~डॉ.के. विक्रम राव
भाजपाईयों का बावलापन ही था। बावेला मचा दिया। बात बस इतनी नन्हीं सी थी कि कांग्रेस की वर्षगांठ (28 दिसम्बर 2020) पर हाल ही में पद—मुक्त हुये अध्यक्ष राहुल गांधी अकस्मात अपने ननिहाल (इटली) चले गये। यूं कई बार पहले भी वे खास अवसरों पर भारत छोड़कर चले जाते रहे। अब भाजपाईयों ने राहुल की अनुपस्थिति को मुहावरे का आकार दे डाला। ननिहाल अर्थात नानी याद आ गई। इसी लाक्षणिक या क्वचित व्यंगार्थ वाले प्रयोग को मरोड़कर पेश कर दिया। उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान (लखनऊ) के ”वृहत” मुहावरा कोश (डा. प्रतिभा अग्रवाल) के पृष्ठ 592 पर ”नानी याद आना” के भावार्थ दिया है कि ” घबरा जाना, परेशान हो जाना”। भाजपाईजन यही अर्धसत्य कह रहे है। राहुल के पिताश्री राजीव गांधी ने करीब तीन दशक पूर्व इंडिया गेट की जनसभा में कहा था: ” विरोधियों को हम उनकी नानी याद दिला देंगे।” हालांकि इन दोनों अवसरों का संदर्भ जुदा है।
आज के प्रसंग में अर्थ तो यही होंगे है कि पार्टी की लोकसभाई चुनावी और सियासी फजीहत से प्रतीक्षारत प्रधानमंत्री राहुल घबरा गये होंगे? उनके त्यागपत्र का आधार यही है। सवाल परिवार को सताता होगा कि आखिर कांग्रेस की अरबों रुपये की चल और अचल संपत्ति का वारिस कौन होगा? कही पीवी नरसिम्हा राव सरीखे पार्टी अध्यक्ष आ गये तो वंशजों की विदाई अंतिम हो जायेगी। शायद इसीलिये पूर्व प्रमुख कांग्रेसी प्रवक्ता और वरिष्ठ पत्रकार संजय झा की राय भी ठुकरा दी गयी कि राहुल को सचिन (क्रिकेट) की भांति संन्यास ले लेना चाहिये। इस सुझाव को अस्वीकार करने का कारण यही रहा होगा कि बहन (प्रियंका) पार्टी महासचिव हैं, मां संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की अध्यक्ष है। किन्तु राहुल किसी भी पद पर नहीं रह जायेंगे। हालांकि सोनिया को भी खतरा आसन्न है क्योंकि उन्हें हटाकर यूपीए (संप्रग) का मुखिया शरदचन्द्र गोवन्दराव पवार को बनाने की जोरदार मुहिम चल रही है।
दो—दो (2014 तथा 2019) संसदीय चुनाव हारने के बाद अब राहुल एक फ्लाप फिल्मी हीरो हो गये हैं। राहुल के पदमुक्त होने का एक शालीन कारण भी है। इतना लब्ध—प्रतिष्ठ राजनायक उच्चतम न्यायालय द्वारा गलतबयानी पर फटकारा भी जा चुका हैं। प्रधानमंत्री को चोर कहा था, जिस संज्ञा से विश्वनाथ प्रताप सिंह ने उनके पिता को बोफोर्स काण्ड पर नवाजा था। मगर अदालत ने स्पष्ट कर दिया कि राफाइल बमवर्षक पर मोदी ने कोई चोरी नहीं की। इस सिलसिले में बहन प्रियंका वाड्रा की पीड़ा मन को खिन्न कर देती है कि : ”मेरा भाई अकेला मोदी से लड़ता रहा।” इस पर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने (25 मई 2019) की पार्टी बैठक में व्यथा सुनाई भी थी कि, ” अशोक गहलोत, कमलनाथ और पी. चिदम्बरम अपने पुत्रों के निर्वाचन तक ही सीमित रहें।” पार्टी भले ही भाड़ में जाये।
अब राहुल का यह बयान कार्यशैली पर ही समग्रता से प्रश्न उठाता है। पार्टी की वार्षिकी पर विवेचन होना चाहिये था कि तिलक, गोखले, बापू और पटेल द्वारा निर्मित कांग्रेस में वकील मोतीलाल नेहरु द्वारा लाहौर अधिवेशन (1929) में महात्मा गांधी को असहाय कर अपने पुत्र जवाहरलाल को पार्टी पर थोपना कितना नैतिक रहा, कितना घातक रहा? मुगलों की सल्तनत की मानिन्द नेहरु राजवंश ही कांग्रेस बन गयी थी। नतीजन बिना ताज के बादशाह की भांति राहुल उपजे। मनमोहन सिंह नामभर के थे। हस्र तय है।
यहां इतिहास में समा जानेवाली कांग्रेस का विश्लेषण जरुरी है। पार्टी ने 136वीं सालगिरह मनाई। मगर यह मूलरुप वाली पार्टी (26 दिसंबर 1985) की नहीं हो सकती।
कांग्रेस का 136वां अधिवेशन जो दिल्ली में गत सप्ताह मना, वह कौन सा? किसका? कब का था ? इतिहासवेत्ता यदि शोध करें, तब भी यह गुत्थी सुलझेगी नहीं। कारण बस यही है कि स्वतंत्रता के बाद इस पार्टी में वैचारिक विकार, संस्थागत उलट-पलट, वैयक्तिक लाग-डाँट, सत्तास्तरीय होड़ा-होड़ी बारम्बार हुई है। इसलिए जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की 136वीं वर्षगाँठ मनाने की बात उठी है, तो जिज्ञासु भारतीय की उत्कण्ठा सहज ही होती है कि कौन-सी वाली कांग्रेस? पिछला विधिसम्मत, सम्यक् चुनाव कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष का सात दशक पूर्व हुआ था, जब राजर्षि पुरुषोत्तमदास टण्डन ने आचार्य जीवतराम भगवानदास कृपलानी को निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा किये गये मतदान में पराजित किया था। तबसे कांग्रेस पार्टी के चुनावों में मतपत्र ही तिरोभूत हो गये। नामांकन बस औपचारिकता है, मनोनयन ही चयन का आकार लेता है। प्रत्याशी निर्विरोध पदारूढ़ हो जाता है। पार्टी का हिसाब भी वैसा ही जैसा गुलाम नबी आजाद ने कहा था: ‘‘ना खाता, न बही, केसरी जो कहें वही सही।’’ तब कोषाध्यक्ष होते थे सीताराम केसरी बक्सरवाले।
जो कुछ लोकतांत्रिक परिपाटियों के अवशेष बचे थे प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी ने पार्टी को 1969 बेंगलूर के सम्मेलन में तोड़कर समाप्त कर डाले। कांग्रेस प्रत्याशी नीलम संजीव रेड्डी को कांग्रेस प्रधानमंत्री ने पराजित कर बागी वीवी गिरी को जितवा दिया।
पिछले कई दशकों में कांग्रेस पार्टी की जो दशा थी, वह किसी लोकतांत्रिक पार्टी जैसी नहीं रही। इन्दिरा गांधी और राजीव गांधी के चौदह वर्षों तक लगातार कांग्रेस अध्यक्ष रहने के बाद जरा सी आंतरिक लोकतांत्रिक मर्यादा आयी थी। तब पी.वी. नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री और कांग्रेस अध्यक्ष बने थे, मगर पार्टी की लोकसभा में पराजय (1996) के बाद सीताराम केसरी जबरन अध्यक्ष बन बैठे। कांग्रेस फिर विभाजित हुई, जब सोनिया गांधी के विदेशी मूल के मसले पर वरिष्ठ कांग्रेसी शरद पवार तथा पी.ए. संगमा ने पार्टी तोड़कर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी बना ली।
राष्ट्र जानना चाहेगा कि यह वर्षगाँठ किसकी थी ?, विधिवत्, मर्यादित और लोकतांत्रिक तरीके से निर्वाचित अध्यक्ष की पार्टी वाली, अथवा घुसपैठियों, षड्यंत्रकारियों और वंशवादी प्रबन्धकों वाले गुट की?
÷लेखक IFWJ के नेशनल प्रेसिडेंट व स्वतन्त्र पत्रकार/स्तम्भकार हैं÷