【ग़रीब,देशी चित्रकार की आँखों मे जब खो गयी विदेश बाला तो जन्म ली अद्भुत प्रेमकहानी】
लेखक~रचित
[मुफ़लिश पेंटर के पास नही थे एयर टिकट के पैसे तो स्वीडन जाने के लिए चल दिया सायकल से और फ़िर मिल बैठे एक जान दो जिस्म]
♂÷1975
कनॉट प्लेस
दिल्ली
दिल्ली में सर्दियां शुरू हो चुकी थी। माना जाता है कि उस समय कई विदेशी पर्यटक दिल्ली घूमने आया करते थे। उनमें से ही एक थीं स्वीडन की “शार्लोट वॉन”।
दिल्ली की गलियों में घूमती शार्लोट से किसी ने कहा के कनॉट प्लेस में एक स्केच आर्टिस्ट है जो केवल 10 मिनट में समाने खड़े व्यक्ति का स्केच बना देता है।
उत्सुकतावश शार्लोट कनॉट प्लेस जा पहुंची।
हाथ में पेंट ब्रश थामे “प्रद्युम्न कुमार महानंदिया” उस समय एक व्यक्ति का स्केच बना रहे थे।
शार्लोट ने पीके से उनका स्केच बनाने का आग्रह किया जिसे पीके ने सहर्ष स्वीकार लिया।
शार्लोट सामने बैठ गयी और एक चित्रकार एक सुंदरी को अपने केनवास पर हूबहू उतारने में मशगूल हो गया।
स्केच बन तो गया लेकिन शार्लोट को पसंद नहीं आया। पीके ने शार्लोट से आग्रह किया के वह एक बार पुनः उन्हें उनका चित्र बनाने दें।
अगले दिन फिर शार्लोट पीके के समक्ष बैठ गयी।
कैनवास पर चित्र उकेरता पीके कब स्वीडन की सुंदरी की आंखों में खो गया…..उसे मालूम भी ना हुआ।
एक बेहतरीन स्केच बन गया और बेहतरीन इसलिये था के उसमें प्यार के रंग भरे थे।
आग दोनों ओर बराबर लगी थी। विदेशी बाला भी देसी पेंटर बाबु की आंखों की गहराइयों में खो रही थी। वह आकर्षण था या प्यार …..शार्लोट समझ नहीं पा रही थी। वह हर रोज़ पीके से मिलने लगी।
पीके मूलतः उड़ीसा के निवासी थे।
शार्लोट ने पीके से कहा के वह उड़ीसा घूमना चाहती हैं।
पेंटर बाबू और शार्लोट उड़ीसा की ओर चल दिये।
तब तक उन रिश्ते का कोई नाम नहीं था। दोनों महसूस कर रहे थे के वह एक दूजे को चाहने लगे हैं लेकिन इज़हारे इश्क ना हो सका।
फिर एक शाम देहात की कच्चे रास्तों पर घूमते प्रेमी युगल ने स्वीकार किया के वह जीवन का हर एक पल एक दूजे के साथ बिताना चाहते हैं।
वह क्षण उस रिश्ते का आगाज़ था जिस रिश्ते की राह मुश्किलों से भरी हुई थी।
अपनी प्रेयसी के प्रति पीके का प्यार इतना सच्चा था के उसने इस रिश्ते को मूर्त रूप देने का निश्चय कर लिया।
दोनों ने महानंदिया के रीति रिवाजों के हिसाब से शादी कर ली।
शादी के बाद के कुछ हफ़्ते पीके और शार्लोट के जीवन के सबसे बेहतरीन लम्हे थे।
हर रिश्ता इम्तेहान के दौर से गुजरता है।
वह क्षण आया जब शादी के तीन हफ़्ते बाद शार्लोट स्वीडन वापिस लौट गई।
करीब एक साल तक दोनों चिट्ठियों के जरिये जुड़े रहे। दोनों मिलना तो चाहते थे मगर परेशानियां ख़त्म ही नहीं हो रही थीं। पीके इतने पैसे जुटा ही नहीं पा रहे थे जिससे वह स्वीडन तक की एयर टिकट खरीद सकें।
वहीं दूजी ओर शार्लोट की आर्थिक स्थिति भी बुरी तरह से चरमराई हुई थी।
वियोग बर्दाश्त से बाहर हो चला था। एक दूजे की चिट्ठी मिलती तो उसमें लिखे एक एक शब्द को पढ़ दोनों की भावनाएँ आंखों के जरिये बह जाती।
बहुत कोशिशों के बाद भी महानंदिया प्लेन टिकट का इंतजाम नहीं कर पाए तो उन्होंने एक ऐसा निर्णय किया जो राष्ट्र के प्रेम जगत के इतिहास में अमर हो गया। पीके ने ठान लिया के वह साइकिल पर स्वीडन तक का रास्ता तय करेंगे। उन्होंने एक साइकिल खरीद ली। जेब में कुल 80 डॉलर और दिल में प्रेयसी का प्यार लिये यह सरफिरा आशिक साइकिल के पैडल चलाता करीब 4000 मील की यात्रा पर निकल पड़ा।
22 जनवरी 1977 को सफर शुरू हुआ। दिन में करीब 70 किलोमीटर तक साइकिल चलाई गयी। अपने इस सफ़र में उन्हें पाकिस्तान, अफगानिस्तान, ईरान और टर्की जैसे कई देश होते हुए यूरोप पहुंचे।
5 महीने के अथक प्रयास के पश्चात यह साईकिल सवार आशिक अपने गंतव्य तक पहुंच गया।
शार्लोट के घर की डोरबेल बजी। उन्होंने दरवाज़ा खोला तो सामने एक फटेहाल साइकिल सवार खड़ा था।
करीबन दो साल बाद दोनों ने एक दूजे को देखा।
इस बात का यकीन करने में कुछ क्षण लगे के इतनी परेशानियों के बावजूद दोनों पुनः एक हो चुके हैं।
एक दूजे के प्रति प्रेम और समर्पण आखों के ज़रिये बह निकला।
हर चुनौती को हरा कर सरफिरे हिंदुस्तानी आशिक ने विदेशी गोरी को यह साबित कर दिया के जब एक हिंदुस्तानी अपनी आई पर आ जाये तो सात समुंदर भी पार कर लेता है।
आज भी यह प्रेमी जोड़ा स्वीडन में सुखी विवाहित जीवन जी रहा है और प्रद्युम्न कुमार यानि पीके और शार्लोट की यह प्रेम कथा इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखी जा चुकी है।
÷लेखक मशहूर ब्लॉगर हैं÷