लेखक÷डॉ.के. विक्रम राव

♂÷उन भाग्यशालियों में हूँ मैं जिन्होंने महात्मा गाँधी के चरण स्पर्श किये।ये बात 1946 के शुरुआत की है कक्षा प्रथम में पढ़ता था। जेल से रिहा होकर पिताजी (स्व. श्री के. रामा राव, संस्थापक–संपादक नेशनल हेराल्ड) परिवार को वर्धा ले गये। जालिम गवर्नर मारिस हैलेट ने हेराल्ड पर जुर्माना ठोक कर उसे बंद ही करवा दिया था।चेयरमैन जवाहरलाल नेहरू भी पुनः प्रकाशन में नाकाम रहे सेवाग्राम में हमारा कुटुम्ब बजाज वाड़ी में रहा।
गाँधीवादी जमनालाल बजाज का क्षेत्र था एक दिन प्रातः टहलते हुए बापू के पास पिताजी हम सबको ले गये हमने पैर छुए,बापू ने अपनी दन्तहीन मुस्कान से आशीर्वाद दिया।मौन का दिन था, अतः बोले नहीं,फिर युवा होने पर जयप्रकाश नारायण तथा राममनोहर लोहिया से बापू को मैंने और जाना मगर आज भी एक वेदना सालती रहती है कि इस अस्सी वर्षीय निहत्थे संत की हत्या करने वाला नाथू राम गोडसे जरूर कसाई रहा होगा निर्मम, निर्दयी, जघन्य हत्यारा,उसके पाप से वज्र भी पिघला होगा गोडसे के साथ फांसी पर चढ़ा नारायण आप्टे तो एक कदम आगे था। उसने 29 जनवरी 1948 की रात दिल्ली के वेश्यालय में वितायी थी, ऐसा आदर्श था ! नाथूराम ने अपना जीवन बीमा बड़ी राशि के लिए कराया था लाभार्थी थी उसके अनुज गोपाल की पत्नी। गोडसे ने लन्दन-स्थित प्रिवी काउंसिल में सजा माफ़ी की अपील भी की थी, किन्तु वह ख़ारिज हो गई थी।
जंगे आजादी के दौर में पत्रकारिता-विषयक बापू के आदर्श और मानदण्ड अत्यधिक कठोर थे हिदायत थी कि झूठा मत छापो, वर्ना पत्रिका बंद कर दो।उसी दौर में हमारी बम्बई यूनियन ऑफ़ जर्नलिस्ट्स ने बापू को अपना अध्यक्ष बनाने की पेशकश की थी| बापू की शर्त थी कि सत्य ही प्रकाशित करोगे वे पत्रकार फिर लौटकर नहीं आये। उस वक्त भारत में चार ही संगठन थे : दिल्ली यूनियन ऑफ़ जर्नलिस्ट्स, मद्रास यूनियन ऑफ़ जर्नलिस्ट्स, बम्बई यूनियन ऑफ़ जर्नलिस्ट्स तथा कलकत्ता में इंडियन जर्नलिस्ट्स एसोसिएशन। इन सब ने मिलकर जंतर-मंतर पर 28 अक्टूबर 1950 को इंडियन फेडरेशन ऑफ़ वोर्किंग जर्नलिस्ट्स (IFWJ) की स्थापना की थी।
प्रतिरोध के गाँधीवादी तरीके पर इमरजेंसी (1975-77) के दौरान तिहाड़ जेल में हम साथी लोग काफी बहस चलाते थे।प्राणहानि न हो तो विरोध जायज है आखिर 1942 में जेपी और लोहिया भी तो तार काटने, पटरी उखाड़ने, ब्रिटिश संचार व्यवस्था को ध्वस्त करने, भूमिगत पत्रिका छापने तथा समान्तर रेडियो से संघर्ष चलाते थे।
एक अति विशिष्ट अनुभव को साझा कर दूं लखनऊ विश्वविद्यालय के अपने चन्द मित्रों के साथ हमने नाथूराम की प्रेतात्मा से संवाद किया था छः दशक पूर्व का किस्सा है। साईकालोजी के हमारे एक साथी ने एक लेख का उल्लेख किया जिसे ब्रिटेन के महान भौतिक शास्त्री लार्ड जॉन विलियम्स स्ट्रट रेले ने लिखा था।जॉन विलियम्स को 1904 में भौतिकी का नोबेल पुरस्कार मिला था वे बड़े धर्मनिष्ठ थे और पराविज्ञान में निष्णात थे प्लैंशेट पर वे बहुधा अपने दिवंगत पुत्र से वार्ता करते थे।एक बार पुत्र ने बताया कि वह एक अत्यंत ज्वलनशील स्थान पर है मगर भारतीय आत्माएं यहाँ से शीघ्र मुक्ति पा लेती थीं क्योंकि उनके भूलोकवासी रिश्तेदार आटे से गेंदनुमा ग्रास बनाकर कोई रस्म करते थे पिंडदान ही रहा होगा। उत्कंठावश हमने भी प्लैंशेट का प्रयोग किया गाँधी जी को आमंत्रित किया मगर आया नाथूराम उसने कहा, “गाँधी जी बहुत ऊंचे लोक में चले गये,अतः वे नहीं आ सकते मगर मैं आ गया हूँ” हमने पूछा कि, “कहाँ पर हो” नाथूराम का जवाब था, “पूना की एक गली में आवारा कुत्ता हूँ, खुजली से ग्रस्त हूँ।”
इसीलिय नरेंद्र मोदी की तारीफ करनी होगी कि बापू की डेढ़ सौंवी जन्मगांठ बड़े शुभ उद्देश्य से मनवा रहे हैं जबकि गुजरात में इस पूर्व मुख्यमंत्री को राष्ट्रधर्म सिखाने वाले अटल विहारी वाजपयी ने बापू को राष्ट्रपिता कहने से साफ इनकार कर दिया था,अटलजी का तर्क था कि राष्ट्र का पुत्र, पिता नहीं हो सकता है।
÷लेखक IFWJ के नेशनल प्रेसीडेंट व वरिष्ठ पत्रकार व स्तम्भकार हैं÷