लेखक: राघवेन्द्र द्विवेदी
अंतरराष्ट्रीय युद्ध विशेषज्ञ -मीडिया सामग्री भी कर रही है इस बात की तस्दीक
इंदिरा गाँधी और नरेंद्र मोदी में तुलना ठीक नहीं
थेथरई का कोई जवाब नहीं है,यदि आप नेरेटिव गढ़ने की मुहिम पर निकले हैं तो कोई आपका रास्ता नहीं बदल सकता। सत्ता की खातिर सरकार का इस हद तक विरोध कर सकते हैं कि देश विरोधी एजेंडे पर चलते दिखाई देने लगते हैं। सैकड़ों सालों से इस देश में यह खेल चल रहा है इससे देश को सैकड़ों साल की गुलामी भी झेलनी पड़ी मगर नामुरादों ने सबक नहीं लिया।
“ऑपरेशन सिंदूर ” को शानदार और सफलतापूर्वक अंजाम देने वाली सरकार को इस बार इस बिना पर सवालों के घेरे में खड़ा किया जा रहा है कि उसने पाक के युद्धविराम प्रस्ताव पर क्यों सहमति देकर सैनिकों को रोक दिया। इंदिरा गाँधी की वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से तुलना कर भी अलग हवा बनाने की कोशिश की जा रही है। इस सिलसिले में उल्टे- सीधे बयान भी दिए जा रहे हैं, पाकिस्तान जिनका इस्तेमाल विभिन्न मंचों पर भारत के खिलाफ सबूतों के तौर पर कर रहा है।
यों तो भारत ने पाकिस्तान के 11 एयरपोर्ट उड़ा दिए। लेकिन सरगोधा एयरवेज, नूरखान एयरवेज और किराना हिल्स पर अटैक ने पाकिस्तान के तोते उड़ा दिए। किराना हिल्स में पाकिस्तान के परमाणु हथियार हैं। जबकि नूरखान एयरवेज पर परमाणु कमांड सेंटर है। इस लिहाज से सरगोधा एयरवेज भी महत्वपूर्ण है।
भारत ने किराना हिल्स पर परमाणु सेंटर के बीच में हमला न कर किनारे पर अटैक किया। और पाकिस्तान को यह संदेश दिया कि परमाणु हमले के नाम पर ब्लेकमैल किया तो तुम्हारा वह हश्र करेंगे कि तुम्हारी सात पुश्तें याद रखेंगी।
भारत का हर निशाना सही था। भारतीय वायुसेना किराना हिल्स के परमाणु सेंटर के बीचों- बीच भी अटैक कर सकती थी। लेकिन फिर वहाँ हालत जापान के नागा- शाकी जैसे हो जाते। भारत का उद्देश्य पाकिस्तान के आतंकियों और उनकी संरक्षक फौज को सजा देना था न कि वहाँ के इन्नोसेंट नागरिकों को। और हाँ, सरकार की अपनी मर्यादा होती है। सीधे तौर कभी पता नहीं चलेगा कि दरअसल पाकिस्तान में उस रात हुआ क्या था, सो आम खाएं और गुठलियों को पड़े रहने दें।
परमाणु सेंटर पूरी तरह तबाह होने के बाद देश पर सैकड़ों प्रतिबंध लगाए जाते। भारत अलग- थलग पड़ जाता। उसका विश्व अर्थव्यवस्था की शक्ति बनने का प्लान भी धरा रह जाता, सो हमने गिड़गिड़ाते पाकिस्तान के युद्धविराम प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। अमेरिका, चीन, सउदीअरब की भूमिका महज इतनी है कि इन्होंने पाकिस्तान का युद्धविराम का प्रस्ताव स्वीकार लेने का अनुरोध भर किया। जहाँ तक डोनाल्ड ट्रंप के हालिया बयानों की बात है तो, उनके बड़बोलेपन और श्रेय लेने के स्वभाव को सभी जानते हैं।
पाकिस्तान के परमाणु सेंटर पर अमेरिकी परमाणु विकरण को जांचने वाले विमान की उपस्थिति, इजिप्ट से परमाणु विकरण रोकने वाली सामग्री का पाकिस्तान लाया जाना, किराना हिल्स एरिया में 5.1 तीव्रता तक के आए भूकंपों ने इस बात की तस्दीक कर दी है कि भारत के दिए घाव ने उसे भारत की शरण में आने को मजबूर कर दिया। कुछ कसर बाकी रह गई थी तो उसकी पुष्टि कई प्रतिष्ठित युद्ध विशेषज्ञों ने आयुध जर्नल्स और सेपरेटली लेखों के माध्यम से किया है। इन परिस्थितियों में युद्ध आगे नहीं बढ़ाया जा सकता था, कतई नहीं।
रहा सवाल इंदिरा जी से तुलना का, तो समय काल और परिस्थितियों के हिसाब से दोनों में कोई तुलना नहीं बनती है। इंदिरा गाँधी की बहादुरी पर कोई संदेह नहीं है। लेकिन उन्होंने जीता हुआ इलाका पश्चिम में भी वापस कर दिया और पूर्व में भी, जिसका नतीजा आज हम भुगत रहे हैं। उन्होंने 93 हजार पाक सैनिकों को तीन साल तक भारत में रखा लेकिन जब उन्हें छोड़ा गया तो बदले में पाक की जेलों में बंद भारतीयों को नहीं छुड़वाया जा सका। घुसपैठिये के रूप में पचास लाख से भी अधिक बंगलादेशी, भारत में प्रवेश कर गए, जो आज हमारे लिए नासूर बने हुए हैं।
इसके उलट मोदी ने देश को हथियार खरीदार से हथियार निर्माता देश के रूप में मजबूती से प्रतिस्थापित करना शुरू कर दिया। देश को सर्वोच्च सुरक्षा तंत्र दिया और मारक क्षमता ऐसी कि खाल खींच ले। जाहिर है हर बार एक नया नेरेटिव गढ़ने वाले कथित भारतीय और पाकिस्तान के आतंकी, सरकार और वहाँ की मुल्ला मुनीर की फौज कराह रही है।
विश्व का भारत के हथियारों पर विश्वास बढ़ा है जिसने चीन और अमेरिका दोनों के डिफेंस सिस्टम, मिसाइलों पर न केवल श्रेष्ठता साबित की वरन उनके फाइटर जेट भी मार गिराए। अभी तक की खबर के मुताबिक कम से कम 14 देशों ने भारत के हथियारों की खरीद में रुचि दिखाई है, जिससे हमें भविष्य का सुनहरा दौर दिखाई दे रहा है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं और यह उनके निजी विचार हैं)