लेखक -विजय सिंह”ठाकुराय”
प्राइम पर मौजूद The Million Miles Away “होजे हर्नाडिन्स” नामक एक मैक्सिकन फार्मवर्कर के 30 साल के संघर्ष के बाद “अस्ट्रॉनॉट” बनने की रियल लाइफ स्टोरी पर बनी फिल्म है।
इस फ़िल्म में एक दृश्य में अपनी असफलताओं से निराश होजे अपने पिता से कहता है कि – बार-बार मेरे सामने यह क्यों बताते हो कि मेरे सपने को पूरा करने के लिए आपने घर खरीदने के अपने सपने की कुर्बानी दे दी। आखिर कब तक मैं ये बात सुनता रहूंगा। थक चुका हूँ अब।
उसका पिता उसको घूरता है और कहता है – तो खुद को और मजबूत बनाओ (इस बात को दोबारा सुनने के लिए)
एक शानदार प्रेरणादायक कहानी होने के बावजूद इस फ़िल्म की सबसे अच्छी बात है कि इसमें कोई Larger Than Life एलिमेंट नहीं है। सब कुछ, कहानी, किस्से, संघर्ष और लोग स्वाभाविक हैं, वैसे ही – जैसे हमारे आसपास पाए जाते हैं।
फ़िल्म में होजे नाम का माइग्रेंट फार्मवर्कर फैमिली से ताल्लुक रखने वाला नायक है, जिसने बचपन में मून लैंडिंग को टीवी पर देख खुद को अंतरिक्षयात्री बनने का स्वप्न थमाया था। इस नायक में बिल्कुल भी “नायकत्व” वाला तत्व नहीं है। उसे देख उसके किसी दफ्तर के बाबू होने की फीलिंग आती है – जो हकलाता है, शर्माता है, सकुचाता है, फ्रस्टेट होता है। इंटरव्यू देने जाता है तो In Pursuits of Happiness के क्रिस गार्डनर की तरह वह बेधड़क बेबाक तरीके से अपनी बात नहीं रख पाता। वो नर्वस होता है, उसकी जुबान कांपती है, गला सूख जाता है – वैसे ही जैसे किसी भी सामान्य व्यक्ति का वैसी परिस्थिति में हाल होना चाहिए था।
होजे के इर्दगिर्द उससे उम्मीद लगाए बैठे उसके परिजन हैं। उसकी बीवी है, जो उसके अस्ट्रॉनॉट बनने की ख्वाहिश सुनकर जोर से ठहाका लगा कर हंसती है। फिर वही बीवी उसके छुप-छुप कर नासा में एप्लीकेशन भेजने से नाराज है। फिर वही बीवी उसे अपनी कमजोरियां ढूंढ के बेहतर होने के लिए प्रेरित करती है, उसकी अनुपस्थिति में काम करती है, बच्चे संभालती है, अपने व्यक्तिगत सपनों की कुर्बानी दी देती है। ताकि उसके पति का सपना पूरा हो पाए।
होजे जब अपने अस्ट्रॉनॉट बनने का सपना पूरा कर अपनी पत्नी के रेस्टॉरेंट पहुंचता है तो सेलिब्रेट करने की बजाय पहले बर्तन धोने का चुनाव करता है क्योंकि बर्तन साफ करने वाला व्यक्ति छुट्टी पर है।
मुझे काफी वक्त लगा जिंदगी में, यह समझने के लिए कि जीवन की सुंदरता असाधारणता की तलाश में नहीं। जिंदगी में सुकून हो तो आंखें सिर्फ ठहराव को ढूंढती हैं। और तब, साधारण ही सुंदर प्रतीत होता है।
मुझे यह फ़िल्म इसलिए भी अच्छी लगी क्योंकि यह असाधारण होने का प्रयत्न ही नहीं करती – इसलिए अपने साधारण कथ्य में भी भव्य प्रतीत होती है।
(लेखक सुप्रसिद्ध ब्लॉगर हैं)