लेखक~अरविंद जयतिलक
♂÷दुनिया भर के वैज्ञानिक कैंसर का प्रभावी इलाज खोजने के लिए लगातार शोध कर रहे हैं ।उसी का नतीजा है की कीमोथेरेपी के अलावा ऐसे कई उपचार तैयार कर लिए गए हैं जिससे कैंसर को मात देने में सफलता मिल रही है। आंकड़ों पर नजर डालें तो पिछले 4 दशकों में कैंसर से उबरने वाले लोगों की संख्या में 2 गुना इजाफा हुआ है।”यूनिवर्सिटी आफ जेनेवा” और स्विट्जरलैंड की “यूनिवर्सिटी ऑफ बासेल” के वैज्ञानिकों ने एक ऐसा डिजाइनर वायरस तैयार किया है जो शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता को अधिक सक्रिय कर कैंसर के प्रोटीन को ख़त्म कर रहा है।उधर लंदन के “इंस्टीट्यूट ऑफ कैंसर रिसर्च” के वैज्ञानिकों ने अण्डाशय कैंसर के लिए प्रभावी दवा तैयार करने का दावा किया है।
आंकड़ों पर गौर करें तो 1991 से अब तक कैंसर मृत्यु दर में 23% की गिरावट दर्ज हुई है आज की तारीख में 3.2 करोड़ लोग कैंसर को मात देकर सामान्य जीवन जी रहे हैं। अगर भारत की बात करें तो यहाँ सालाना होने वाली कुल मौतों में से 6 फीसद यानी 3.5 लाख लोगों की मौत कैंसर से होती है। यह दुनिया भर में कैंसर से होने वाली कुल मौतों का 8 फीसद है।एक अन्य आंकड़ों के मुताबिक देश में हर रोज 13000 लोगों की मौत कैंसर से होती है। कैंसर से मरने वाले सर्वाधिक मामले उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और बिहार में देखे गए लेकिन अच्छी बात यह है कि विगत वर्षों में कैंसर से होने वाली मौत में कमी आई है। यहां ध्यान देने वाली बात है कि भारत में कैंसर की प्रमुख वजहों में अशिक्षा, कुपोषण, गरीबी,कम उम्र में विवाह, महिलाओं को बार बार गर्भवती होना और खराब सेहत है।अगर इस दिशा में सुधार के कदम उठाया जाए तो परिणाम बेहतर हो सकते हैं।विशेषज्ञों का कहना है कि यह कैंसर के उपचार के विकल्प को मात्र 3 तरीके से पाटा जा सकता है।इसके लिए सबसे पहले वैश्विक समुदाय को विकासशील देशों में कैंसर की जांच के लिए कार्यक्रम चलाने में मदद देनी चाहिए ,इसके तहत रेडियोथैरेपी मशीनें उपलब्ध कराने के साथ ही भारत सरकार की राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना अपनाने को बढ़ावा देना चाहिए। विशेषज्ञों का मानना है कि अगर हर साल कैंसर के उपचार में पूरी दुनिया में 320 अरब डालर का निवेश किया जाता है तो कैंसर से होने वाली मौतों की संख्या आधी हो जाएगी।अगर सर्वाइकल व स्तन कैंसर से पीड़ित महिलाएं समय रहते पपानीकोलाऊ(पैप)स्मीयर और मैमोग्राम स्क्रीनिंग टेस्ट करा कर तुरंत इलाज कराये तो इस भयंकर बीमारी से छुटकारा मिल सकता है।आईआरसी के मुताबिक बेहतर उपचार होने की स्थिति में बचने वाले 5 मरीजों में से 4 विकासशील देशों के होंगे,लेकिन विडंबना है कि कैंसर पीड़ित मरीजों विशेषकर महिलाओं में इस बीमारी को लेकर जागरूकता का घोर अभाव है और दूसरा यह कि उन्हें समय पर इलाज नहीं मिल पा रहा है। अच्छी बात है कि 2016-18 के दौरान”वी कैन-आई कैन” की थींम निर्धारित किया गया ,जिसका मकसद प्रत्येक व्यक्ति के सामूहिक व व्यक्तिगत स्तर पर वैश्विक रूप से कैंसर की रोकथाम की दिशा में प्रयास करना है।इस थीम के तहत लोगबाग अपनी जीवनशैली को स्वस्थ रखकर तथा परिवार एवं समुदाय को इसके प्रति जागरूक रखकर कैंसर की रोकथाम और उससे बचाव की दिशा में अहम योगदान का सहभागी बन सकते हैं।यह इसलिए भी आवश्यक है कि गत वर्ष “अमेरिकन कैंसर सोसायटी” और प्रतिष्ठित मेडिकल “जनरल लैंसेट” ने दावा किया था कि वर्ष 2030 तक कैंसर से होने वाली मौतों में 60 फीसद का इजाफा होगा। उसने यह भी कहा था कि कैंसर से सालाना 55 लाख महिलाओं को अपनी जान से हाथ धोना पड़ सकता हैं।दरअसल विशेषज्ञों ने शोध में पाया कि वर्तमान समय में दुनिया की प्रत्येक 7 महिलाओं की मौतों में से एक की मौत कैंसर से हो रही है। एक अन्य शोध में उद्घाटित हुआ है यह वर्ष 2030 तक सर्वाइकल “बच्चेदानी का मुंह का कैंसर”पीड़ित महिलाओं की संख्या में 25 फीसद का इजाफा हो सकता है।उल्लेखनीय है कि मौजूदा समय में सर्वाइकल कैंसर की चपेट में आकर हर साल दुनिया में तकरीबन 2 लाख 75 हज़ार महिलाओं की मौत हो रही है।आंकड़ों पर गौर करें तो सर्वाइकल कैंसर के कारण दम तोड़ने वाली महिलाओं की 85 फ़ीसद आबादी केवल विकासशील देशों से है। विश्व स्वास्थ्य संगठन का कहना है कि वर्ष 2012 में कैंसर के लगभग 1 करोड़ 40 लाख मामले उजागर हुए ,जिसमें 82 लाख लोगों की मौत हुई,इनमें 1करोड़ 40 लाख मामलों में 60 फीसद से अधिक लोग अफ्रीका,एशिया और दक्षिण अमेरिका के रहने वाले थे। कैंसर के कारण मरने वाले 70 फीसद से अधिक लोग इन्हीं तीन महाद्वीपों में होते हैं।
चिंता की बात है कि कैंसर से पीड़ित महिलाओं के सर्वाधिक मामले भी गरीब देशों में ही देखे जा रहे हैं।शोधकर्ताओं की मानें तो तेजी से होते आर्थिक बदलाव से शारीरिक निष्क्रियता, असंतुलित खुराक,मोटापा और प्रजनन कारकों के चलते गरीब देशों में कैंसर पीड़ित महिलाओं की संख्या में तेजी से बढ़ोतरी हो रही है अगर नियमित शारीरिक गतिविधियों को बढ़ावा दिया जाए तो इससे शरीर संतुलित रहेगा और एक तिहाई कैंसर के मामले रोके जा सकते हैं। “इंडस हेल्थ प्लस” की रिपोर्ट की माने तो शहरों में बढ़ते हुए मोटापे के कारण 10 से 12 फीसद जनसंख्या पेट के कैंसर के जोखिम के दायरे में आ गई है।25 से 30 वर्ष के आयुवर्ग के 17 फ़ीसद जनसंख्या में धूम्रपान एवं तंबाकू के सेवन के कारण मुख एवं फेफड़े के कैंसर का खतरा बन गया है।चिकित्सकों का कहना है कि एक तिहाई से ज्यादा कैंसर तम्बाखू या उससे बने उत्पादो की सेवन की देन है। जबकि एक तिहाई खान-पान व रहन-सहन या दूसरे कारणों से होते हैं।जहां तक महिलाओं द्वारा तंबाकू का सेवन सवाल है तो इनकी संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है लेकिन महिलाओं को तंबाकू के सेवन से बचना चाहिए क्योंकि उनका शरीर तंबाकू के प्रति उच्च संवेदनशील होता है। तंबाकू के सेवन से उनमें सर्वाइकल कैंसर का खतरा ज्यादा बढ़ जाता है। तंबाकू के सेवन के अलावा घर व बाहर का वायु प्रदूषण भी कैंसर के बढ़ते खतरे का सबब बनता जा रहा है। भारत में बढ़ते हुए प्रदूषण के कारण दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में 35 से 45 वर्ष के आयु वर्ग के लोग विभिन्न प्रकार के कैंसर के जोखिम के दायरे में आ जा रहे हैं।जिसके लिए काफी हद तक वायु प्रदूषण भी जिम्मेदार है।
वाहन व उद्योगों से निकलने वाले जहरीले धुँए से होने वाले प्रदूषण के कारण पिछले वर्ष फ़ेफ़डे के कैंसर मामले में 5 से 6 फीसद की वृद्धि हुई है। दक्षिण पूर्व एशिया में यह समस्या ज्यादा विकट है। वर्तमान समय में विश्व के शीर्ष 20 प्रदूषित शहरों में 14 दक्षिण पूर्व एशिया क्षेत्र से हैं।हालांकि विश्व कैंसर दिवस के संस्थापक “यूनियन फॉर इंटरनेशनल कैंसर कंट्रोल” का दावा है कि विकासशील देशों में फैली कैंसर की बीमारी उपचार के विकल्प की कमियां का नमूना भर है। यूनियन का कहना है कि अगर”एचपीवी” टीका को कैंसर के मरीजों के बीच अच्छी तरह वितरित किया जाए तो सर्वाइकल कैंसर को समाप्त किया जा सकता है,लेकिन विकासशील देशों के इस टीके तक पहुंच ही नहीं है,जिसके कारण कैंसर पीड़ितों की मौत का सिलसिला बढ़ता जा रहा है। जबकि सच्चाई यह है कि कैंसर के 90 फ़ीसद से ज्यादा मरीजों का प्रथम चरण में इलाज हो सकता है लेकिन इस स्तर पर ठोस पहल नहीं होती है।अगर इस दिशा में रोडमैप नही तैयार किया गया तो वर्ष 2025 तक सामने आने वाले कैंसर के मामलों में 70 फीसद मामले विकासशील देशों के हो सकते हैं।

÷लेखक राजनीतिक विश्लेषक व विदेशी मामलों के जानकार हैं÷