लेखक- डॉक्टर राजीव मिश्र
क्रिकेट भारत की आत्मा को प्रतिबिंबित करता है. यह मूलतः व्यक्तिगत कौशल का खेल है जो एक टीम के दायरे में खेला जाता है. आपको मिक्सड स्किल की आवश्यकता होती है जो एक ही व्यक्ति में मैक्सिमाइज नहीं किया जा सकता. लेकिन उसमें भी ऐसी टीमें होती हैं जिनमें टीम के हित निजी गौरव के ऊपर अधिक महत्व पाते हैं, जैसे कि ऑस्ट्रेलिया. उनके खिलाड़ी यदि टीम की जीत में कंट्रीब्यूट करते हुए अपना स्थान बनाए रख सकते हैं तो ठीक है, अन्यथा किसी एक खिलाड़ी के निजी रिकॉर्ड बनवाने के लिए टीमें उन्हें बर्दाश्त नहीं करतीं. ना ही करियर के अंत में किसी खिलाड़ी के खराब फॉर्म से बाहर निकल कर सेंचुरी मार कर सम्मानजनक रिटायरमेंट की घोषणा का इंतजार किया जाता है।
इसके विपरीत भारत में यह प्रत्येक अच्छे खिलाड़ी का अधिकार माना जाता है कि वह दो चार साल तो टीम पर बोझ बन कर जिए. अश्विन या कुंबले जैसे उदाहरण कम ही दिखते हैं।
इस प्रवृति के अलावा भी भारत में क्रिकेट का इवोल्यूशन भारत के सामाजिक इवोल्यूशन के बारे में बहुत कुछ कहता है. जब हम छोटे थे तो अक्सर कहते थे कि क्रिकेट अमीरों का खेल है… इसमें बहुत किट लगता है.. बैट, बॉल, स्टंप्स, पैड… हेलमेट की तो कोई सोचता भी नहीं था. एक ही बैट से दोनों एंड के बैट्समैन खेलते थे, बॉलिंग साइड को एक ही स्टंप मिलता था, या एक ईंट या बॉलर की चप्पल से ही काम चल जाता है।
आज हर गली कूचे क्या गांव गांव में प्रॉपर बॉल, बैट, विकेट और ग्लव्स तो दिख ही जाती है. जो फ्लड लाइट तब सिर्फ कैरी पैकर सीरीज में आई थी आज छोटे छोटे कस्बों में पहुंच गई है।
संपन्नता और समृद्धि जैसे जैसे फैली है, क्रिकेट भी फैला है. पहले यह मुंबई और बंगलुरू के क्लबों में और प्रिंसली स्टेट्स के महाराजाओं के बीच खेला जाने वाला खेल था. आज यह छोटे कस्बों और गांवों से भी विश्व स्तर के खिलाड़ी दे रहा है।
पर जो अंतर सबसे बड़ा है, वह है क्रिकेट खेलने का एटीट्यूड. एक समय हम इसी बात पर गदगद रहते थे कि इंग्लैंड और ऑस्ट्रेलिया के अभिजात्य खिलाड़ी हमारे साथ खेल रहे हैं. जीतने और लड़ने की सोचते भी नहीं थे. इसको बदला गावस्कर के लड़ाकू और दृढ़ निश्चयी एटीट्यूड ने… गावस्कर ने चाहे उतनी विक्ट्रीज नहीं दी जितने ड्रॉ दिए, लेकिन उस एक नन्हे जायंट ने खेल पर अपने दांत गड़ाने का संकल्प दिया जो बाद में कपिल देव एरा में परिवर्तित हुआ… और इसकी परिणति सचिन-द्रविड़-लक्ष्मण-कुम्बले युग में हुई. यह एटीट्यूड का अंतर भारतीय अर्थव्यवस्था में पूंजीवाद की (आंशिक) स्वीकृति और उससे उत्पन्न सम्पन्नता और सामान्य भारतीय के जीवन के प्रति एटीट्यूड में अंतर को प्रतिबिंबित करता है।
भारत में क्रिकेट का यह इवोल्यूशन भारत की अंतरराष्ट्रीय छवि से बिल्कुल मेल खाता है…और इसका सबसे अच्छा रूपक यह है कि एक समय में वी के कृष्ण मेनन संयुक्त राष्ट्र में आठ घंटे भाषण देते थे जिसको कोई नहीं सुनता था…जैसे कि एम एल जयसिम्हा की पांच दिन चलने वाली पारी…
और आज जिस तरह ऋषभ पंत ने टेस्ट में तीस पैंतीस गेंदों में साठ रन ठोक दिए, वैसे ही हमारे एस जयशंकर दो मिनट बोलते हैं और सन्नाटा छा जाता है।

(लेखक लंदन में डॉक्टर हैं)