लेखक – ओमप्रकाश तिवारी
भारत में वर्गभेद और जातिभेद कब से शुरू हुआ, इसका सही-सही इतिहास पता नहीं चलता। लेकिन बीसवीं सदी के तीसरे एवं चौथे दशक में हुई जातिभेद के विरोध से संबंधित दो महत्त्वपूर्ण घटनाओं ने इस ओर लोगों का ध्यान खींचा। पहली घटना थी बाबासाहेब आंबेडकर की नासिक के कालाराम मंदिर के बाहर कई वर्ष तक चले धरना-प्रदर्शन का नेतृत्व एवं लगभग इसी काल में शुरू हुई दूसरी घटना थी महाराष्ट्र के ही रत्नागिरी जिले में स्वतंत्रता सेनानी विनायक दामोदर सावरकर द्वारा ‘पतित पावन मंदिर’ की स्थापना।
नासिक का कालाराम मंदिर गोदावरी नदी के किनारे उसी पंचवटी में बना है, जहां भगवान राम अपने अनुज लक्ष्मण एवं भार्या सीता के साथ रहे थे। वहीं लक्ष्मण ने रावण की बहन शूर्पणखा की नाक काटी, जिसके उपरांत वहीं से सीता का हरण भी हुआ। कहा जाता है कि शूर्पणखा की नासिका काटे जाने की घटना के कारण ही इस नगर का नाम नासिक पड़ा। नासिक के पंचवटी क्षेत्र में छोटे-बड़े कई मंदिर हैं। इसी क्षेत्र में 12 वर्ष में एक बार महाकुंभ भी लगता है। इन सब कारणों से नासिक एक धार्मिक नगरी के रूप में जाना जाता है। इसी धार्मिक नगरी में गोदावरी के किनारे स्लेटी पत्थरों से बना एक भव्य मंदिर है। इसमें भगवान राम, माता सीता एवं लक्ष्मण जी की काले पत्थर से बनी सुंदर प्रतिमाएं हैं। करीब दो फुट ऊंची इन मनोहारी प्रतिमाओं के दर्शन के लिए समाज के अन्य वर्गों के लोग तो जा सकते थे, लेकिन दलित समाज का प्रवेश मंदिर में वर्जित था। इस मंदिर में दलितों को भी प्रवेश दिलाने के लिए डा.भीमराव आंबेडकर ने दो मार्च, 1930 को इस मंदिर के बाहर एक आंदोलन शुरू किया। इस आंदोलन को ‘कालाराम मंदिर सत्याग्रह’ के नाम से जाना गया। बाबासाहब दलितों की बड़ी संख्या के साथ मंदिर में प्रवेश करने पहुंचे। लेकिन मंदिर के पुजारियों और प्रबंधकों द्वारा उन्हें मंदिर के बाहर ही रोक दिया गया, तो मंदिर में प्रवेश का अधिकार पाने के लिए बाबासाहेब आंबेडकर ने आंदोलन करने का निर्णय किया। उनके साथ बड़ी संख्या में दलित समाज के लोग आए थे। उनमें ज्यादा संख्या आंबेडकर के महार समाज की थी। उसके अलावा मातंग एवं चमार समाज के दलित भी उनके साथ थे। आंदोलन को सुचारु रूप से चलाने के लिए बाबासाहेब ने आंदोलनकारियों की चार टुकड़ियां बनाईं। मंदिर के चारों द्वारों पर चारों टुकड़ियां सत्याग्रह करने बैठ गईं। उनपर स्थानीय लोगों द्वारा हमले भी किए गए। लेकिन आंदोलनकारी शांतिपूर्ण आंदोलन करते रहे। क्योंकि उन्हें बाबासाहेब ने अहिंसक एवं शांतिपूर्ण आंदोलन करने का ही निर्देश दिया था। दो मार्च 1930 से शुरू हुआ यह आंदोलन पांच वर्ष, 11 माह एवं सात दिन तक (यानी लगभग छह वर्ष) चलता रहा। इसके बाद भी हिंदू धर्म के तत्कालीन ठेकेदारों का मन बदलता ना देखकर बाबासाहेब आंबेडकर ने बौद्ध पंथ अपनाने की घोषणा कर दी थी।
लगभग यही काल था, जब महाराष्ट्र के ही दूसरे जिले रत्नागिरी में भी ऐसा ही एक इतिहास गढ़ा जा रहा था। स्वातंत्र्यवीर विनायक दामोदर सावरकर अंडमान की सेल्युलर जेल से छूटकर आने के बाद रत्नागिरी जिले में अपना जीवन गुजार रहे थे। उनके रत्नागिरी से बाहर जाने एवं किसी प्रकार की राजनीतिक गतिविधि में भाग लेने पर प्रतिबंध था। लेकिन सामाजिक गतिविधियों में तो वह हिस्सा ले ही सकते थे। वह सामाजिक छुआछूत के खिलाफ थे। इसलिए रत्नागिरी में रहते हुए वह एक सामाजिक क्रांति करने में जुट गए। चूंकि नासिक जैसी ही स्थिति रत्नागिरी एवं कमोबेश पूरे महाराष्ट्र में थी, और हिंदू समाज में किसी भी प्रकार का भेदभाव सावरकर पसंद नहीं करते थे। इसलिए उन्होंने रत्नागिरी में एक ऐसा मंदिर बनाने की ठानी, जिसमें सभी वर्गों के लोग बिना रोकटोक गर्भगृह में जाकर भगवान के दर्शन-पूजन कर सकें। इस कार्य के लिए उन्होंने एक व्यापारी श्रीमान भगोजीशेठ कीर की मदद ली। कीर ने रत्नागिरी में भगवान लक्ष्मी नारायण का एक मंदिर बनवाया। जिस दौर में नासिक में कालाराम मंदिर के बाहर दलित समाज का सत्याग्रह चल रहा था, उसी दौरान 1931 में रत्नागिरी में यह मंदिर बनकर तैयार हो गया। यह मंदिर हिंदू समुदाय के सभी सदस्यों के लिए खुला था। कोई भी इस मंदिर के गर्भगृह तक जाकर भगवान के दर्शन एवं पूजन कर सकता था। इसे दर्शाने के लिए सावरकर ने मंदिर का नामकरण ‘पतित पावन मंदिर’ किया। इस मंदिर की पहचान सामाजिक समानता के राष्ट्रीय तीर्थस्थल के रूप में होती है।
लगभग यही दौर था, जब 1934 में वर्धा में आयोजित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शिविर में महात्मा गांधी का जाना हुआ। उन्हें वहां जमनालाल बजाज लेकर गए थे। महात्मा गांधी वहां शिविर का अनुशासन देखकर प्रसन्न हुए। जितने प्रसन्न हुए, उससे ज्यादा आश्चर्यचकित हुए वहां की जातिविहीन व्यवस्था को देखकर । वहां अनेक स्वयंसेवक एक साथ पंक्ति में बैठकर भोजन कर रहे थे, और किसी को किसी की जाति का पता नहीं था। इस बात का जिक्र स्वयं महात्मा गांधी ने देश को स्वतंत्रता मिलने के ठीक एक माह बाद 16 सितंबर, 1947 को दिल्ली में संघ के ही स्वयंसेवकों को संबोधित करते हुए किया। उन्होंने कहा कि बरसों पहले मैं वर्धा में संघ के एक शिविर में गया था। उस समय इसके संस्थापक डा.हेडगेवार जीवित थे। स्व.श्री जमनालाल बजाज मुझे शिविर में ले गए थे। उस समय वहां मैं उन लोगों का कड़ा अनुशासन, सादगी और ‘छुआछूत की पूर्ण समाप्ति’ देखकर अत्यंत प्रभावित हुआ था। संघ एक सुसंगठित और अनुशासित संस्था है। यानी बाबासाहेब आंबेडकर हिंदू समाज की जिस बीमारी से क्षुब्ध रहा करते थे, उसका इलाज स्वातंत्र्यवीर सावरकर और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने उसी दौर में ढूंढना शुरू कर दिया था। संघ के विभिन्न कार्यक्रमों के जरिए ये प्रयास निरंतर चलता रहा। 14 अप्रैल, 1983 को संघ द्वारा ‘समरसता मंच’ की स्थापना भी ऐसे ही प्रयासों में से एक था। संयोग से उस दिन अंग्रेजी तिथि से डा. आंबेडकर का एवं संस्कृत पंचांग से डा.हेडगेवार की जन्मतिथि एक ही दिन पड़ी थी।
संघ की इसी सोच का परिणाम था कि नौ नवंबर, 1989 को जब अयोध्या में श्रीरामजन्मभूमि मंदिर का शिलान्यास हुआ, तो इस आंदोलन की बागडोर संभाल रहे संघ के आनुषंगिक संगठन विश्व हिंदू परिषद (विहिप) ने मंदिर की पहली शिला दलित समाज के प्रतिनिधि कामेश्वर चौपाल के हाथ से रखवाई। यही नहीं, इस घटना के करीब 34 साल बाद जब अयोध्या में प्रभु राम का भव्य मंदिर बनकर तैयार हो गया, तो उसमें स्थापित होनेवाले बालक राम की प्राण प्रतिष्ठा में भी जिन-जिन को यजमान बनने का अवसर मिला, उनमें देश के अनेक हिस्सों एवं अनेक समुदायों के लोग शामिल थे। मंदिर के प्रबंधन के लिए बने श्रीरामजन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट में भी कामेश्वर चौपाल एक प्रमुख सदस्य हैं। अब तो 22 जनवरी, 2024 को मंदिर में प्रभु बालक राम की प्राण प्रतिष्ठा हो जाने के बाद सभी भक्तों के लिए राम मंदिर के द्वार भी खुल गए हैं, और रोज डेढ़ से दो लाख भक्त अपने भगवान के दर्शन करने भी आ रहे हैं। यह भारतवर्ष की सामाजिक प्रगति का ही परिचायक है कि 1930 में जहां एक मंदिर में एक विशेष समाज को प्रवेश दिलाने के लिए बाबासाहेब आंबेडकर को आंदोलन करना पड़ा था, और सावरकर को पतित पावन मंदिर का निर्माण करवाना पड़ा था, वहीं आज अयोध्या में नवनिर्मित मंदिर के द्वार सभी भक्तों के लिए खुले हुए हैं। वहां सभी का स्वागत हो रहा है। यह सामाजिक प्रगति आज के भारत में गांव हो या शहर, हर ओर दिखाई देती है। भारत में आई इस चेतना के पीछे शिक्षा के अलावा संचार माध्यमों के जरिए जन-जन तक पहुंची जागरूकता भी एक बड़ा कारण हो सकती है।
लेकिन जब हम राजनीति की ओर देखते हैं, तो आज भी भारत का हिंदू समाज जाति के बंधनों से बाहर आने को तैयार नहीं दिखता। हाल के लोकसभा चुनाव में जातिवाद का यह चित्र एक बार फिर दिखाई दिया है। लोकतंत्र में लोकहित के लिए काम करनेवाली सरकारें चुनना ही एकमात्र उद्देश्य होना चाहिए। लेकिन इन चुनावों में ‘जाति की राजनीति’ लोकहित पर हावी होती दिखाई दी। खासतौर से उत्तर प्रदेश में। निश्चित रूप से यह संघ एवं उससे जुड़ी संस्थाओं के भी सोचने का विषय है। कुछ वर्ष पहले विश्व हिंदू परिषद के मुंबई में हुए स्वर्ण जयंती समारोह में बोलते हुए विहिप के नेता एवं रामजन्मभूमि आंदोलन के प्रमुख स्तंभ अशोक सिंहल ने हिंदू समाज को जोड़ने के लिए हर गांव में एक मंदिर, एक कुआं और एक श्मशान का आह्वान किया था। सामाजिक समरसता स्थापित करने के लिए आज संघ इस सूत्र वाक्य पर गंभीरता से काम कर भी रहा है। लेकिन यह बात यदि सिर्फ सामाजिक समरसता तक ही सीमित रही, तो उद्देश्य अधूरा ही रह जाएगा। क्योंकि संघ अपने सामाजिक समरसता कार्यक्रमों के जरिए हिंदू समाज की सामाजिक एकता को जितना सुदृढ़ करेगा, प्रत्येक पांच वर्ष में होनेवाले चुनाव इस एकता में उतनी ही दरारें डाल देंगे। इसलिए संघ सहित अन्य हिंदू संगठनों को इस दिशा में ऐसा प्रयास करना होगा कि सामाजिक एकता में राजनीतिक कारण भी भेद न डाल सकें।
(साभार दैनिक जागरण)
(लेखक दैनिक जागरण महाराष्ट्र ब्यूरों हैं)