लेखक -अरविंद जयतिलक
गत दिवस पहले क्वॉड (क्वाड्रिलेटरल सेक्युरिटी डायलॉग) देशों द्वारा चीन को स्पष्ट रुप से चेताया जाना कि हिंद-प्रशांत क्षेत्र में उसकी दबंगई और दादागिरी को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा, कुलमिलाकर दुनिया के लिए शुभ संकेत है। क्वॉड के सदस्य देशों में शामिल जापान, अमेरिका, भारत और आस्टेªलिया के विदेश मंत्रियों ने तोक्यों में संपन्न बैठक में ठान लिया है कि आजाद व खुले हिंद-प्रशांत क्षेत्र में मिलकर काम करेंगे और किसी भी चुनौती का मिलकर मुकाबला करेंगे। गौर करें तो सदस्य देशों का इशारा उस चीन की तरफ है जो लगातार इस क्षेत्र में अपने प्रभाव का विस्तार कर क्षेत्रीय संप्रभुता को चुनौती परोस रहा है।
अच्छी बात यह भी रही कि सदस्य देशों ने न सिर्फ हिंद-प्रशांत क्षेत्र में बल्कि दक्षिण चीन सागर में भी चीन के कुत्सित दांव-पेंच को लेकर चिंता जताई है। दरअसल चीन इस इलाके में उन ज्यादतर हिस्सों पर अपना दावा पेश करता है जिसे लेकर फिलीपींस, मलेशिया, ब्रुनेई और वियतनाम का कहना है कि यह इलाका उनका है। चीन यहां नकली द्वीप बनाकर अपने सैनिकों को तैनात कर रहा है। इसी खतरे को भांपते हुए क्वॉड के सदस्य देशों ने रणनीति के तहत इस क्षेत्र में संतुलन बनाए रखने की नीति में तेजी लायी है। देखें तो क्वाड के सदस्य देशों में कोई ऐसा नहीं है जिसका चीन से तनातनी न हो।
बहरहाल हिंद-प्रशांत क्षेत्र में क्वॉड देशों की नई गोलबंदी से चीन उत्तेजित है और नाराजगी जाहिर करते हुए बार-बार कह रहा है कि क्वॉड देश इस क्षेत्र में तनाव बढ़ा रहे हैं। जबकि सच्चाई यह है कि इस क्षेत्र की संप्रभुता को मिल रही चुनौती के लिए एकमात्र चीन ही जिम्मेदार है। उसके द्वारा निर्मित इस परिस्थिति से निपटने के लिए ही क्वॉड जैसे संगठन की जरुरत महसूस की गई। याद होगा 2007 में भारतीय संसद को संबोधित करते हुए जापान के तत्कालीन प्रधानमंत्री शिंजो अबे ने स्पष्ट रुप से कहा था कि हिंद-प्रशांत क्षेत्र में उभरती सामरिक चुनौतियों से निपटने के लिए हम सभी को तैयार रहना होगा। उनकी दूरदर्शी सोच और परिकल्पना ही आगे चलकर क्वॉड के गठन का आधार बनी। गौर करें तो क्वॉड के गठनकाल से ही चीन की बेचैनी बढ़ी हुई है।
उसे लग रहा है कि क्वाड में शामिल देश उसके खिलाफ साजिश रच रहे हैं। वह क्वाड को एक उभरता हुआ ‘एशियाई नाटो’ के तौर पर देख रहा है। वह जानता है कि क्वाड की मजबूती से इस क्षेत्र में उसकी मनमानी पर नियंत्रण लगेगा और समुद्र के जरिए दुनिया पर राज करने की उसकी मनोकामना पूरी नहीं होगी। यह सच्चाई भी है कि क्वॉड का लक्ष्य प्रशांत महासागर, अमेरिका और आस्टेªलिया में विस्तृत नेटवर्क के जरिए जापान और भारत के साथ मिलकर इस क्षेत्र में एक ऐसा वातावरण निर्मित करना है जिससे एक स्वतंत्र, खुली और समावेशी विकास का मार्ग प्रशस्त हो।
नेविगेशन की स्वतंत्रता हो तथा ओवर-फ्लाइट एवं आसियान के निर्माण को लेकर काम किया जाए। समझना होगा कि क्वाड के सदस्य देश अपने पहले वर्चुअल सम्मेलन के दौरान ही चीन को अपने हद में रहने की सलाह दे चुके हैं। तब अमेरिकी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जैक सुलिवन ने कहा था कि आस्टेªलिया के साथ चीन की आक्रामकता, जापान के सेनकाकू द्वीपों के आसपास उत्पीड़न और भारत के साथ सीमा पर तनातनी को लेकर अमेरिका किसी भ्रम में नहीं है। वह हिंद-प्रशांत क्षेत्र में हर परिस्थितियों से निपटने को तैयार है। याद होगा गत वर्ष इसी क्षेत्र में अमेरिका समेत 13 देशों ने ‘हिंद-प्रशांत आर्थिक समूह’ (आईपीईएफ) व्यापारिक समझौते को आकार देकर चीन की बढ़ती दादागीरी और धौंसबाजी पर निर्णायक लगाम लगाने की कवायद की थी। इस आर्थिक ढांचे से जुड़ने वाले देशों में अमेरिका के अलावा आस्टेªलिया, ब्रुनेई, भारत, इंडोनेशिया, जापान, दक्षिण कोरिया, मलेशिया, न्यूजीलैंड, फिलिपीन, सिंगापुर, थाइलैंड और वियतनाम शामिल हैं। किसी से छिपा नहीं है कि दुनिया भर के प्राकृतिक संसाधनों पर गिद्ध दृष्टि लगा बैठे चीन इस क्षेत्र में चोरी-छिपे मछलियों का बड़े पैमाने पर शिकार कर रहा है। इस क्षेत्र में नब्बे फीसदी से अधिक मछलियों के शिकार के लिए एकमात्र बीजिंग ही जिम्मेदार है।
उसके जहाज जबरन विशेष आर्थिक जोन की सीमा में प्रवेश कर जाते हैं और पर्यावरण के साथ-साथ बड़े पैमाने पर आर्थिक नुकसान को अंजाम देते हैं। चीन की इस हरकत से सभी देश परेशान है। दूसरी ओर वह इस इलाके में सुरक्षा बेड़ा खड़ा कर अन्य देशों की संप्रभुता और सुरक्षा को चुनौती दे रहा है। ऐसे में उस पर नकेल कसना बेहद जरुरी हो गया है। अच्छी बात है कि इस क्षेत्र के सदस्य देशों के बीच सहमति बनती जा रही है। सभी देश सैटेलाइट सिस्टम का इस्तेमाल कर चीन की हरकतों पर लगाम कसने को तैयार हैं। द्वीपीय देशों का भारत के साथ आने से चीन की बेचैनी और छटपटाहट और बढ़ेगी। लेकिन जिस तरह से हिंद-प्रशांत क्षेत्र के देश चीन के खिलाफ मोर्चा बना रहे हैं उससे स्पष्ट है कि इस क्षेत्र में अब चीन की दादागीरी नहीं चलने वाली है। चीन के खिलाफ यह पहल इसलिए भी आवश्यक है कि हिंद-प्रशांत क्षेत्र वैश्विक अर्थव्यवस्था की मुख्य धुरी है।
मौजूदा समय में यह क्षेत्र भू-राजनीतिक व सामरिक रुप से वैश्विक शक्तियों के मध्य रण का क्षेत्र बना हुआ है। इस क्षेत्र की जनसंख्या विश्व की जनसंख्या के तकरीबन एक तिहाई से ज्यादा है। विश्व के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का लगभग 60 फीसदी और विश्व व्यापार का 75 फीसदी कारोबार इसी क्षेत्र से होता है। देखें तो इस क्षेत्र में अवस्थित बंदरगाह विश्व के व्यस्ततम बंदरगाहों में शुमार हैं। यह क्षेत्र इसलिए भी सर्वाधिक महत्वपूर्ण है कि यहां उपभोक्ताओं को लाभ पहुंचाने वाले क्षेत्रीय व्यापार और निवेश की अपार संभावनाएं हैं। किसी से छिपा नहीं है कि यह क्षेत्र उर्जा व्यापार के लिहाज से भी इस क्षेत्र के देशों के लिए अति संवेदनशील है। ऐसे में इस क्षेत्र को आर्थिक व सामरिक दृष्टि से सुरक्षित रखने के लिए ही क्वाड के अलावा ‘हिंद-प्रशांत आर्थिक समूह’ और ‘भारत-प्रशांत द्वीप सहयोग’ जैसे नए-नए गठजोड़ आकार ले रहे हैं।
तथ्य यह भी कि हिंद-प्रशांत क्षेत्र को ‘मुक्त एवं स्वतंत्र’ क्षेत्र बनाने के लिए अमेरिका भारत-जापान संबंधों के महत्व को सार्वजनिक रुप से स्वीकार चुका है तथा साथ ही अमेरिका के लिए हिंद-प्रशांत क्षेत्र की नीति सर्वोच्च प्राथमिकता में है। दो राय नहीं कि विगत दशकों में अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के मंच पर चीन की विशिष्ट पहचान बनी है और वह आर्थिक सुधारों के जरिए विश्व की एक बड़ी आर्थिक महाशक्ति बन चुका है। लेकिन अब वह जिस आक्रामक तरीके से हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अपनी दखलदांजी बढ़ा रहा है उससे अमेरिका, भारत, आस्टेªलिया, जापान के अलावा इस क्षेत्र से जुड़े अन्य देशों का चिंतित होना लाजिमी है। पाश्चात्य अर्थशास्त्रियों और रक्षा विषेशज्ञों की मानें तो चीन भूमंडलीकृत अर्थव्यवस्था के समानान्तर ध्रुव के एक नए धुमकेतु के रुप में उभरकर अपने पड़ोसियों को परेशान करने की योजना पर काम कर रहा है। उसके निशाने पर मुख्य रुप से भारत, फ्रांस, आस्टेªलिया और जापान है। चीन इन देशों की मौजूदा गोलबंदी को समझ रहा है इसीलिए वह इन देशों की भू-संप्रभुता व सामुद्रिक सीमा का लगातार अतिक्रमण कर रहा है।
दरअसल उसकी मंशा हिंद-प्रशांत क्षेत्र में भारत, आस्टेªलिया, फ्रांस और जापान की भूमिका को सीमित कर अपने प्रभाव का विस्तार करना है। उसे भय है कि अगर इस क्षेत्र में इन देशों की निकटता बढ़ी तो परिस्थितियां उसके प्रतिकूल हो सकती है। इसलिए और भी कि जापान ‘एशिया-प्रशांत आर्थिक सहयोग’ (एपीईसी) संगठन में भारत की सदस्यता का लगातार वकालत कर रहा है। चीन अच्छी तरह जानता है कि अगर भारत इस संगठन का सदस्य बनता है तो उसकी मनमानी और विस्तारवादी नीति पर लगाम लग सकता है। चीन इस तथ्य से भी सुपरिचित है कि भारत एशिया-प्रशांत क्षेत्र में अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए आस्टेªलिया और न्यूजीलैंड से भी द्विपक्षीय सहयोग के साथ-साथ बहुपक्षीय मंचों जैसे आसियान, हिंद महासागर रिम, विश्व व्यापार संगठन इत्यादि मंचों पर सुचारु रुप से सहयोग विकसित कर रहा है। वैसे भी गौर करें तो हिंद-प्रशांत क्षेत्र में आसियान को भारतीय नीति का केंद्रीय बिंदू माना जाता है। ऐसे में भारत की भूमिका का विस्तार होना लाजिमी है।
(लेखक राजनीतिक व सामाजिक विश्लेषक हैं)