लेखक~अरविंद जयतिलक
♂÷सर्वोच्च न्यायालय ने महाराष्ट्र की शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश और सरकारी नौकरियों में मराठा समुदाय की आरक्षण देने संबंधी राज्य के कानून को न सिर्फ असंवैधानिक करार दिया है बल्कि यह भी कहा है कि 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण समानता के मौलिक अधिकार का हनन है। न्यायालय ने कहा कि यह ठीक है कि बदलते समय के साथ समाज और कानून बदलता है। लेकिन इसका तात्पर्य यह नहीं कि समाज में जो सबके लिए अच्छा व लाभदायक हो उसे भी बदल दिया जाए। न्यायालय ने कहा कि 1992 में मंडल फैसले (इंदिरा साहनी फैसले) के तहत निर्धारित 50 प्रतिशत आरक्षण सीमा के उलंघन के लिए कोई असाधारण परिस्थिति नहीं है। जानना आवश्यक है कि 2018 में महाराष्ट्र सरकार ने मराठा समुदाय को सरकारी नौकरी और उच्च शिक्षा में 16 प्रतिशत आरक्षण दिया था। इसके पीछे जस्टिस गायकवाड़ की अध्यक्षता वाले महाराष्ट्र पिछड़ा वर्ग आयोग की रिपोर्ट को आधार बनाया गया था। बांबे उच्च न्यायालय ने जून 2019 में इस कानून को बरकरार रखते हुए कहा था कि 16 प्रतिशत आरक्षण उचित नहीं है। रोजगार में आरक्षण 12 प्रतिशत और नामंाकन में 13 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए। बांबे उच्च न्यायालय में इस आरक्षण को दो मुख्य आधारों पर चुनौती दी गयी। एक, इसके पीछे कोई उचित आधार नहीं है। दूसरा यह कुल आरक्षण 50 प्रतिशत रखने के लिए 1992 में दिए गए सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का उलंघन है। लेकिन बांबे उच्च न्यायालय ने माना कि असाधारण परिस्थितियों में किसी वर्ग को आरक्षण दिया जा सकता है। सर्वोच्च अदालत में भी दलील दी गयी कि महाराष्ट्र में माराठा समुदाय को आरक्षण देने का फैसला संवैधानिक है और संविधान के 102 वें संशोधन से राज्य के विधायी अधिकार खत्म नहीं होता है। गौरतलब है कि तब कर्नाटक, पंजाब, तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश सहित अन्य राज्यों ने भी आरक्षण को लेकर महाराष्ट्र जैसा रुख अपनाया। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में इस दलील को खारिज कर दिया। उसने कहा है कि मराठा समुदाय के आरक्षण का आधार जस्टिस गायकवाड़ आयोग रिपोर्ट में समुदाय को आरक्षण देने के लिए किसी भी असाधारण परिस्थिति को रेखांकित नहीं किया गया है। लिहाजा मराठा समुदाय को शैक्षणिक व सामाजिक रुप से पिछड़ा नहीं माना जा सकता। उन्हें आरक्षण देना अनुचित होगा। न्यायालय ने महाराष्ट्र सरकार के ही आंकड़ों की ओर ध्यान आकर्षित करते हुए कहा कि मराठा समुदाय का ग्रेड ए, बी, सी व डी की नौकरियों में क्रमशः 33.23, 29.03, 37.06 और 36.53 प्रतिशत प्रतिनिधित्व है। यह मराठा समुदाय के लिए गर्व की बात है। न्यायालय ने कहा कि महाराष्ट्र में कोई आपात स्थिति नहीं थी कि माराठा आरक्षण जरुरी हो। न्यायालय ने दो टूक कहा है कि राज्यों को यह अधिकार नहीं है कि वे किसी जाति को सामाजिक-आर्थिक पिछड़ा वर्ग में शामिल कर लें। वे सिर्फ केंद्र से सिफारिश कर सकते हैं। तथ्य यह भी कि न्यायालय ने महाराष्ट्र राज्य समाजिक व शैक्षिक रुप से पिछड़ा वर्ग अधिनियम 2018 को निरस्त करते हुए आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत तय करने के 192 के मंडल फैसले का पुनर्विचार के लिए वृहद पीठ के पास भेजने से भी इंकार कर दिया है। न्यायालय ने कहा है कि चूंकि विभिन्न फैसलों में इसे कई बार बरकरार रखा गया है लिहाजा अब इसे वृहद पीठ के पास भेजने का औचित्य नहीं है। ध्यान दें तो 1963 में बालाजी मामले के फैसले को दोहराते हुए इंदिरा साहनी केस में सर्वोच्च न्यायालय पहले ही स्पष्ट कर चुका है कि आमतौर पर 50 प्रतिशत से ज्यादा आरक्षण नहीं हो सकता। क्योंकि एक तरफ हमें मेरिट का ख्याल रखना होगा तो दूसरी तरफ हमें सामाजिक न्याय का भी ध्यान रखना होगा। लेकिन गौर करना होगा कि इसी मामले में न्यायमूर्ति जीवनरेड्डी ने यह भी कहा था कि विशेष परिस्थितियों में कारण दिखाकर सरकार 50 प्रतिशत की सीमा रेखा को लांघ सकती है। लेकिन सामान्य तौर पर 50 प्रतिशत से ज्यादा आरक्षण नहीं दिया जा सकता। उल्लेखनीय है कि 29 साल पहले दिए इंदिरा साहनी फैसले में नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 प्रतिशत तय की गयी थी। उस समय नौ न्यायाधीशों की पीठ ने कहा था कि असाधारण परिस्थितियों को छोड़कर आरक्षित सीटों की संख्या कुल उपलब्ध रिक्तियों के 50 प्रतिशत से अधिक नहीं होने चाहिए। ध्यान देना होगा कि मराठा आरक्षण मामले में सर्वोच्च अदालत का मौजूदा फैसला इस मायने में ज्यादा महत्वपूर्ण है कि गत माह पहले सर्वोच्च न्यायालय ने आरक्षण को लेकर कई संवैधानिक सवाल खड़ा किए थे। उसने जानना चाहा था कि क्या केंद्र व राज्य सरकारें शिक्षण संस्थाओं और नौकरियों में 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण दे सकती हैं? क्या सांविधानिक संशोधनों और सामाजिक आर्थिक बदलावों के मद्देनजर आरक्षण का फिर से परीक्षण किया जा सकता है? सवाल यह भी उठ खड़े हुए थे कि क्या अनुच्छेद 342ए पिछड़े वर्ग के नागरिकों के संबंध में कानून बनाने की राज्यों की शक्ति का हनन करता है? क्या ऐसे कानून बनाए जाने से संविधान की संरचना प्रभावित होती है? क्या संविधान का 102 वां संशोधन विधायिका को पिछडे़ वर्गों का निर्धारण करने वाले कानून को लागू करने से वंचित करता है? सवाल यह भी उठा कि क्या राज्यों के किसी भी पिछड़े वर्ग के संबंध में कानून बनाने की शक्ति अनुच्छेद 15 (4), और 16 (4) के तहत अनुच्छेद 342 (ए) द्वारा संविधान के अनुच्छेद 366 (26सी) के साथ पढ़ा जाता है? क्या पिछड़ा वर्ग अधिनियम के तहत महाराष्ट्र राज्य आरक्षण में संशोधित कर 50 प्रतिशत आरक्षण के अलावा मराठा समुदाय के लिए 12-13 प्रतिशत आरक्षण इंदिरा साहनी मामले में 1992 के फैसले के अनुसार असाधारण परिस्थितियों के दायरे में आता है? क्या अनुच्छेद 338 बी और 342 ए राज्यों की शक्ति को प्रभावित करते हैं? ऐसे ढेरों सवाल उठे। इसके अलावा पहले भी आरक्षण के मसले पर अनेकों राज्यों द्वारा अलग-अलग मुद्दे उठाए जा चुके है। ये सभी मामले कहीं न कहीं मराठा आरक्षण मामले से जुड़ जाते हैं। ऐसे में सर्वोच्च न्यायालय का यह कहना सर्वथा उचित रहा कि यह मामला केवल मराठा समुदाय तक ही सीमित नहीं है। अन्य राज्यों के पक्ष को भी सुनना आवश्यक है। क्योंकि इस मामले में उसके निर्णय का व्यापक प्रभाव होगा। अब जब इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने अपना फैसला सुना दिया है तो उठने वाले सांविधानिक सवालों का भी जवाब मिल गया है। इस फैसले के बाद स्पष्ट हो गया कि असाधारण परिस्थितियों के अलावा राज्य सरकारें किसी समुदाय को 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण नहीं दे सकती। सच कहें तो सर्वोच्च अदालत ने इस फैसले के जरिए आरक्षण की लक्ष्मणरेखा तय कर दी है। लेकिन यहां ध्यान देना होगा कि देश के कई राज्यों में 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण है। उदाहरण के लिए राजस्थान में अभी सबसे ज्यादा 82 प्रतिशत, तमिलनाडु में 69 प्रतिशत, तेलंगाना में 62 प्रतिशत तथा झारखंड में 60 प्रतिशत है। महाराष्ट्र में भी 60 प्रतिशत से अधिक आरक्षण है। सवाल लाजिमी है कि क्या सर्वोच्च अदालत के फैसले के बाद अब राज्य सरकारें 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण देने का प्रयास नहीं करेंगी? क्या राजस्थान में गुर्जर, हरियाणा में जाट, महाराष्ट्र में मराठा, और गुजरात में पटेल समुदाय के आरक्षण का मसला नहीं उठेगा? कहना मुश्किल है। क्योंकि राजनीतिक दल शायद ही इस सियासत से बाज आएं। अकसर देखा जाता है कि जब भी राज्य विधानसभा के चुनाव करीब आते हैं राजनीतिक दल विभिन्न समुदायों को आरक्षण दिए जाने का प्रलाप शुरु कर देते हैं। जबकि यह संवैधानिक बाध्यता है कि एक समुदाय को पिछड़ा वर्ग का दर्जा देने के लिए संविधान के अनुच्छेद 15 (4) और 340 (1) के तहत केवल दो स्थितियों के लिए आरक्षण प्रदान करता है। एक सामाजिक पिछड़ापन और दूसरा शैक्षणिक पिछड़ापन। लेकिन गत वर्ष केंद्र सरकार ने 103 वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम 2019 के माध्यम से आर्थिक रुप से कमजोर वर्ग के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान किया। अच्छी बात यह है कि कुछ राजनीतिक दलो को छोड़ अन्य सभी राजनीतिक दलों ने इस पहल का स्वागत किया। अब देखना दिलचस्प होगा कि मराठा आरक्षण मामले में सर्वोच्च अदालत के फैसले के बाद महाराष्ट्र सरकार का रुख क्या रहता है।
÷लेखक राजनीतिक व सामाजिक विश्लेषक हैं÷