सऊदी अरब में हज यात्रा के दौरान सैकड़ों लोगों की मौत पैगम्बर की लीला है या मनुष्य की? या फिर प्रकृति का मानव जाति के लिए संदेश ! सोच नहीं सकते कि मक्का-मदीना में भी इतने लोग मरेंगे और ऊपर से सऊदी अरब बताएगा भी नहीं। उसकी बजाय अलग-अलग देशों के विदेश मंत्रालय हज यात्रा में मरे नागरिकों की संख्या बता रहे हैं! समाचार एजेंसी एएफपी ने एक अरब राजनयिक के हवाले से बताया कि हज यात्रा के दौरान अकेले मिस्र के 658 लोग मारे गए हैं। इंडोनेशिया का कहना है कि उसके 200 से ज्यादा नागरिकों की मौत हुई है, वहीं भारत ने 98 लोगों के मरने की जानकारी दी है। इसके अलावा पाकिस्तान, मलेशिया, जॉर्डन, ईरान, सेनेगल, ट्यूनीशिया, सूडान और इराक से स्वायत्त कुर्दिस्तान क्षेत्र ने भी मौतों की पुष्टि की है, और दुखद सच्चाई यह है कि मौत का कारण अत्यधिक गर्मी है! वह भी ऐसे देश में जो तेल की कमाई से लबालब है और खुद को विकसित कहता है लेकिन गर्मी से खुद को बचाने में सक्षम नहीं है।
लेकिन सवाल यह है कि मौसम के मामले में अब धरती पर मनुष्य कितना सक्षम है? एक समय था (केवल 100-150 वर्ष पूर्व) जब मनुष्य ज्ञान, विज्ञान और आविष्कारों की सहायता से अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए प्रकृति, हवा, पानी, सर्दी, गर्मी, जलवायु आदि को नियंत्रित कर रहा था। रेगिस्तानी अरब देश वातानुकूलित हो गए और एस्किमो के बर्फीले घर भी कड़ाके की ठंड में भी गर्म रहे और इसका परिणाम आज हम जलवायु परिवर्तन के रूप में देख रहे हैं। मौसमी आपदाओं में धराशायी होता हुआ या 45-50-51 डिग्री सेंटीग्रेड के तापमान में लोगों का दम तोड़ते हुए है। मनुष्य असहाय और असमर्थ दिख रहा है। अमेरिका और ब्रिटेन जैसे सिरमौर विकसित देश भी मौसम का बिगड़ना रोक नहीं पा रहे हैं और न संयुक्त राष्ट्र और उसकी एजेंसियां पृथ्वी के 8.1 अरब लोगों को यह समझा पा रही हैं कि अभी तो शुरुआत है और आगे, इसी सदी में ही अपनी बनाई भट्टी में झुलस-झुलस कर बर्बाद होना है। पर लोग हैं कि न अनुभव से समझ रहे हैं और न होनी को संभव मान रहे हैं!
जलवायु परिवर्तन की विभीषिका पर विचारें तो 140 करोड़ लोगों की हमारी भीड़ क्या किसी भी तरह कुछ सोचती, करती हुई है? पूरी पृथ्वी इन दिनों गर्मी से जैसी जलती हुई लाल है वह अकल्पनीय है। साइबेरिया में भी गर्मी। और दुनिया के हर कोने में गर्मी, आग, तूफान, बारिश-बाढ़ या कड़कड़ाती ठंड है। अमेरिका, ब्रिटेन, यूरोप से लेकर ऑस्ट्रेलिया के नीचे और लातिनी अमेरिका के देशों के मौसम में अप्रत्याशित घटनाएं हाे रही हैं वही पश्चिम एशिया, खाड़ी देशों, अफ्रीका में तापमान 45, 48, 50, 51 (जो दिल्ली में भी हुआ) डिग्री सेंटीग्रेड के जिस स्तर पर टिका है इसका अनुभव भविष्य के असहनीय मौसम का संकेत है।
क्या हम जानते हैं कि वैज्ञानिकों ने सिंधु-गंगा दोआब क्षेत्र, यानी पाकिस्तान से बंगाल तक के क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन के सबसे बुरे प्रभावों की भविष्यवाणी की है! लेकिन न केवल आम लोग इससे अनभिज्ञ हैं, बल्कि सरकार, देश का नेतृत्व और राजनीतिक दल भी इससे चिंतित नहीं हैं। हाल के आम चुनावों में किसी भी पार्टी के घोषणापत्र में जलवायु परिवर्तन की चुनौती का कोई उल्लेख नहीं था। इसके विपरीत, ब्रिटेन में आम चुनावों में जलवायु परिवर्तन और मौसम दूसरे या तीसरे नंबर के सबसे महत्वपूर्ण मुद्दे हैं। जहां एक ओर भारत कोयले और पेट्रोल के अत्यधिक उपयोग के कारण भविष्य की भट्टी में तब्दील होता जा रहा है, वहीं ब्रिटेन के सुप्रीम कोर्ट ने पिछले सप्ताह वहां नई जीवाश्म ईंधन परियोजनाओं पर स्थायी रूप से प्रतिबंध लगा दिया।
इसका अर्थ यह नहीं कि ब्रिटेन, यूरोपीय देश, अमेरिका और विकसित देश पृथ्वी को बीमार बनाने के दोषी नहीं हैं। इन्हीं के विकास, अनुसंधानों और आविष्कारों से पिछले दो सौ वर्षों में पृथ्वी खोखली हुई और आकाश की परतें फटीं हैं। परिणामस्वरूप धरती गर्मी से झुलसने लगी है। लेकिन अब भारत, चीन और बाकी दुनिया भी विकास के उसी रास्ते पर चल रही हैं और जलवायु में उबाल ला रही है। मूल बात यह है कि पिछली सदी के विकास ने मनुष्य को बिगाड़ दिया है और इक्कीसवीं सदी में जलवायु इसका बदला ले रही है, इसलिए मनुष्य या तो सुधर जाए या फिर लावारिस मौत के लिए तैयार रहे। यदि हम स्वस्थ और जीवित रहना चाहते हैं तो प्रदूषण और जहरीली गैसों का उत्सर्जन हर हाल में रोकना होगा।
(बीबीसी हिंदी व नया इंडिया के इनपुट से)