लेखक~अरविंद जयतिलक
(चमोली की विभीषिका याद दिलाती है वर्ष 2013 की भयानक त्रासदी)
♂÷उत्तराखंड के चमोली जिले के नीति घाटी स्थित रैणी क्षेत्र में ग्लेशियर टूटने से मची तबाही में व्यापक स्तर पर जनधन का नुकसान रेखांकित करने के लिए पर्याप्त है कि हम पर्यावरण की सुरक्षा को लेकर तनिक भी चिंतित नहीं हैं। इस हादसे में तकरीबन 2 सैकड़ा से अधिक लोग लापता हुए हैं और अनेक लोगों की जान गई।एनटीपीसी का तपोवन प्रोजेक्ट और ऋषि गंगा हाइडल प्रोजेक्ट पूरी तरह से तबाह हो गया है।यह हृदय विदारक घटना वर्ष 2013 की केदारनाथ त्रासदी की याद दिलाती है,जब चैराबाड़ी ग्लेशियर के टूटने से मंदाकिनी नदी ने विकराल रूप धारण कर लिया था, जिसमें हजारों लोगों की जान गई।अगर मानव समाज पर्यावरण के प्रति संवेदनशील हो तो शायद प्रकृति की ओर से भी ऐसी प्रतिक्रियात्मक विभीषिका देखने को नहीं मिलेगी ,लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण है कि हिमालयी राज्यों में बार-बार ग्लेशियरों टूटने और बर्फीले तूफान से जन धन की हानि हो रही है और उसके बचाव के लिए उपाय नहीं किए जा रहे हैं।
उत्तराखंड राज्य की ही बात करें तो यहां की सरकारों ने ग्लेशियरों पर बनी समिति की सिफारिशों पर अब तक अमल नहीं किया है। नतीजा हर वर्ष ग्लेशियर टूटकर मानव के लिए मौत का सबब बन रहे हैं।उल्लेखनीय है कि उत्तराखंड सरकार द्वारा ग्लेशियरों को लेकर गठित विशेषज्ञ समिति ने 7 दिसंबर 2006 को कई तात्तकालीक और दीर्घकालिक सिफारिशें की गई लेकिन उस पर कभी अमल नहीं हुआ।इस सिफारिशों में प्रदेश सरकार के आपदा प्रबंधन एवं पुनर्वास विभाग को सुझाव दिया गया था कि ग्लेशियरों से पैदा होने वाले खतरों से बचाव के उपाय तलाशा जाए।इस सिफारिश में उन आबाद इलाकों को चिन्हित करने को कहा गया जो ग्लेशियरों से पैदा होने वाले खतरों से प्रभावित हो सकते हैं। इसके साथ ग्लेशियरों के पीछे खिसकने के हाइड्रोलॉजिकल और क्लाइमेटोलॉजिकल आंकड़े भी जमा किए जाने की सिफारिश की गई।ऐसा इसलिए कि इन आकड़ो के आधार पर ही आने वाली बाढ़ और ग्लेशियरों से पानी के बहाव की मॉनिटरिंग की जानी थी। यही नहीं इस सिफारिश में यह भी कहा गया कि प्रदेश में स्थापित होने वाले हर हाइड्रो प्रोजेक्ट के लिए नदियों के उद्गम क्षेत्र में मौसम केंद्र स्थापित किया जाए तथा भागीरथी घाटी के केदार गंगा और केदार बामक के आसपास ग्लेशियर,झीलों की मॉनिटरिंग की जाए।गौर करें तो इस तात्कालिक उपाय के अलावा कुछ दीर्घकालिक उपाय भी सुझाए गए।मसलन ग्लेशियरो एवं ग्लेशियल झीलों के बड़े परिमाण के मानचित्रो के साथ की इन्वेंटरी बनाई जाए।मॉनिटरिंग सिस्टम को मजबूत करने के लिए ईडब्ल्यूएस नेटवर्क के जरिए पर्यावरण एवं बर्फ़, ग्लेशियल झीलों उनके बनने और संभावित खतरे की लगातार मानिटरिंग ह साथ ही बर्फ़ के गलने और उस पर अवसाद तथा मलबे के भार का आंकलन हो, लेकिन इस दिशा में कारगर पहल नहीं हुआ है,नतीजा सामने है।ग्लेशियरों के लगातार टूटने,पिघलने से दो चार होना पड़ रहा है, दूसरी ओर सर्दियों के मौसम में बर्फीले तूफान का संकट भी बरकरार है।भारत का जम्मू-कश्मीर,हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड समेत उत्तर पूर्व के कई राज्य हिमालय की गोद में बसे हुए हैं,यहां के लोगों की बर्फ़ीले तूफ़ान की चपेट में आने की संभावना बनी रहती है। यही नहीं भूस्खलन और बादल फटने की घटनाएं भी सर्वाधिक रूप से इन्हीं राज्यों में होते हैं।इन घटनाओं में अब तक हजारों लोगों की जान जा चुकी है।पर्यावरण विदों का कहना है कि ग्लेशियरों के टूटने, बादल के फटने और बर्फीले तूफान के आने के प्रमुख वजहें जलवायु परिवर्तन, भारी हिमपात या फिर उसे ऊँचे शोर की वजह से होता है। वैज्ञानिकों का दावा है कि इन घटनाओं के लिए वनों की अंधाधुंध कटाई और ग्रीन हाउस गैस का उत्सर्जन भी जिम्मेदार है। सर्वाधिक चिंता की बात यह है कि क्षेत्रों में मानकों को ध्यान में रखें बगैर सैकड़ों बांधो का निर्माण हो रहा है।इन बांधों ने ग्लेशियरों की जड़ें हिला दी हैं। गोमुख से निकलने के बाद गंगा का सबसे बड़ा कैदखाना टिहरी जलाशय बन चुका है,इस जलाशय से कई राज्यों को पानी और बिजली की आपूर्ति होती है।यह भारत की सबसे बड़ी पनबिजली परियोजनाओं में से एक है।ऐसा प्रतीत होता है कि इसकी कीमत गंगा को विलुप्त हो कर चुकाना पड़ेगा।पर्यावरण विदों का कहना है कि गंगा पर इस बांध के बनाए जाने से जल प्रवाह में कमी आई है, जिससे गंगा में बहाए जा रहे कचरा, सीवर का पानी और घातक रसायनों का बहाव समुचित रूप से नहीं हो रहा है। पर्यावरण विदों का यह भी तर्क है कि गंगा पर हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट लगाने से पर्यावर्णीय असंतुलन पैदा हो रहा है।
एक अन्य शोध के मुताबिक गंगा पर प्रस्तावित सभी बांध अस्तित्व में आए तो गंगा का 39 फीसद हिस्सा झील बन जाएगा जिसका सबसे अधिक प्रतिकूल असर हिमालयी ग्लेशियरों पर पड़ेगा। दूसरी और ग्लोबल वार्मिंग के कारण एशियाई ग्लेशियरों के सिकुड़ने का खतरा बढ़ गया है। वैज्ञानिकों का कहना है कि अगर पृथ्वी के तापमान में मात्र 3.6 डिग्री सेल्सियस तक वृद्धि होती है तो आर्कटिक के साथ-साथ अंटार्कटिका के विशाल हिमखंड पिघल जाएंगे और समुद्र के जलस्तर में 10 इन्च से लेकर 5 फुट तक वृद्धि हो जाएगी इसका परिणाम यह होगा किसमुद्रतटीय नगर डूब जाएंगे।भारत की बात करें तो मुंबई, कोलकाता, चेन्नई, पणजी ,विशाखापट्टनम,कोचीन और, त्रिवेंद्रम नगर समुद्र में डूब जाएंगे।निश्चित रूप से मनुष्य के विकास के लिए प्राकृतिक संसाधनों का दोहन आवश्यक है लेकिन उसकी सीमा निर्धारित होनी चाहिए,किंतु ऐसा नहीं हो रहा है। जिस तरह बिजली उत्पादन के लिए नदियों के सतत प्रवाह को रोककर बांध बनाया जा रहा है उससे खतरनाक पारिस्थितिकीय संकट उत्पन्न हो गया है।जल का दोहन श्रोत सालाना रिचार्ज से कई गुना बढ़ गया है,पेयजल और कृषि जल का संकट गहराने लगा है।अगर ग्लेशियरों को बचाने की मुहिम तेज नहीं हुई तो सदी के अंत तक एशियाई ग्लेशियर अपने कुल भाग का एक-तिहाई खत्म हो जाएंगे।वैज्ञानिकों का दावा है कि ग्लोबल वार्मिंग की वजह से आने वाले एक दो वर्षों में आर्कटिक समुद्र की बर्फ़ पूरी तरह समाप्त हो जाएगी। इसका आधार वैज्ञानिकों द्वारा ली गई सेटेलाइट तस्वीरें हैं।वैज्ञानिकों के मुताबिक आर्कटिक समुद्र के केवल 11.1 मिलियन स्क्वेयर किलोमीटर क्षेत्र में ही बर्फ बची है जो कि पिछले 30 साल के औसत 12.7 मिलियन इन स्क्वायर किलोमीटर से भी कम है।उनका दावा है कि तेजी से बर्फ पिघलने से समुद्र में भी गर्म होने लगा है।यह स्वाभाविक है कि जब बर्फ़ की मोटी परत नहीं होगी तो पानी सूर्य की किरणों को ज्यादा मात्रा में सोखेगी।अगर तापमान अपने मौजूदा स्तर पर स्थिर बना रहता है तब भी ग्लेशियर कई दशकों तक अनवरत गति से पिघलते रहेंगे।एक शोध के मुताबिक आर्कटिक क्षेत्र में आर्कटिक महासागर, कनाडा का कुछ हिस्सा,ग्रीनलैंड, डेनमार्क का एक क्षेत्र उसका कुछ हिस्सा ,संयुक्त राज्य अमेरिका(अलास्का) आइसलैंड,नार्वे, स्वीडन और फिनलैंड में भी ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। हिमालय क्षेत्र में पिछले 5 दशकों में माउंट एवरेस्ट के ग्लेशियर 2 से 5 किलोमीटर सिकुड़ गए हैं और 76 फीसद ग्लेशियर चिंताजनक ढंग से सिकुड़ रहे हैं।वैज्ञानिकों ने उद्घाटिक किया है कि कश्मीर और नेपाल के बीच गंगोत्री ग्लेशियर भी तेजी से सिकुड़ रहा है। पर्यावरण विदों का कहना है कि इस प्राकृतिक आपदा को टालना तो कठिन है लेकिन इससे होने वाले नुकसान को कम किया जा सकता है।मसलन हिमालयी क्षेत्र में अंधाधुंध वनों की कटाई पर रोक लगे, अनावश्यक बांधों का निर्माण ना हो,हाइड्रो पावर परियोजनाओं की क्षमता का अध्ययन हो। दूसरी ओर स्कीइंग रिजॉर्ट जैसी जगहों पर छोटे विस्फोट के जरिए ग्लेशियरों को टूटने से रोका जाए।इस प्रक्रिया से ग्लेशियरों के एक तरफ खिसकने या टूटने की संभावना कम हो जाती है।बचाव का जो बेहतर तरीका है वजह वह यह है कि मानव जाति खरीद के प्रकृति के साथ तादात्म्य स्थापित करें अन्यथा ग्लेशियरों के टूटने जैसी अनगिनत प्राकृतिक आपदा के संकट को टालना कठिन होगा।
÷लेखक राजनीतिक समीक्षक व विदेशी मामलों के ज्ञाता हैं÷