लेखक~अरविंद जयतिलक
♂÷ऐसे समय में जब केंद्र शासित प्रदेश पुड्डुचेरी समेत पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव सिर पर है,कांग्रेस के असंतुष्ट जी- 23 नेताओं ने सोनिया-राहुल के खिलाफ बिगुल फूंक कांग्रेस को बंटाधार के मुहाने पर खड़ा कर दिया है। यह वही जी-23 असंतुष्ट नेता हैं जिन्होंने पिछले साल अगस्त महीने में सोनिया गांधी को पत्र लिखकर सक्रिय नेतृत्व और व्यापक संगठनात्मक बदलाव की मांग की थी।तब असंतुष्ट जनों और समर्थकों के बीच जमकर तकरार हुआ था,इस संकट से निजात पाने के लिए कांग्रेस कार्य समिति की 7 घंटे की हंगामेदार बैठक हुई। लेकिन नतीजा नहीं निकला,अंततः इस बात पर सहमत बनी कि नए अध्यक्ष के चुनाव तक सोनिया गांधी ही पद पर बनी रहेंगी।
कांग्रेसका तत्कालीन संकट तो चुनाव तक टल गया लेकिन बगावत की चिंगारी बुझी नहीं। वही चिंगारी अब जी-23 का का शक्ल अख्तियार कर कांग्रेस का रक्तचाप बढ़ा दी है।यानी अगर कांग्रेस के मौजूदा नेतृत्व और संगठन में व्यापक स्तर पर बदलाव नहीं हुआ तो कांग्रेसका बंटाधार होना तय है। जिस तरह जी-23 के असंतुष्ट नेताओं ने देशव्यापी “सेव द आइडिया ऑफ द इंडिया” कैंपेन के जरिए जम्मू और कश्मीर में आयोजन कर सोनिया-राहुल के खिलाफ मोर्चा खोला है उससे साफ है कि कांग्रेस के असंतुष्ट नेता आर पार की लड़ाई के मूड में है।इन नेताओं ने दो टूक कहा भी है कि वह किसी खिलाफ नही हैं बल्कि वें कांग्रेस को मजबूत बनाने की दिशा के लिए काम कर रहे हैं। जी-23 असंतुष्ट नेताओं की मंशा अब पूरे देश में ऐसा आयोजन कर कांग्रेसमें वंशवाद के खिलाफ आवाज बुलंद कर वंशवाद के खिलाफ आवाज़ बुलन्द कर आंतरिक लोकतंत्र को खाद-माटी मुहैया कराना है।यानी कह सकते हैं कि इन असंतुष्ट नेताओं का कांग्रेश के मौजूदा नेतृत्व से भरोसा उठ गया है और वह एक नए दमदार नेतृत्व में काम करना चाहते हैं। गौर करें तो इन असंतुष्ट नेताओं में शामिल गुलाम नबी आजाद,कपिल सिब्बल,आनंद शर्मा,राज बब्बर,मिलिंद देवड़ा, पीजे कुरियन,रेणुका चौधरी,भूपेंद्र सिंह हुड्डा,मनीष तिवारी और विवेक तंखा जैसे कई महत्वपूर्ण चेहरे हैं,जिनकी बदौलत कांग्रेस की हैसियत है।दरअसल जी-23 के असंतुष्ट नेताओं को आभास हो गया कि मौजूदा नेतृत्व में सोनिया-राहुल के भरोसे सत्ता में आना तो दूर कांग्रेश को खत्म होने से बचाना भी मुश्किल है। उनका निष्कर्ष है कि अगर उन्हें सत्ता तक पहुंचना है तो एकमात्र उपाय यही है कि दमदार नेतृत्व की तलाश करें।उन्हें यह भी पता है कि यह तभी संभव होगा जब पार्टी वंशवाद के खोल से बाहर निकलेगी,क्या ऐसा हो पाएगा? बहरहाल पार्टी के समर्पित नेताओं और रणनीतिकारों को अच्छी तरह भान है कि जब से राहुल गांधी ने पार्टी की बागडोर संभाली है कांग्रेस रसातल में धँसती जा रही है।2014 के आम चुनाव में करारी शिकस्त के बाद से ही कांग्रेस को पराजय का मुंह देखना पड़ रहा है।पार्टी में जान फूंकने के लिए 2015 में राहुल गांधी को आगे किया गया लेकिन देखा गया कि राहुल गांधी जितना अधिक सक्रिय हुए पार्टी को उतना ही अधिक नुकसान पहुंचा है। 2019 के आम चुनाव में करारी शिकस्त मिलने के बाद राहुल गांधी ने अध्यक्ष पद से त्यागपत्र देते हुए कहा था कि पार्टी का अगला अध्यक्ष गांधी परिवार से बाहर का होगा।लोगों को लगा कि शायद राहुल गांधी सच बोल रहे हैं और पार्टी को नई दिशा देना चाहते हैं। लेकिन ऐसा हुआ नहीं और ढाई महीने तक खूब माथापच्ची होती रही कि किसे कांग्रेसी की कमान सौंपी जाए।कभी मुकुल वासनिक का नाम आगे बढ़ा तो कभी मल्लिकार्जुन खड़गे का कभी सुशील कुमार शिंदे की बात चली तो कभी ज्योतिरादित्य सिंधिया तो कभी सचिन पायलट का नाम आगे आया। मजेदार बात यह रहा कि काँग्रेस अध्यक्ष के चयन के लिए बाकायदा लोकतांत्रिक रास्ता अख्तियार करते हुए पाँच समूहों का गठन किया गया।इनमें से दो अलग-अलग समूह में राहुल गांधी और सोनिया गांधी का भी नाम शामिल था, हालांकि अंतिम समय में दोनों ने खुद को अलग कर लिया और तर्क दिया गया कि नए अध्यक्ष के चयन में किसी भी हस्तक्षेप से बचना चाहते हैं।
इस कवायद से लगा कि शायद कांग्रेस कार्यसमिति नए अध्यक्ष के चयन में पूरी तरह से ईमानदारी बरत रही है।लेकिन अंततः यह कवायद ढाँक के तीन पांत साबित हुआ। पूरे भारत से कांग्रेस के बीच से एक भी ऐसा कार्यकर्ता,नेता नहीं मिला जो, कांग्रेस अध्यक्ष पद की कमान संभाल सके।लिहाजा काँग्रेस कार्यसमिति सोनिया गांधी के हाथ अध्यक्ष का कमान सौंप, परिवार का मुकुट परिवार के सिर रख,पार्टी को परिवार भक्ति के लिए मजबूर कर दिया।बेहतर होता कि गांधी-नेहरू परिवार राहुल गांधी द्वारा इस्तीफा दिए जाने के बाद तत्क्षण किसी मजबूत कांग्रेसी कार्यकर्ता को अध्यक्ष पद की कमान सौंप देता। इस्तीफा देने से पद भले चला जाता लेकिन कद जरूर बढ़ जाता।लेकिन इतनी सी छोटी सी बात गांधी परिवार के समझ में नहीं आई, उस दौरान कार्यसमिति की बैठक में एक मजेदार घटना घटी, जब राहुल गांधी के इस्तीफे पर विमर्श शुरू हुआ तो प्रियंका गांधी ने सख्त ऐतराज जताते हुए कहा था कि “भाई तुम इस्तीफा मत दो,पार्टी की हार के जिम्मेदार नेता कमरे में बैठे हुए है”यानी आप समझ सकते हैं कि गांधी नेहरू परिवार खुद को हार के लिए कभी भी जिम्मेदार नहीं माना है, हां जीत का श्रेय जरूर लेता है।इस प्रवृत्ति ने कांग्रेसी नेताओं और कार्यकर्ताओं का मनोबल तोड़ा है,ऐसा नहीं है कि कांग्रेसमें मजबूत और जनाधार वाले नेताओं की कमी रही है।उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम सभी राज्यों में कांग्रेस के लोकप्रिय जनाधार वाले नेता मौजूद रहे हैं ,लेकिन शीर्ष नेतृत्व ने उन्हें हाशिए पर धकेलने से गुरेज नहीं किया।इससे कांग्रेसका दो स्तर पर नुकसान हुआ एक तो उसे लगातार चुनाव में हार का सामना करना पड़ा और दूसरा ऐसा कोई नेता नहीं उभर पाए जिसका गांधी परिवार से इतर पहचान बन पाए।शायद गांधी परिवार को ये मंजूर भी नहीं था यानी गांधी परिवार को हार तो कबूल है लेकिन पार्टी में कोई बड़ा नेता उभरे उसे यह मंजूर नहीं है।दरअसल गाँधी परिवार के मन में भय सताता रहता है कि अगर कांग्रेस के बीच से कोई बड़ा नेता बना तो पार्टी पर उसकी पकड़ मजबूत होगी और गांधी परिवार कमजोर होगा।संभवत इसी सोच ने कांग्रेस का बेड़ा गर्क कर रखा है।
गौर करें तो 1991 के उदारीकरण के बाद भाजपा समेत अन्य क्षेत्रीय दल अपने नेतृत्व के दम पर बड़ी लक़ीर खींचने में सफल रहे।जनता के बीच अपनी लोकप्रियता का लोहा मनवाने में कामयाब रहे, वहीं कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व अपने उभरते मजबूत क्षत्रपों को जनता के बीच लोकप्रिय होने देने के बजाय उनके पैरों में बेड़ियां डालता रहा है। यह सही है कि कांग्रेस, समाजवादी व वामपंथी वर्ष 2004 से 2014 तक सत्ता का भोग लगाने में सफल रहे,लेकिन सच यह भी है कि वह दमदार नेतृत्व व सांगठनिक स्तर पर कमजोर होती गई।यही कारण रहा कि कांग्रेस में ऊंची उड़ान की ख्वाहिश रखने वाले आसमान न मिलने के कारण पार्टी से अलग होते गए।शरद पवार और ममता बनर्जी जैसे क्षेत्रीय क्षत्रप कांग्रेस से अलग हुए और अपनी पहचान बनाने में सफल रहे। जगमोहन रेड्डी और हेमंत विश्व शर्मा जैसे उभरते नेताओं के साथ काँग्रेस शीर्ष कमान ने कैसा सलूक किया यह किसी से छिपा नहीं है। कांग्रेस में ऐसे सैकड़ों बड़े नेता और समर्पित कार्यकर्ता रहे जिन्हें पार्टी शीर्ष हाइकमान ने कौड़ियों के मूल्य बराबर भी नहीं समझा और वह पार्टी से निकल गए।दरअसल गांधी परिवार कांग्रेस अध्यक्ष पद का हाथ से जाने देना मतलब सल्तनत लूट जाने के बराबर समझता है।यही कारण है कि वह उभरते बड़े नेताओं को धूल धूसरित कर अपनी मनमर्जी करता रहा है,इसका खामियाजा पूरी पार्टी को उठाना पड़ रहा है। देखना दिलचस्प होगा कि कांग्रेस हाईकमान जी-23 के असंतुष्ट नेताओं की मांग को स्वीकारता है या बंटाधार के मुहाने पर खड़ा होकर पार्टी के बिखरने का इंतजार करता है।
÷लेखक राजनीतिक विषयों के ज्ञाता हैं÷