लेखक- सुभाष चन्द्र
बड़ा जबर्दस्त हंगामा खड़ा हो गया है न्यायपालिका में,क्योंकि लोकपाल के 27 जनवरी के आदेश में हाई कोर्ट के जज के खिलाफ जांच खड़ी हो गई और सुप्रीम कोर्ट को न्यायाधीशों की बिरादरी के अनाथ होने का डर लगने लगा।
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश ए एम खानविलकर जो वर्तमान में लोकपाल हैं उन्होंने Lokpal and Lokayuktas Act, 2013 के अंतर्गत यह कह दिया कि लोकपाल हाई कोर्ट के जजों के विरुद्ध भ्रष्टाचार की शिकायत सुन सकता है क्योंकि वे लोकपाल कानून में Public Servants की श्रेणी में आते हैं, लोकपाल के पास 2 शिकायत आई थी,
एक हाई कोर्ट के जज के खिलाफ कि उसने Additional District Judge पर दबाव डाला और दूसरी एक अन्य हाई कोर्ट जज के खिलाफ जो एक मुक़दमे से संबंधित थी।
जस्टिस के वीरास्वामी के केस में सुप्रीम कोर्ट ने ही निर्णय दिया था कि हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों के खिलाफ भ्रष्टाचार की शिकायत पर जांच शुरू करने के लिए चीफ जस्टिस से अनुमति लेनी जरूरी है ।उस आदेश का मतलब यही था कि जजों के खिलाफ भी शिकायत हो सकती है, यह नहीं कहा था कि शिकायत हो ही नहीं सकती।
इसलिए लोकपाल खानविलकर ने इन दोनों शिकायतों को और संबंधित दस्तावेज चीफ जस्टिस को guidance के लिए भेजते हुए 4 सप्ताह के लिए आगे की कार्यवाही पर स्वयं रोक लगा दी ,जस्टिस खानविलकर समेत लोकपाल के 9 सदस्यों ने सर्वसम्मति से इस बारे में निर्णय लिया और कहा कि High Court judge meets the definition of ‘public servant’ and that the Lokpal and Lokayuktas Act, 2013 does not exclude the judges-
मामला लोकपाल और चीफ जस्टिस के बीच था लेकिन जस्टिस बीआर गवई, जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस अभय एस ओखा ने लोकपाल के आदेश पर स्वत संज्ञान लेते हुए उसे स्टे कर दिया।
जब मामला चीफ जस्टिस ऑफ़ इंडिया के पाले में था तो किसी जज को स्वत संज्ञान लेने का कोई अधिकार नहीं रह जाता, ऐसा करने से पहले उन्हें चीफ जस्टिस की अनुमति लेना आवश्यक था जो उन्होंने नहीं ली लगती है।
जस्टिस गवई तिलमिला गए और पहला शब्द कहा -“Something very very disturbing,” और कोर्ट ने आगे कहा कि the matter was of great importance, concerning the independence of the judiciary
ये लोग भूल गए कि सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने 4:1 से 1991 जस्टिस के रामास्वामी के केस में निर्णय दिया था कि हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जज Prevention of Corruption Act, 1988 के अंतर्गत Public Servants हैं ,तो फिर तीनों जजों को ही दर्द क्यों हुआ।
सुप्रीम कोर्ट की मदद के लिए बहुचर्चित कपिल सिब्बल जो प्रेस कॉन्फ्रेंस कर के सुप्रीम कोर्ट के उपर निहायत ही घटिया आरोप लगाने वाले ने अपनी सेवाएं देने की पेशकश करते हुए कहा कि
“The ruling was exceptionally disturbing.
“It is fraught with danger,” he said, while seeking stay on the Lokpal order।
सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने बहुत आपत्तिजनक बयान दिया कि हर जज अपने में हाई कोर्ट है और लोकपाल की जांच के दायरे में नहीं आ सकता, ऐसा कहने से पहले क्या मेहता ने केंद्र सरकार से अनुमति ली थी ?
प्रश्न यह उठता है कि आज बेंच में बैठे तीनों जज उस संविधान पीठ से ऊपर कैसे हो गए जिसने हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों को Public Servant कहा और उन्होंने यह कैसे मान लिया कि जजों के खिलाफ कोई शिकायत हो ही नहीं सकती!
इतना ही नहीं जस्टिस गवई की बेंच ने शिकायतकर्ता को भी हड़का दिया कि अपनी शिकायत को जगजाहिर न करे और न जजों का नाम किसी को बताए और सुनवाई की अगली तारीख़ 21 मार्च लगा दी।
क्या यह संविधान की हत्या की श्रेणि में नही है,जिसमें सुप्रीम कोर्ट एक संवैधानिक संस्था होकर लोकपाल जैसी दूसरी संवैधानिक संस्था को दबाने की कोशिश कर रहा है।
जजों ने यह भी कहा कि संसद से पास किए गए क़ानून से कोई जज बनता है, उस पर जांच कैसे कर सकते हैं लेकिन वो भूल गए कि लोकपाल कानून भी संसद ने ही बनाया था , लोकपाल ए एम खानविलकर को भी कुछ तो समझ होगी या खुदा ने सारी अक्ल आप लोगों को ही दे दी है?
(लेखक उच्चतम न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता हैं और यह उनके निजी विचार हैं)