लेखक~संजय राय
♂÷कोरोना महामारी ने पूरे विश्व में कहर मचा रखा रखा है। इसी बीच अल अक्सा मस्जिद को लेकर फिलस्तीन और इजरायल एक दूसरे के खून के प्यासे बन गये हैं। रमजान महीने के आखिरी जुम्मा यानि 7 मई, 2021 को अल अक्सा मस्जिद में नमाज के बाद शुरू इस युद्ध को पूरी दुनिया देख रही है। अगर इसे जल्द नहीं रोका गया तो यह तो कोरोना के साथ-साथ धरती पर एक और भीषण मानवीय त्रासदी को कोई नहीं रोक पायेगा।
फिलस्तीन की तरफ से संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा आतंकी संगठन घोषित किया गया संगठन हमास लड़ रहा है। उसने इजराइल पर कई हजार राॅकेटों से हमला किया है और यह अभी भी जारी है। हमास इजराइल के अस्तित्व को पूरी तरह समाप्त करने की बात करता है और इजराइल अपने अस्तित्व की रक्षा के लिये वैश्विक जनमत को दरकिनार करके किसी भी हद को पार करने की बात कहता है।
हमास के हमले से तिलमिलाये इजराइल ने बदले की कार्रवाई में फिलस्तीन के कई इलाकों पर हवाई हमले शुरू कर दिये हैं। हमले रोकने की कई देशों की अपील को इजराइल ने रद्दी की टोकरी में फेंक दिया है और घोषणा की है कि अभी युद्ध की शुरुआत हुई है। वह तब तक पूरी ताकत के साथ जारी रहेगा, जब तक पूरी तरह शांति स्थापित नहीं होगी। इजराइल के बमवर्षक विमान फिलस्तीन की बस्तियों पर लगातार दिन रात हमला कर रहे हैं। दोनों तरफ से रिहायशी इलाकों में भी हमले किये जाने की खबरें आ रही हैं।
दोनों देशों की भौगोलिक और सामाजिक संरचना जितनी जटिल है, उतनी शायद ही किसी देश की होगी। जेरुशलम यहूदी, ईसाई, आर्मेनियाई ईसाई, और मुस्लिम धर्म के अनुयायियों का पवित्र स्थल है। यह जगह दो हजार साल से अधिक समय का इतिहास समेटे हुए है। यही वो जगह है जहां पर यूहदियों का पवित्र मंदिर है। इस मंदिर के एक हिस्से की दीवार अभी भी मौजूद है। यहूदी इसे ओल्ड वाॅल कहते हैं। वे इस दीवार को पवित्र से भी पवित्र मानते हैं और अपना सिर रखकर रोते हैं। जेरूशलम में ही ईसा मसीह को सूली पर चढ़ाया गया था। उन्हें यहूदियों ने ही सूली पर टांगा था। ईसा मसीह इसी यहूदी समाज के थे। इस जगह पर यहूदियों का दावा सबसे पुराना है। इसके बाद ईसाई समुदाय ने इसको अपना पवित्र स्थल बनाया।
वहीं, जेरूशलम को लेकर मुसलमानों की मान्यता है कि मक्का से उनके पैगंबर मोहम्मद साहब रात में एक उड़ने वाले घोड़े पर सवार होकर इस जगह पर आये थे। मुसलमान अल अक्सा मस्जिद को मक्का और मदीना के बाद अपनी तीसरी सबसे पवित्र जगह मानते हैं। सातवीं सदी में हुई मोहम्मद साहब की इस यात्रा को हिजरत कहा जाता है। मुसलमान मानते हैं कि यहां पर अल्लाह के देवदूत ने उनको कुरान की कुछ आयतें बतायी थीं।
1948 में इजराइल बनने से पहले फिलस्तीन पर ब्रिटेन का कब्जा था। द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद ब्रिटेन और अमेरिका ने इस इलाके को दो टुकड़ों में बांट दिया जिसे इजराइल और फिलस्तीन देश का नाम दिया गया। इजरायल बनने के पहले इलाके को फिलस्तीन भले ही कहा जाता था, लेकिन उस समय फिलस्तीन नाम का कोई राष्ट्र अस्तित्व में नहीं था। फिलस्तीन की कोई सर्वमान्य राजनीतिक सीमा नहीं थी, कोई अमीर, राजा, प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति भी नहीं था। फिलस्तीन के किसी भी देश के राजनयिक संबंध भी नहीं थे।
इजराइल के अस्तित्व में आने के साथ ही दोनों देशों के बीच जमीन को लेकर असली विवाद और संघर्ष शुरू हुआ, जा आज नासूर बन चुका है। यह विवाद दोनों तरफ से मासूमों का जीवन असमय ही समाप्त कर रहा है। इस समस्या का समाधान एक दिन में संभव नहीं है, लेकिन फिलहाल जो हालात पैदा हुए हैं, उस पर तुरंत रोक लगाने की जरूरत है, वर्ना, इस युद्ध की आग पूरे विश्व में फैल सकती है और अगर ऐसा हुआ तो यह अब तक इतिहास की सबसे भीषण इंसानी तबाही का कारण बन सकता है।
इजराइल और फिलस्तीन के इस युद्ध में पूरा विश्व कई खेमों में बंटा नजर आ रहा है। बाहर से यही दिख रहा है कि मुस्लिम राष्ट्र पूरी तरह से फिलस्तीन के पीछे पूरी ताकत के खड़े हैं। ये सभी कड़े शब्दों में इजराइल की निंदा कर रहे हैं। सऊदी अरब, तुर्की, ईरान, पाकिस्तान, कुवैत और खाड़ी के कई देशों ने इसराइल की खुलकर निंदा की है। इन देशों में पाकिस्तान और और संभवतः ईरान दो ऐसे राष्ट्र हैं, जिनके पास एटम बम है। पाकिस्तान सुन्नी बहुल राष्ट्र है ईरान शिया बहुल है। पिछले साल अक्टूबर महीने ईसाई बहुल आर्मेनिया और मुस्लिम बहुल अजरबैजान के बीच हई लड़ाई में पाकिस्तान ने सक्रिय रूप से अजरबैजान का साथ दिया था। उस समय आर्मीनिया की तरफ से यह आरोप भी लगाया गया था कि पाकिस्तान ने अजरबैजान की तरफ से लड़ने के लिये कुछ सैनिकों को भेजा है और साजोसमान से भी सहायता की है। लेकिन फिलस्तीन इजराइल विवाद में वह निंदा से आगे बढ़ने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है।
फिलहाल जो समीकरण है उसे देखकर यह साफ कहा जा सकता है कि इजराइल-फिलस्तीन युद्ध में पाकिस्तान और बाकी मुस्लिम राष्ट्र कड़ी निंदा करने के अलावा कुछ भी नहीं कर पा रहे हैं और न ही आगे कुछ करने वाले हंै। 57 मुस्लिम देशों के संगठन ओआईसी यानि इस्लामिक सहयोग संगठन ने भी एक प्रस्ताव पारित करके इजराइल की निंदा की है। आपस में बुरी तरह बंटे इस्लामिक देशों के पास इजराइल की कड़ी निंदा करने से अधिक कोई दूसरा रास्ता है ही नहीं।
संयुक्त अरब अमीरात ने भी जेरूशलम में हुई हिंसा की निंदा करते कहा है कि इजराइल की सरकार को शांति कायम करने और हमले रोकने की जिम्मेदारी लेनी चाहिये। पिछले साल ही संयुक्त अरब अमीरात, बहरीन, मोरक्को और सूडान ने इजराइल के साथ समझौतों पर हस्ताक्षर किये हैं। इन समझौते ‘अब्राहम एकॉर्ड्स’ के नाम से जाना जाता है। मिस्र ने 1979 में और जाॅर्डन ने 1994 में इजराइल के साथ शांति समझौता कर रखा है। अब इस समझौते पर इन देशों का क्या रुख होगा यह देखना रोचक होगा।
वहीं, इसराइल का पड़ोसी देश जॉर्डन इजराइली हमलों को रोकने के लिए गहन कूटनीतिक स्तर पर प्रयास कर रहा है। दूसरे पड़ोसी देश लेबनान ने अंतरराष्ट्रीय समुदाय से अपील की है कि वह इजराइल को हमले रोकने के लिये कहे। तीसरा पड़ोसी देश मिस्र हमेशा की तरह इस बार भी दोनों पक्षों के बीच संघर्ष विराम की कोशिशों में लगा है।
फिलहाल जमीनी हकीकत यह है कि मुस्लिम देशों का नेतृत्व अंदर ही अंदर बंटा हुआ है। इस समय अरब और उत्तर अफ्रीकी मुस्लिम देशों का नेतृत्व करने के लिये तुर्की और सऊदी अरब के बीच जबरदस्त प्रतिस्पर्धा चल रही है। अभी यह नेतृत्व सऊदी अरब के हाथ में है। कई प्रभावशाली देशों जैसे तुर्की, मिस्र जाॅर्डन और फारस की खाडी से घिरे देशों के समूह गल्फ कोआॅपेरेशन काउन्सिल के इजराइल के साथ कारोबारी संबंध हैं। इस समूह में बहरीन, कुवैत, ओमान, कतर सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात शामिल हैं। इसका मुख्यालय सऊदी अरब के रियाद में है। ये देश इजराइल के साथ अरबों डालर का सालाना कारोबार कर रहे हैं। जाहिर है फिलस्तीन के साथ इनकी एकजुटता सिर्फ एक सीमा से आगे बढ़ने वाली नहीं है।
अगर फिलस्तीनियों के साथ इनका वास्तविक लगाव होता तो ये देश कम से कम उन्हें अपने देश में रहने की जगह देते। ये फिलस्तीनियों को शरणार्थी के रूप में भी स्वीकार नहीं कर पाते हैं। ठीक उसी तरह जैसे 1947 पाकिस्तान गये यूपी और बिहार के मुसलमानों को वहां की स्थानीय आबादी ने स्वीकार नहीं किया और वे आजतक मोहाजिर बने हुए हैं। धर्म की एकता की बात करने वाले इन इस्लामिक देशों की हकीकत यही है।
वहीं, दूसरी तरफ अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस और यूरोप के अधिसंख्य राष्ट्र फिलस्तीन के अस्तित्व को तो स्वीकार करते हैं, लेकिन वे इजराइल के साथ खड़े नजर आ रहे हैं। अमेरिका तो इजराइल के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र में प्रस्ताव पेश करने प्रयासों का भी विरोध कर रहा है। इजराइल के समर्थक देशों का कहना है कि इजराइल को आत्मरक्षा का पूरा अधिकार है। रुस निष्पक्ष बना हुआ है। चीन अमेरिका की मुस्लिम नीति को निशाना बनाकर अपने यहां वीगर मुस्लिमों पर किये जा रहे अत्याचार से निजात पाने की कोशिश कर रहा है।
अब बात करते हैं इस युद्ध में भारत की भूमिका की। भारत की पहले से चली आ रही नीति यही है कि वह इजराइल और फिलस्तीन दोनों को स्वतंत्र देश के रूप में मान्यता देता है। जब फिलस्तीन का नेतृत्व यासिर अराफात के हाथ में था उस समय भारत और फिलस्तीन के संबंध काफी अच्छे थे। उस समय तक फिलस्तीन कश्मीर के मुद्दे पर भारत के साथ खड़ा था, लेकिन अराफात की मृत्यु के बाद यह समर्थन कभी भी उतना मुखर नहीं दिखा, जितना उनके समय था।
कांग्रेस नेता प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव के शासनकाल में भारत ने 1992 में इजराइल के साथ राजनयिक संबंध स्थापित किया। उसके बाद से दोनों देशों के बीच रक्षा और रणनीतिक संबंध लगातार प्रगाढ़ होते जा रहे हैं। इजराइल ने कई अहम अवसरों पर भारत को सहयोग किया है। वर्तमान सरकार तो इजराइल के साथ संबंधों को प्रगाढ़ करने की पुरजोर समर्थक है। लेकिन वैश्विक राजनीति और कूटनीतिक मजबूरियों के कारण देश हित में यह समर्थन खुलकर नहीं दिखता है। भारत फिलस्तीनियों के अस्तित्व को मानता है, लेकिन हमास को आतंकी संगठन ही मानता है। फिलस्तीन की चुनी हुई सरकार फिलस्तीन लिबरेशन आॅर्गेनाइजेशन के हाथ में है और उसके साथ भारत के राजनयिक संबंध बना हुआ है।
भारत और इजराइल की प्रगाढ़ दोस्ती के बावजूद अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर भारत को कई बार फिलस्तीन का समर्थन करना पड़ा है। इस रुख के पीछे मुख्य रूप से कश्मीर समस्या और खाड़ी के मुस्लिम देशों के साथ हमारे संबंध प्रमुख कारक रहे हैं। मुस्लिम देशों के साथ अरबों डाॅलर का कारोबार है और करोड़ों भारतीयों को इनके यहां रोजगार मिला हुआ है। यही कारण है कि मोदी सरकार ने भी संयुक्त राष्ट्र में फिलस्तीन के आत्मनिर्णय के अधिकार के पक्ष में मतदान किया है। लेकिन वास्तविकता यही है इजराइल को इन मतदानों का कोई मतलब नहीं है और संयुक्त राष्ट्र में भारत के फिलस्तीन के पक्ष में वोट देने से इजराइल के साथ संबंधों पर कोई विशेष असर नहीं पड़ता है। भारत की विदेश नीति जिस दिशा में चल रही है, उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि भारत और इजराइल के संबंधों में प्रगाढ़ता आगे भी जारी रहने वाली है। भारत ने जो भी निर्णय लिया है वह देशहित और वर्तमान परिस्थियों की दृष्टि से एकदम सही है।
फिलहाल फिलस्तीन और उसकी तरफ से लड़ रहे आतंकी संगठन हमास को लेकर देश के एक बौद्धिक वर्ग में जरूरत से अधिक लगाव की प्रवृत्ति देखी जा रही है। इस वर्ग को भारत-इजराइल संबंधों में बढ़ रही करीबी बिलकुल गलत दिखती है। यह वर्ग इजराइल के विरोध में लगातार जहर उगलता है। इस वर्ग का यह लगाव विशेष रूप से घरेलू तुष्टीकरण की राजनीति और धार्मिक भावना से प्रेरित है। यह वही वर्ग है जिसे अपने पड़ोस में पाकिस्तान द्वारा पिछले कई दशकों से तालिबानियों के सहारे अफगानिस्तान में किया जा रहा मुसलमानों का संहार नहीं दिखता है। कश्मीर में पाकिस्तान आतंकवाद फैलाने की फैक्टरी चला रहा है, लेकिन उस पर यह वर्ग मौन रहता हैं। ईरान-इराक आपस में लड़ते हैं, यह वर्ग चुप रहता है। पाकिस्तान में मोहाजिरों, अहमदिया मुसलमानों और हिंदुओं पर अत्याचार होता है ये चुप रहते हैं।
यह बात समझ से परे है कि विदेशनीति जैसे अहम मसले पर इनका ऐसा रवैया क्यों है। विदेश नीति जैसे महत्वपूर्ण विषय पर इन तथाकथित धर्मनिरपेक्ष लोगों की इस दोगली नीति से देश का नुकसान ही हो रहा है। सोचने वाली बात है विदेश नीति पर सत्ता पक्ष व विपक्ष की राय समान रहती है, इसके बावजूद ये लोग अपनी अलग राय रखकर विदेशनीति को कमजोर करने का प्रयास करते हैं। इस पर इन बुद्धिजीवियों को विचार करने की जरूरत है।
विदेश नीति में कूटनीति का जो तत्व होता है, उसका इस्तेमाल अपने देश के हितों को साधने में किया जाता है। वैश्वीकरण के वर्तमान दौर में यह और अधिक महत्वपूर्ण हो चुका है। विदेश नीति में नैतिक सिद्धांतों का भी इस्तेमाल अपने हितों की पूर्ति में ही किया जाता है। फिलस्तीन के समर्थन की आड़ में हमास जैसे आतंकी संगठनों को कतई समर्थन नहीं दिया जा सकता है। अगर ऐसा होता है तो कल को पाकिस्तानी आतंकियों का विरोध करना मुश्किल हो जायेगा। यह बात इन बुद्धिजीवियों को अच्छी तरह समझ लेनी चाहिये और अपनी सोच को दुरुस्त करके सरकार की नीति का एकजुट होकर समर्थन करना चाहिये।
फिलस्तीन के पक्ष में भारत को इस हद तक कदापि नहीं जाना चाहिये कि इजराइल के साथ संबंध ही खराब हो जाये। भारत और इजराइल के हित दिनों दिन मजबूत हो रहे हैं और इससे भारत को काफी फायदा मिल रहा है। आतेकवाद के प्रति आज अपनी एकजुटता के कारण इजराइल ताकतवर बना हुआ है और आतेकी संगठन हमास को नाकों चने चबवा रहा है। हमें समझना होगा कि इसी तरह की एकजुटता से ही भारत राष्ट्र मजबूत बनेगा और दुनियाभर में उसकी धाक मजूबत होगी। इजराइल की तरह बनकर ही भारत पाक पोषित आतंकवाद के नासूर का स्थायी इलाज कर सकता है। जब तक भय पैदा नहीं होगा आतंकी हमले जारी रहेंगे। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि भारत इजराइल-फिलस्तीन विवाद में अपने हितों को देखते हुए संतुलन बनाकर चल रहा है, जो वर्तमान परिस्थितियों में पूरी तरह सही है।
समाप्त।
÷लेखक “आज”समाचार पत्र के नेशनल ब्यूरो इन चीफ़ के रूप में दिल्ली में कार्यरत हैं÷