लेखक- विजय सिंह “ठाकुराय”
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जब आप ऐसा कहते हैं तो आपको कम से कम इतना पता होना चाहिए कि स्वतंत्र होते समय यूक्रेन के पास लगभग 2000 नाभिकीय हथियार थे। यूक्रेन ने 30 साल पहले ये हथियार बेहद शराफत से रूस को सौंप दिए थे। और रूस तथा अमेरिका ने लिखित में यूक्रेन की संप्रभुता और सुरक्षा की गारंटी दी थी, जो कि निभाई नहीं गयी।
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जरा सोचिए, अगर यूक्रेन ये हथियार कभी सरेंडर नहीं करता तो पुतिन की औकात थी कि यूक्रेन की सीमा में ऐसे घुस जाता? अमेरिका यूक्रेन को सरेआम धमकाने और बेइज्जत करने की हिम्मत रखता? यूक्रेन चाहता तो इन हथियारों के दम पर पूरे विश्व को बांस करके रखता। गलती सिर्फ इतनी थी कि उसने शराफत दिखाई और भेड़ियों पर भरोसा किया कि वे मेमने की सुरक्षा करेंगे।
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आप अपने अनोखेलाल जी को महामानव सिद्ध करने के लिए जेलेन्स्की को पप्पू सिद्ध करने की लाख कोशिश करें पर वो पप्पू उसके देश के साथ हुए ऐतिहासिक छल को समझता है और जानता है कि जो हुआ सो हुआ, फिलहाल उसके देश का नाटो में शामिल होना ही भविष्य की सुरक्षा की गारंटी है। इसलिए बारंबार नाटो-नाटो जपता है। पप्पू जो ठहरा।
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सवाल तो आज हेकड़ी दिखा रहे अमेरिका से पूछा जाना चाहिए और जो इस जेलेन्स्की नामक जोकर ने भरी सभा में सर्वशक्तिमान राष्ट्र के मुखिया के मुंह पर पूछा भी – तेरी गारंटी जब पहले काम न आई, तब क्या भरोसा?
सवाल तो रूस से भी पूछा जाना चाहिए कि – एक संप्रभु राष्ट्र को क्या करना है, उसे पूरा हक होता है। तू ये बता कि जिस देश ने तुझ पर भरोसा कर के अपना पूरा परमाणु निशस्त्रीकरण कर दिया। आज वही देश तुझसे डर कर नाटो में शामिल होना क्यों चाहता है? आखिर तुझमें ऐसा क्या है, जो तेरा पड़ोसी देश तुझ पर भरोसा ही नहीं कर पा रहा। क्या तेरी एक भरोसेमंद राष्ट्र के तौर पर यह विफलता नहीं?
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नाटो मामले में बुद्धिजीवियों द्वारा यूक्रेन को कोसा जाना कुछ ऐसा ही है, जैसे किसी गुंडे के पड़ोस में रहने वाला व्यक्ति डर कर पुलिस की शरण में चला जाये और आप उसी व्यक्ति पर दोषारोपण कर दें। कमाल यह भी है कि यूक्रेन की बेबसी पर अट्टहास लगा कर उसे रूस की गोद में बैठ जाने की सलाह भारत के वे पढे-लिखे बुद्धिजीवी दे रहे हैं, जिनके खुद के पूर्वजों ने, उनकी माँ-बहनों ने शक्तिशाली आक्रांताओं के सामने झुक कर अपमानजनक जीवन की बजाय गौरवपूर्ण मृत्यु का वरण किया था। आप इस उदाहरण में भारत और यूक्रेन की वस्तुस्थिति का अंतर गिनवा सकते हैं पर दोनों परिपेक्ष्यों में एक प्रश्न समान है कि – क्या कमजोर को आततायी के सामने समर्पण कर देना चाहिए?
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सौ बातों की एक बात है कि रूस को यूक्रेन नामक सामरिक, आर्थिक और सैन्य महत्व रखने वाले मेमने को निगलना था। उसने निगल लिया। कभी नाटो के बहाने से, कभी यूक्रेन के नवनाजियों के चंगुल में आने का फर्जी दावा करके। कभी रूसीभाषियों के दमन का प्रोपेगैंडा फैला कर।
अगर WW2 में नाजी आर्मी की सहायता लेकर सोवियत संघ से यूक्रेन की आजादी के लिए लड़ने वाले बेंडेरा का सम्मान नाजीवाद है तो जर्मनी-जापान से गठजोड़ कर भारत के लिए लड़ने वाले नेता जी सुभाष चन्द्र बोस भी नाजी ही कहलाये जाएंगे। कोई तुक है?
रूसियों का दमन हो रहा है तो उसके लिए रूसियों को अपने खुद के देश में शरण दीजिये, बॉर्डर खोलिए, नागरिकता दीजिये। रूसी दमन का बिना कोई सबूत पेश किए सिर्फ आरोप लगा कर दूसरे देश में नरसंहार करने की वैधता सिर्फ एक प्रचंड मूर्ख ही खोज सकता है।
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मैं आज यह साफ कर दूँ कि मेरी सिर्फ एक ही विचारधारा है कि – किसी भी विवाद में युद्ध कभी विकल्प नहीं होना चाहिए और स्पष्ट तौर पर युद्ध रूस की तरफ से शुरू हुआ है, जो कि बेशक टाला जा सकता था। यह देखना कतई मुश्किल नहीं है कि एक राष्ट्र के तौर पर यूक्रेन की संप्रभुता से निरंतर खिलवाड़ हुआ है, उसके भरोसे को छला गया है, उसके स्वाभिमान को चोट पहुचाई गयी है, उस पर युद्ध थोपा गया है।
फिर भी आपको यूक्रेन के साथ खड़े होने की कोई वजह नजर न आये, तो याद रखिये कि यूक्रेन ही हैं – जहां तमाम मां-बाप अपने बच्चों को सीने से लगा कर धमाकों की गूंज के बीच आतंक के साये में रातें बिताते हैं। सिर्फ यूक्रेन ही है, जहाँ सोते वक्त एक बच्चा यह नहीं जानता कि अगले सुबह उसकी आंखें खुलेंगी अथवा हमेशा के लिए बंद हो चुकी होंगी। मानवधर्म में आस्था रखने वाले हर व्यक्ति का संकल्प होना चाहिए कि संसार के किसी भी हिस्से में मौजूद कोई भी निर्दोष व्यक्ति यह नियति भोगने पर मजबूर न हो।
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स्वार्थ को महान लक्ष्य की चाशनी ओढ़ा कर युद्ध को कितना भी न्यायोचित ठहराया जाए। यह धातव्य हर मनुष्य को हमेशा होना चाहिए कि महान लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु सिर्फ निर्दोष का जीवन ही वो कीमत है, जो कभी चुकाई नहीं जा सकती।
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कभी नहीं तो कभी नहीं।
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(लेखक सुविख्यात ब्लॉगर हैं और यह उनके निजी विचार हैं)