लेखक- आदिला अत्तर
रूस-यूक्रेन युद्ध को दो साल से अधिक हो चुके हैं, लेकिन अब तक शांति की कोई उम्मीद नहीं दिख रही। यूक्रेन पूरी तरह तबाह हो चुका है, लाखों लोग बेघर हो गए हैं, और हजारों सैनिक मारे जा चुके हैं। लेकिन असली सवाल यह है कि इस विनाश का मुख्य दोषी कौन है?
अगर ध्यान से देखा जाए, तो सबसे बड़ी गलती यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोडिमिर ज़ेलेंस्की की है। उन्होंने अपने गलत फैसलों से पूरे देश को बर्बादी के रास्ते पर धकेल दिया। उन्होंने अमेरिका और यूरोप के बहकावे में आकर रूस को उकसाया और NATO में शामिल होने की जिद पकड़ ली। उन्हें लगा कि पश्चिमी देश उनके लिए रूस से लड़ेंगे, लेकिन असल में अमेरिका और यूरोप ने सिर्फ हथियार भेजे, सैनिक नहीं!
यूक्रेन की पहली गलती थी रूस को हल्के में लेना। रूस एक परमाणु शक्ति संपन्न देश है और उसकी सेना दुनिया की सबसे मजबूत सेनाओं में से एक है। लेकिन ज़ेलेंस्की ने पश्चिमी देशों के कहने पर रूस को बार-बार भड़काया। अगर कोई कमजोर आदमी बार-बार किसी पहलवान को ललकारे, तो उसका क्या हश्र होगा? यही हाल यूक्रेन का हुआ।
दूसरी गलती थी NATO में शामिल होने की ज़िद। रूस पहले ही साफ कर चुका था कि वह अपने दरवाजे पर NATO की सेनाएँ बर्दाश्त नहीं करेगा। लेकिन ज़ेलेंस्की ने इस चेतावनी को नजरअंदाज किया और युद्ध को रोकने के बजाय उसे और बढ़ावा दिया। यह वैसा ही था जैसे किसी का पड़ोसी अपने घर के दरवाजे पर कैमरा लगा ले और हर हरकत रिकॉर्ड करे – कोई भी देश इसे बर्दाश्त नहीं करेगा, फिर चाहे वह रूस हो या कोई और।
तीसरी गलती थी अमेरिका और यूरोप पर भरोसा करना। ज़ेलेंस्की ने सोचा कि अमेरिका और यूरोप उनकी पूरी मदद करेंगे, लेकिन सच्चाई यह है कि पश्चिमी देश सिर्फ अपने हथियारों का व्यापार कर रहे हैं। अमेरिका ने यूक्रेन को हथियार तो दिए, लेकिन सैनिक नहीं। अमेरिका और यूरोप बस “लड़ते रहो” की सलाह दे रहे हैं, लेकिन खुद इस जंग में नहीं कूद रहे।
अगर अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप सत्ता में होते, तो यह युद्ध शायद शुरू ही नहीं होता। ट्रंप की “अमेरिका फर्स्ट” नीति थी, जिसमें वे अपने देश को गैरजरूरी युद्धों में नहीं फँसाते थे। उन्होंने NATO देशों को चेतावनी दी थी कि वे अपनी सुरक्षा खुद करें, जिससे अमेरिका को फालतू की लड़ाइयों में उलझने की जरूरत न पड़े। ट्रंप उत्तर कोरिया जैसे खतरनाक देश से भी सीधे बात कर चुके थे, अगर वे रूस से भी बातचीत करते, तो शायद यह जंग टल सकती थी।
ट्रंप की एक और नीति, फेयर ट्रेड (निष्पक्ष व्यापार), इस पूरे मामले को समझने के लिए बहुत जरूरी है। ट्रंप का मानना था कि अमेरिका को किसी भी देश से व्यापार तभी करना चाहिए, जब सौदा दोनों पक्षों के लिए फायदेमंद हो। लेकिन बाइडेन प्रशासन के तहत अमेरिका ने यूक्रेन को भारी मात्रा में आर्थिक और सैन्य सहायता दी, बिना यह सोचे कि बदले में उसे क्या मिलेगा। अमेरिका ने यूरोप के साथ मिलकर रूस पर कई प्रतिबंध लगाए, जिससे पूरी वैश्विक अर्थव्यवस्था प्रभावित हुई। अगर अमेरिका ने निष्पक्ष व्यापार नीति अपनाई होती और रूस के साथ बेहतर संबंध बनाए होते, तो शायद युद्ध को रोका जा सकता था।
रूस ने कई बार कहा था कि उसे अपने दरवाजे पर NATO की मौजूदगी मंजूर नहीं है। इसके अलावा, डोनबास क्षेत्र में रूसी भाषी लोगों पर कई सालों से यूक्रेनी सेना के हमले हो रहे थे। रूस ने कहा कि वह सिर्फ अपने लोगों की रक्षा कर रहा है। अगर यूक्रेन ने पश्चिमी देशों के बहकावे में आने के बजाय रूस से बातचीत की होती, तो यह युद्ध कभी शुरू ही नहीं होता।
यूरोप का एक और पाखंड यह था कि उसने अमेरिका से सुरक्षा की गारंटी ले रखी थी और खुद वेलफेयर स्टेट बन गया था। जर्मनी, फ्रांस, ब्रिटेन, बेल्जियम जैसे देशों में फ्री एजुकेशन, फ्री हेल्थकेयर, सस्ता पब्लिक ट्रांसपोर्ट और बेरोजगारी भत्ता जैसी सुविधाएँ दी जाती थीं। लेकिन इनका खर्च कौन उठा रहा था? अमेरिका! अमेरिका ने NATO के जरिए यूरोप को सुरक्षा की गारंटी दी थी, जिससे उन्हें अपने रक्षा बजट पर खर्च करने की जरूरत नहीं थी।
यूरोप ने मुस्लिम शरणार्थियों के लिए अपने दरवाजे खोल दिए, जिससे उनकी अर्थव्यवस्था पर और दबाव बढ़ गया। अमेरिका चाहता था कि यूरोप अपनी रक्षा के लिए खुद पैसे खर्च करे, लेकिन यूरोप के देश अपनी जनता को मुफ्त सुविधाएँ देने में लगे रहे और सुरक्षा की जिम्मेदारी अमेरिका पर डाल दी।
अब इसका असर दिखने लगा है – यूरोप के कई देशों ने अपनी फ्री एजुकेशन और हेल्थकेयर नीतियाँ खत्म करनी शुरू कर दी हैं। फिनलैंड जैसे देशों में, जहां बेरोजगारी भत्ते के तहत सरकार अंतिम सैलरी का 90% तक देती थी, वह भी अब हटा लिया गया है। फिनलैंड में एक और नियम था कि अगर किसी का होटल, दुकान या बिजनेस **नुकसान में चल रहा हो, तो सरकार उसकी भरपाई करती थी, लेकिन अब यह भी खत्म कर दिया गया है।
यूक्रेन को इस युद्ध में सबसे बड़ा नुकसान हुआ, और इसके लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार ज़ेलेंस्की ही हैं। उन्होंने अपने देश को अमेरिका और यूरोप के हाथों की कठपुतली बना दिया, जबकि पश्चिमी देश सिर्फ अपने हथियारों की बिक्री और रूस को घेरने की राजनीति कर रहे थे। रूस ने जो किया, वह उसकी सुरक्षा रणनीति का हिस्सा था, और अगर यूक्रेन ने कूटनीतिक रास्ता अपनाया होता, तो शायद यह युद्ध कभी शुरू ही नहीं होता।
डोनाल्ड ट्रंप पहले ही कह चुके थे कि अमेरिका को गैरजरूरी युद्धों में नहीं पड़ना चाहिए और हर देश को अपनी सुरक्षा की जिम्मेदारी खुद लेनी चाहिए। अब वही हो रहा है। अमेरिका धीरे-धीरे यूक्रेन को अपने हाल पर छोड़ रहा है, यूरोप अपनी वेलफेयर नीतियों को खत्म कर रहा है, और रूस अपनी स्थिति मजबूत कर चुका है।
आज की सच्चाई यह है कि यूक्रेन हार की कगार पर है, अमेरिका और यूरोप का समर्थन कमजोर हो चुका है, और रूस पहले से ज्यादा ताकतवर बनकर उभरा है। ज़ेलेंस्की को यह समझना चाहिए था कि युद्ध से किसी देश की जीत नहीं होती, बल्कि सिर्फ विनाश होता है – और यूक्रेन के लिए यह विनाश अब पूरी तरह वास्तविकता बन चुका है।
(लेखक वैदेशिक मामलों की जानकार हैं और यह उनके निजी विचार हैं)