्यप ने”उड़ता पँजाब”और अकाली दल-बीजेपी सरकार को पँजाब की सत्ता से उड़ा डाला।
इस बहुचर्चित व विवादास्पद फ़िल्म मे शाहिद कपूर,आलिया भट्ट,करीना कपूर आदि बड़े सितारों ने काम किया था,जिसमे अप्रत्यक्ष रूप से ये सन्देश था कि पँजाब सरकार के कहीं न कहीं मौन समर्थन से ही ड्रग्स कारोबार व तस्करी पर रोक नही लग पा रही है और पंजाबियों में ड्रग्स की लत बढ़ती जा रही है और युवा पँजाब को ड्रग्स के धुवे में उड़ाने में लगा है।
पिछली तारीखें गवाह है कि इस फ़िल्म का विरोध तत्कालीन अकाली दल-बीजेपी सरकार ने जोर शोर से कर इसको चुनाव तक बैन करने की मांग उठायी थी तो उधर काँग्रेस,राहुल गाँधी समेत तमाम पार्टियों में इसे अभिव्यक्ति की आज़ादी पर हमला बताया और पँजाब चुनाव में उड़ता पँजाब फ़िल्म के प्रदर्शन व मुद्दा बना देने से एक ये भी मजबूत कारण रहा कि पँजाब में अकाली-बीजेपी सत्ता से बाहर और काँग्रेस की अमरिंदर सरकार कुर्सी पर जा बैठी।
इसी तरह मशहूर निर्माता/निर्देशक मधुर भंडारकर ने कुछ राज्यों के चुनाव ख़ासकर यूपी के मद्देनजर”इन्दू सरकार”बनायी थी।अब बारी थी काँग्रेस, सोनिया,राहुल गाँधी व बीजेपी के राजनैतिक दुश्मनों की।
कभी बीजेपी के विरोध वाले स्वर को अभिव्यक्त की आज़ादी पर हमला बताने वाले लोगो ने इंदु सरकार का विरोध इसलिए करना शुरू कर दिए कि बीजेपी ने पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की इमरजेंसी वाली भूमिका को बढ़ा चढ़ा कर नकारात्मक छवि गढ़ चुनाव जीत लेना चाहती थी।
मधुर भंडारकर की फ़िल्म के विरुद्ध पूरे देश मे काँग्रेस ने जबरदस्त प्रदर्शन किया,कोर्ट गए,सेंसर बोर्ड गए किन्तु फ़िल्म रिलीज़ हुई।
पीएम मोदी की बचपन से लेकर पीएम बनने तक सफ़र को सिनेमा के पर्दे पर ले जाने के लिए विवेक ओबेरॉय अभिनीत नरेन्द्र मोदी की बायोपिक फ़िल्म को रिलीज़ कर जनता के मन-मस्तिष्क में गहरे धंसना चाहती थी सभी दलों को पीछे छोड़, किन्तु विरोधियों के चक्रव्यूह में फ़िल्म फंस गई।
लोकसभा चुनाव के दौरान फ़िल्म प्रदर्शन से मतदाताओं को प्रभावित करने की दलील को कोर्ट व चुनाव आयोग ने स्वीकार कर लिया है कि ये शुद्ध रूप से मतदाताओं को प्रभावित करने के उद्देश्य से बनाई गई है और इलेक्शन प्रभावित होगा।
नतीजा फ़िल्म चुनाव परिणाम तक रोक दी गयी है।
अब 70 के दशक की वो फ़िल्म “किस्सा कुर्सी का”जिसने आयरन लेडी कही जाने वाली पीएम इन्दिरा गांधी सरकार को उखाड़ देने में बड़ी भूमिका निभाई थी।भारतीय सिने जगत की सबसे विवादास्पद फिल्म मानी जाती है किस्सा कुर्सी का।
आश्चर्यजनक किन्तु यही सत्य है और इस फिल्म का नाम है ‛किस्सा कुर्सी का’। अमृत नाहटा द्वारा साल 1974 में बनाई गई इस फिल्म पर साल 1975 में रोक लगा दी गई थी। देश में लगे आपातकाल के बाद हुए आम चुनाव में यह फिल्म एक बड़ा मुद्दा बनी थी। बाद में इस फिल्म की वजह से सरकार को अपनी चेरी बनाकर रखने वाले उस दौर के सबसे ताकतवर शख़्शियत संजय गांधी तक को जेल की हवा तक खानी पड़ी थी।
दरअसल, फिल्म ‘किस्सा कुर्सी का’ 1975 में रिलीज होने वाली थी। उस दौर में हर फिल्म को पहले सरकार द्वारा देखा जाता था और उसके बाद रिलीज किया जाता था। इसे देखने के बाद सरकार को लगा कि यह फिल्म संजय गांधी के ऑटो मेन्युफैक्चरिंग प्रोजेक्ट और सरकार की नीतियों का मजाक उड़ाती है।
ऐसे में सेंसर बोर्ड द्वारा इस फिल्म पर 51 आपत्तियां लगाते हुए जवाब मांगा गया। अमृत नाहटा ने अपने तर्क रखे लेकिन वे अस्वीकार कर दिए गए,क्योकि प्रधानमंत्री इन्दिरा गाँधी और उनके पुत्र सुपर पीएम माने जाने वाले संजय गाँधी की आँख की किरकिरी बनी हुई थी।
फिल्म के निर्देशक अमृत नाहटा कांग्रेस पार्टी से जुड़े थे,वे साल 1967 और 1971 में कांग्रेस की टिकट पर दो बार बाड़मेर सीट से सांसद भी रह चुके थे। इसके बाद अपनी फिल्म को रिलीज न करने और उसके प्रिंट जलाने के कारण वे कांग्रेस छोड़कर जनता पार्टी में आ गए। अमृत का कहना था कि इंदिरा गांधी का विश्वास नैतिकता में नहीं है,वह एकाधिकार प्रवृत्ति की तानाशाह महिला है।
साल 1977 में जनता पार्टी की सरकार आने पर संजय गांधी और पूर्व केन्द्रीय मन्त्री वी.सी. शुक्ला पर लगे आरोप सही पाए गए कि उन्होंने ‛किस्सा कुर्सी का’ फिल्म के प्रिंट मुंबई से मंगवाकर गुड़गांव स्थित एक मारुति सुजुकी पलांट में जलवा दिए।
इस पर सुप्रीम कोर्ट ने उनकी याचिका ख़ारिज करते हुए जमानत रद्द कर एक महीने के लिए तिहाड़ जेल भेज दिया।
कुछ महीने पूर्व जब यूपी के शिया वक़्फ़ बोर्ड अध्यक्ष व दर्जा प्राप्त मन्त्री वसीम रिजवी ने”राम की जन्मभूमि”फ़िल्म बनाने की घोषणा की तो तुरंत जहाँ मज़हबी कट्टरपंथी ताकतों ने आँखे लाल करनी शुरू कर दिए तो वही सियासतदानों ने भी वोटरों के धार्मिक भावनाओं को भड़काने से भी बाज नही आये।
रामजन्मभूमि फ़िल्म के निर्माता/लेखक होने के साथ ही वसीम रिज़वी ने इसमें महत्वपूर्ण किरदार भी निभाये है।
भले ही रिज़वी इनकार करते रहे कि इस फ़िल्म को बनाने का मक़सद वोट बटोरना नही वरन सियासी व कट्टरपंथी ताकतो के चेहरे से नक़ाब नोचकर दोनों सम्प्रदायों में सामजस्य स्थापित कर पुरुषोत्तम श्रीराम की जन्मभूमि पर भव्य मन्दिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त करना है।
लखनऊ हाइकोर्ट ने लोकसभा चुनाव तक यूपी में इस फ़िल्म के प्रदर्शन पर रोक लगा रखी है।
उधर प्रधानमंत्री नरेन्द्र दामोदर दास मोदी के ऊपर बनी बायोपिक फ़िल्म को भी सुप्रीम कोर्ट ने प्रदर्शन के विरोध में पड़ी याचिका की सुनवाई करते हुए कहा कि इसके रिलीज़ होने से चुनाव के दौरान मतदाता प्रभावित हो सकते है अतः अगले आदेश तक सेंसर बोर्ड प्रदर्शन की अनुमति न दे।
इस बायोपिक में मोदी के चाय बेचने से लेकर पीएम बनने तक के घटनाक्रम को पर्दे पर जीवंत करने हेतु अभिनेता विवेक ओबेरॉय मोदी की भूमिका में नज़र आएंगे तो उनके पिता व मशहूर अभिनेता रहे सुरेश ओबेरॉय भी इस फ़िल्म के निर्माताओं में से एक है।
पॉलिटिक्स व सिनेमा का चोली दामन का साथ यू तो दशकों पुराना रहा है,इसका सबसे बड़ा उदाहरण माने जाते है एन.टी.रामाराव जो कि अपने दौर में दक्षिण में बेहद ही लोकप्रिय,करिश्माई अभिनेता से नेता बनने में सफल रहे।
उनको देवतुल्य से बना डालने में उन साऊथ की फिल्मों ने बुनियादी भूमिका निभाई जिनमे एन.टी.रामाराव ने धार्मिक किरदार अदा किए थे।कई बार व लगातार उनके लिए पागल सी जनता ने मुख्यमंत्री बनाये रखा व वर्तमान में उनकी राजनीतिक विरासत पर देश के पोलिटिकल लेबल पर महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे है उनके दामाद व आन्ध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चन्द्रबाबू नायडू।
मरहूम जे.जयललिता भी एक दौर में दक्षिण के सिनेमाई पर्दे पर इतनी लोकप्रिय हुई थी कि उन्होंने भी सिनेमा से सत्ता तक के सफ़र को बख़ूबी अन्जाम दे फ़िल्मी दुनियां के साथ ही भारतीय राजनीति के पर्दे पर भी कभी न भूलने वाले किरदार को जीवन्त कर डाला।
हालाँकि आज के दौर में दक्षिण में रामाराव व जयललिता जैसी ही दीवानगी रजनीकान्त के लिए भी दक्षिण वासियों के दिलोदिमाग में घर की हुई है।
रजनी सर भी कभी कभार अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षा को भी दर्शा चुके है।
कमल हासन भी राजनीति में कूदे जरूर किन्तु भारी धमक पैदा करने में नाकाम रहे।
चिरंजीवी ने भी पहले प्रजा राज्यम नामक दल बना उसके “दलपति”बन दक्षिण राज्य की राजनीति में कूदे किन्तु आशातित सफलता न मिलने पर यूपीए की मनमोहन सरकार में पहले केंद्रीय राज्यमंत्री बने फिर कुछेक वर्ष पूर्व प्रजा राज्यम पार्टी समेत काँग्रेस में समाहित हो गए।
महानायक अमिताभ बच्चन ने अपने बालसखा राजीव गाँधी से मित्रता निभाने के फेर में तत्कालीन इलाहाबाद लोकसभा सीट पर यूपी ही नही वरन देश की राजनीति में मजबूत हस्ताक्षर रहे पूर्व मुख्यमंत्री हेमवतीनंदन बहुगुणा को इतने भारी अंतर से परास्त किया कि उनका पोलिटिकल कॅरियर का ही द एन्ड हो गया था।
हालांकि अमिताभ को राजनीति के द्वन्द फन्द नही आ पाए थे जिसके लिए बड़े बेआबरू से होकर राजनीतिक कूचे से पुनः फ़िल्मी नगरी में पलट पड़े थे।
बीती तारीखों में भारत ही नही दुनिया ने भी देखा था कि जब अम्मा का निधन बीमारी की वज़ह से हुई तो उनके करिश्माई व्यक्तित्व से मुग्धा कितने नर-नारियों ने आत्मघात तक कर लिए।
इतिहास की तारीखें गवाह है कि
कि बॉलीवुड अभिनेता व वर्तमान मे काँग्रेस के यूपी प्रदेश अध्यक्ष राजबब्बर फिल्म ‛किस्सा कुर्सी का’ द्वारा ही बॉलीवुड में डेब्यू करने वाले थे लेकिन दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं हो सका। इसके बाद साल 1977 में अमृत नाहटा ने दोबारा यह फिल्म बनाई। लेकिन इसमें नाहटा ने राजबब्बर को मौका नही दिया था। जबकि राज किरण, सुरेखा सीकरी और शबाना आजमी मुख्य चरित्र में नजर आए।
कुल मिलाकर ये कहने में कोई भी संकोच नही है कि किसी की भी पार्टी की सरकारें आती-जाती रही हो सत्ता में,जनता को दिन रात नैतिकता, सुचिता, ईमानदारी व लोकतंत्र की घुट्टी पिलाते रहते है किन्तु जरा सा भी उनको लगा कि इस सिनेमा को पर्दे पर पहुँचने से उनकी वोट पोलिटिक्स पर विपरीत असर पड़ेगा तो वो इंदिरा व हिटलर के रूप में ख़ुद को ढालने के लिए तैयार बैठे रहते है किंतु लोकशाही में लोक के दबाव की वजह से ही तन्त्र काबू में रह पाते है।
कहना समीचीन ही होगा कि कोई भी दल हो चाहे वो सत्तानशीन हो या फिर सड़क पर संघर्ष करने का दम भरने वाले विपक्षी वक़्त व जरूरत के अनुसार अभिव्यक्ति की अज़ादी को सुविधानुसार प्रयुक्त कर उसकी अपने वोट को बटोरने व बांधे रखने की सत्ता नीति करते रहते है।