लेखक~अरविंद जयतिलक
♂÷यह स्वागतयोग्य है कि सर्वोच्च अदालत ने राजनीति में अपराधियों के बढ़ते प्रवेश पर रोक लगाने के लिए अपना तेवर सख्त कर लिया है। उसने कहा है कि सांसदों और विधायकों के खिलाफ द्वेषपूर्ण आपराधिक मामलों को वापस लेने में कोई हर्ज नहीं है लेकिन संबंधित उच्च न्यायालय द्वारा ऐसे मामलों का परीक्षण भी आवश्यक है। अदालत ने माना है कि चूंकि मामला जनप्रतिनिधियों का है ऐसे में शक्ति के दुरुपयोग होने की आशंका स्वाभाविक है। जाानना आवश्यक है कि सर्वोच्च अदालत ने गत 10 अगस्त को एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए दो टूक कहा कि राज्य सरकारें सांसदों-विधायकों के खिलाफ आपराधिक मामले उच्च न्यायालय की मंजूरी के बिना वापस नहीं ले सकते। उसने सभी उच्च न्यायालयों को ताकीद किया कि केरल राज्य बनाम के अजीत मामले के फैसले के आलोक में 16 सितंबर, 2020 के बाद से सांसदों व विधायकों पर मुकदमों की वापसी का परीक्षण करे। याद होगा कि राजनीतिक दलों के दोहरे आचरण को देखते हुए अदालत ने गत फरवरी के आदेश में बदलाव करते हुए सुनिश्चित किया कि राजनीतिक दलों को अपने उम्मीदवरों की घोषणा के 48 घंटे में उनका आपराधिक रिकार्ड दो अखबारों में प्रकाशित करना होगा। साथ ही वेबसाइट पर जानकारी देते हुए 72 घंटे में इसकी जानकारी चुनाव आयोग को भी देनी होगी। गौरतलब है कि फरवरी 2020 में सर्वोच्च अदालत ने उम्मीदवार के चयन के 48 घंटे या नामांकन दाखिल करने की पहली तारीख से दो हफ्ते पहले उम्मीदवरों की पूरी जानकारी देने का आदेश दिया था। अदालत के इस कड़े रुख से साफ है कि अब राजनीतिक दलों के लिए आपराधिक छवि वाले सियासतदानों का बचाव आसान नहीं होगा। ऐसा इसलिए भी कि अदालत ने अपने पिछले आदेश में पूर्व और मौजूदा सांसदों और विधायकों के खिलाफ उन लंबित आपराधिक मामलों का निपटारा दो महीने के दरम्यान करने को कह चुका है। तब जस्टिस एनवी रमना की अध्यक्षता वाली पीठ ने दो टूक कहा था कि इस मामले में सुनवाई रोजाना होनी चाहिए। गौरतलब है कि वर्तमान और पूर्व विधायक एवं सांसदों के खिलाफ लंबित आपराधिक मामलों की संख्या 4442 है। मौजूदा विधायकों एवं सांसदों में से 2556 आरोपी हैं। इनमें से 200 से ज्यादा मामले सांसदों व विधायकों के खिलाफ भ्रष्टाचार निरोधक कानून, धनशोधन रोकथाम कानून और पोक्सो कानून के तहत हैं। इसी तरह एक दर्जन से ज्यादा सांसदों और विधायाकों जिनमें पूर्व व वर्तमान दोनों हैं के खिलाफ आयकर कानून, कंपनी कानून, एनडीपीएस कानून, आबकारी कानून तथा शस्त्र कानून के तहत मामले दर्ज हैं। राज्यवार आंकड़ों पर नजर डालें तो उत्तर प्रदेश में 1217 मामले लंबित हैं जिनमें से 446 मामलों में वर्तमान विधायक व सांसद आरोपी हैं। वर्तमान विधायक व सांसदों में से 35 और पूर्व विधायकों एवं सांसदों में से 81 पर जघन्य अपराधों का आरोप है। इसी तरह महाराष्ट्र में 330, उड़ीसा में 331, आंध्रप्रदेश में 106, केरल में 333, तेलंगाना में 118, छत्तीसगढ़ में 21, मणिपुर में 15 मामले लंबित हैं। इसी तरह दिल्ली में सत्र अदालत (25) और मजिस्ट्रियल स्तर (62) में से प्रत्येक में दो विशेष न्यायालयों के समक्ष 87 मामले लंबित हैं। इन मामलों में 118 विधायक आरोपी हैं। इनमें 87 वर्तमान विधायक व सांसद तथा 31 पूर्व विधायक व सांसद हैं। देश के अन्य राज्यों में भी कमोवेश यहीं स्थिति है। बिडंबना यह है कि सर्वोच्च अदालत की कड़ी हिदायत के बाद भी देश में दागी जनप्रतिनिधियों की संख्या घटने के बजाए हर चुनाव में बढ़ रही है। वर्ष 2014 में दागी सांसदों की संख्या 34 फीसद थी जो कि 2019 में बढ़कर 46 फीसद हो गयी। एडीआर की रिपोर्ट के मुताबिक 542 सांसदों में से 233 यानी 43 फीसद सांसद दागी छवि के हैं। इन सांसदों के खिलाफ आपराधिक मुकदमें लंबित हैं। हलफनामों के हिसाब से 159 यानी 29 फीसद सांसदों के खिलाफ हत्या, बलात्कार और अपहरण जैसे संगीन मुकदमें लंबित हैं। तथ्य यह भी कि ये दागी जनप्रतिनिधि सभी दलों से चुनकर आए हैं। आंकड़ों के मुताबिक सबसे अधिक दागी सांसद बिहार और बंगाल से चुनकर आए हैं। याद होगा गत वर्ष पहले सर्वोच्च अदालत ने दागी माननीयों पर लगाम कसने के उद्देश्य से प्रधानमंत्री एवं राज्य के मुख्यमंत्रियों को ताकीद किया था कि आपराधिक पृष्ठभूमि वाले दागी लोगों को मंत्री पद न दिया जाए क्योंकि इससे लोकतंत्र को क्षति पहुंचती है। तब सर्वोच्च अदालत ने दो टूक कहा था कि भ्रष्टाचार देश का दुश्मन है और संविधान की संरक्षक की हैसियत से प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों से अपेक्षा की जाती है कि वे आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लोगों को मंत्री नहीं चुनेंगे। लेकिन विडंबना है कि अदालत के इस नसीहत का कोई असर नहीं दिखा। इसका प्रमुख कारण यह है कि सर्वोच्च अदालत ने दागी सांसदों और विधायकों को मंत्री पद के अयोग्य मानने में हस्तक्षेप के बजाए इसकी नैतिक जिम्मेदारी प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों के विवेक पर छोड़ दिया। उसने व्यवस्थापिका और कार्यपालिका में हस्तक्षेप करना उचित नहीं समझा। वैसे उचित भी यहीं है कि व्यवस्थापिका में न्यायपालिका का अनावश्यक दखल न हो। अगर ऐसा होगा तो फिर व्यवस्था बाधित होगी और लोकतंत्र को नुकसान पहुंचेगा। लेकिन इसका तात्पर्य यह भी नहीं कि कार्यपालिका दागी जनप्रतिनिधियों को लेकर अपनी आंख बंद किए रहे और न्यायपालिका तमाशा देखती रहे। याद होगा गत वर्ष पहले जब सर्वोच्च अदालत ने जनप्रतिनिधित्व कानून में संशोधन के जरिए दोषी सांसदों व विधायकों की सदस्यता समाप्त करने और जेल से चुनाव लड़ने पर रोक लगायी तो राजनीतिक दलों ने किस तरह वितंडा खड़ा किया। अकसर राजनीतिक दलों द्वारा सार्वजनिक मंचों से मुनादी पीटा जाता है कि राजनीति का अपराधीकरण लोकतंत्र के लिए घातक है। वे इसके खिलाफ कड़ा कानून बनाने और चुनाव में दागियों को टिकट न देने की भी हामी भरते हैं। लेकिन जब उम्मीदवार घोषित करने का मौका आता है तो दागी ही उनकी पहली पसंद बनते हैं। गौरतलब है कि सर्वोच्च अदालत राजनीति में आपराधिकरण को रोकने के लिए पहले ही आदेश दे चुका है कि उम्मीदवार कम से कम तीन बार अखबार और टीवी चैनल में प्रचार कर अपनी अपराधिक पृष्ठभूमि को सामने लाए। न्यायालय के आदेश के बाद चुनाव आयोग ने इस बारे में एक अधिसूचना भी जारी की। लेकिन राजनीति में अपराधिकरण नहीं रुका। देखा गया कि उम्मीदवार किसी भी छोटे-छोटे अखबार में ब्यौरा देकर खानापूर्ति करने में सफल रहे और यह जनता के संज्ञान में नहीं आया। यही नहीं वे टीवी चैनलों में समय तय न होने के कारण देर रात इस बारे में प्रचार किए और उसे जनता देख नहीं पायी। नतीजा दागियों का असली चेहरा जनता के सामने नहीं आया। उसका नतीजा यह हुआ कि भारतीय जनमानस में दागियों के साख को तनिक भ्ज्ञी बट्टा नहीं लगा। मजेदार बात यह भी कि राजनीतिक दलों ने भी इसे संज्ञान नहीं लिया और चुनावी समय में दागी उम्मीदवारों पर ही भरोसा जताया। दरअसल राजनीतिक दलों को विश्वास हो गया है कि जो जितना बड़ा दागी है उसके चुनाव जीतने की उतनी ही बड़ी गारंटी है। गौर करें तो पिछले कुछ दशक में इस राजनीतिक मनोवृत्ति को बढ़ावा मिला है। लेकिन विचार करें तो इस स्थिति के लिए सिर्फ राजनीतिक दलों और उनके नियंताओं को ही जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। देश की जनता भी बराबर की कसूरवार है। जब देश की जनता ही साफ-सुथरे प्रतिनिधियों को चुनने के बजाए जाति-पांति और मजहब के आधार पर बाहुबलियों और दागियों को चुनेगी तो स्वाभाविक रुप से राजनीतिक दल उन्हें टिकट देंगे ही। नागरिक और मतदाता होने के नाते जनता की भी जिम्मेदारी है कि वह ईमानदार, चरित्रवान, विवेकशील और कर्मठ उम्मीदवार को अपना जनप्रतिनिधि चुने। यह तर्क सही नहीं कि कोई दल साफ-सुथरे लोगों को उम्मीदवार नहीं बनाता है इसलिए दागियों को चुनना उनकी मजबूरी है। यह एक खतरनाक और शुतुर्गमुर्गी सोच है। देश की जनता को समझना होगा कि किसी भी राजनीतिक व्यवस्था में नेताओं के आचरण का बदलते रहना स्वाभावगत प्रक्रिया है। लेकिन उन पर निगरानी रखना और यह देखना कि बदलाव के दौरान नेतृत्व के आवश्यक और स्वाभाविक गुणों की क्षति न होने पाए यह जनता की जिम्मेदारी है। लोकतंत्र में जनता ही संप्रभु होती है। अगर सर्वोच्च अदालत राजनीति में आपराधियों के बढ़ते प्रवेश पर लगाम कसने को तैयार है तो अब जनता की भी जिम्मेदारी है कि वह आपराधिक छवि वाले सियासतदानों से दूरी बढ़ाएं।
÷लेखक राजनीतिक व सामाजिक विश्लेषक हैं÷